ख़ुद को न हमसे छुपाया कीजिये
हमको इशारों से बुलाया कीजिये
दिल ये हमारा घर है आपका
अपने घर में आया जाया कीजिये
ये प्यार तो ख़ुदा की है इबादत
इस क़दर भी न शरमाया कीजिये
हया के दायरे से निकल भी आयें
यूं हमको न तरसाया कीजिये
इतना भी सिमटना ठीक नही है
कभी कभी तो मुस्कुराया कीजिये
महफ़िले ग़ैर में क्यूं हैं जाते आप
दिल हमारा न यूं जलाया कीजिये
ख़्वाब तो ख़्वाब है टूट जाता है
मत ख़्वाबों से बहलाया कीजिय़े
धड़कनों में मेरी नाम है आपका
कभी अपनी भी सुनाया कीजिये
नासूर न बन जायें ज़ख़्म ये कहीं
ज़ख़्मों को मेरे सहलाया कीजिये
नफ़रतों का दौर है हर तरफ़
सबक़ प्यार का सिखाया कीजिये
चाहते हैं अगर प्यार ही प्यार
दिल निर्मल का सजाया कीजिये
Tuesday, January 20, 2009
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मनभावन कविता .....
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
नासूर न बन जायें ज़ख़्म ये कहीं
ReplyDeleteज़ख़्मों को मेरे सहलाया कीजिये
-बेहतरीन है!!
किसी सिद्ध स्रोत से निकली सुन्दर सरिता सी कलकल करती निर्मल कविता से आपकी सुपरिचित थे। लेकिन इतनी उजली गज़ल पढ़के दिल में जो रौशनी हुई तो अंगुलियाँ थिरक उठीं लिखने को कि शायर निर्मल सिद्धू ही नहीं सिद्ध भी हैं।ऊपर वाला इसी तरह मेहरबाँ रहे।गणतंत्र-दिवस की शुभकामनाएँ-जयहिन्द!जय भारत!
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