वक़्त के माथे पे हम शिकन देखते हैं
अपने पैरों में जब भी थकन देखते हैं
डूब चला ये सूरज भी अब हौले हौले
उठती सीने में एक चुभन देखते हैं
उठाये हैं जब से मजहबों ने ख़ंज़र
ख़ौफ़ से भरे दीवार ओ सहन देखते हैं
मुद्दत हुई देखा था फूलों को हंसते हुये
अब तो उजड़ा हुआ चमन देखते हैं
किसको दें भला पैग़ामे उल्फ़त अब
दुश्मनी में डूबा हर ज़ेहन देखते हैं
बदलेगा कभी तो ये बिगड़ा निज़ाम
हौसले की नई एक लगन देखते हैं
मौत आती नही निर्मल को किसी दम
गो ज़हर से भरा उसका बदन देखते हैं
Sunday, January 11, 2009
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उठाये हैं जब से मजहबों ने ख़ंज़र
ReplyDeleteख़ौफ़ से भरे दीवार ओ सहन देखते हैं
--बहुत गजब!! वाह!!