Sunday, January 4, 2009

मर्दानगी

मर्दानगी
उनकी मर्दानगी के क़िस्से गली गली आम हो रहे हैं
लहू बेगुनाहों का जो बहाया चर्चे सरे आम हो रहे हैं


जाने कौन सा फ़ितूर है उनमें किसने भरा जुनून है उनमें
नाम पर ख़ुदा के जो यहां हर घड़ी क़त्ले आम हो रहे हैं

तिस पर भी ख़ुद को कभी गुनाहगार नहीं माना उन्होने
गले में लटके हैं गुनाह के पट्टे और बदनाम हो रहे हैं

किस तरह के बहादुर हैं वो, कौन सी मंज़िल के राही हैं वो
मुश्किल है समझना कि क्यों वो हौले हौले तमाम हो रहे हैं

मर्दों में बैठना सीखें कहां से, ये सलीका हम लायें कहां से
क़ाबलियत थी जिनमें ये निर्मल सबके सब नाकाम हो रहे हैं

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया निर्मल जी, बहुत अच्छा व्यंग्य है -

    सुमन

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