Friday, September 23, 2011

न जाने क्यों

न जाने क्यों
आज भी
उम्र के इस मुक़ाम पर
उसके होने का अहसास
मन से बिसरा नहीं है,
वो सुगंधित पल
जब उसका हाथ
मेरे हाथ में था
आज भी
मेरे अंदर जीवित हैं,
हालाँकि
हाथ बहुत पहले ही
छूट गया था
वक़्त बहुत पहले ही
रूठ गया था,
मगर
उस पकड़ का
नर्म अहसास
आज भी
मेरी उंगलियों की
हरकत में है
मेरे लहू की रफ़्तार
मेरे दिल की धड़कन में है,
न जाने क्यों
भूलना चाहते हुये भी
कुछ नहीं भूल पाया मैं
छोड़ना चाहते हुये भी
कुछ नहीं छोड़ पाया मैं
न जाने क्यों
न जाने क्यों...

Saturday, September 17, 2011

जंगल का क़ानून

विश्व बना इक गहरा बन
जंगल का क़ानून दना दन,
जगा-जगा हैं दाँव पैंतरे
गोला बारूद चले ठना ठन,

नदियों में तेज़ाब बहे है
सागर हो गये सब ज़हरीले
हवा भी सारी भ्रष्ट हो गई
बादल बरसे काले पीले,
खद्दर-टोपी जूझ रहे हैं
स्वीस बैंक हैं भरे खना-खन,

ताड़ के मौक़ा झपट हैं लेते
हक़ दूजे का हड़प हैं लेते
गिद्ध बने अब देश के रक्षक
मज़े से देश को लपक हैं लेते,
हाथ में गर्दन जब आये तो
रेतें छूरी छन छना-छन,

ख़ून का दौरा सही चले ना
नब्ज़ डूब गई रिश्तों की
दिल की धड़कन धन-धन करती
लाश बिके चाहे अपनों की,
घर-घर में जंगल फैल गया अब
कहीं मिले ना अपना-पन,

कौन किसे कब ज़िन्दा निग़ले
कौन किसे कब मुर्दा खाये
भाग सके तो भाग ले भाई
जान बची तो लाखों पाये,
क़ानून की बोली पांव के नीचे
कोई सुने ना सन सना-सन...