Wednesday, January 14, 2009

दर्द

दे जितना भी दर्द मुझको दे रहा है तू
दे मगर शिद्दत से जो भी दे रहा है तू
इन्कार न करेंगे कभी लब ये मेरे
दिये जा बेख़ौफ़ होकर जो दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

तन्हाई दे दे ढेर सारी सी तड़प दे दे
रुसवाई दे दे दिल को इंतहा कसक दे दे
आंसुओं के सिलसिले न टूटे कभी मेरे
रंजो ग़म के इस क़दर तू सबक़ दे दे
न मिले हैं वो, न ही मिलने की है सूरत कोई
ख़्वाब जिनके आज भी जो दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

रातों को गिनूं तारे, दिन को न क़रार मिले
रहूँ तन्हा, किसी का न मुझको प्यार मिले
हर तमन्ना नाकाम होके रह जाये मेरी
ख़िज़ां ही ख़िज़ां हो ज़रा सी भी न बहार मिले
मंज़िल क्या मिलेगी उस तरफ़ अब मुझे
जिस तरफ़ का पता मुझको दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

हक़ दिया इन्साफ़ करने का था जिनको
हौसला अन्याय का क्यों मिल गया उनको
मेरा क्या, मैं तो सह लूंगा ये ज़ुल्म सारे
वक्त की शमशीर का क्या डर नही उनको
इस हवा का रुख़ तो बदल जायेगा मगर
शह नाइन्साफ़ी को, जाने क्यों दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द मुझको दे रहा है तू
दे मगर शिद्दत से जो भी दे रहा है तू.....

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