जिधर भी मैं देखूँ दिखाई वही दे
जहाँ भी सुनूँ मैं सुनाई वही दे
नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
ज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे
तसव्वुर में कितना भी चाहें किसी को
दिलों को मुहब्बत जुदाई वही दे
उठाये हैं हमने तो ख़ंज़र पे ख़ंज़र
अमन पर वही दे, भलाई वही दे
यहाँ से कभी कोई जाना न चाहे
मगर हर किसी को बिदाई वही दे
क़लम चाहे कितना सलीका दिखाये
क़लम को मगर रोशनाई वही दे
युं निर्मल के करने से होता नहीं है
ग़ज़ल या नज़म या रुबाई वही दे
Saturday, January 30, 2010
Monday, January 25, 2010
एक और भारत
मेरे देश की याद आने लगी है
मेरे दिल पे बदरी सी छाने लगी है
कभी ना जो उतरी हैं दिल के फ़लक से
वो हर बात मुझको सताने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
वो पिक्चर की बातें, वो टी वी के क़िस्से
वो क्रिकेट की दौड़ें, वो हाकी के क़िस्से
वो नुक्कड़ की बैठक, वो ढाबों की रौनक
वो टमटम की खनखन, वो काफ़ी के हिस्से
घड़ी मुड़ के फिर ना वो आने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
वो अब्बा की ज़ेबों से पैसे चुराना
चुरा कर वो पैसे सिनेमा को जाना
गई रात तक घर को वापस न आना
जो आना तो फिर मार अब्बा की खाना
वही मार दिल को जलाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
दिया साथ अम्मा ने हरदम हमारा
गर वो ना होती न होता गुज़ारा
सदा उसने ममता की ठंडक से पाला
न जाने कहाँ अब वो चमके है तारा
मुझे याद उसकी रुलाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
कहाँ से कहाँ ज़िन्दगी आ चुकी है
जो सोचूँ तो इक हूक दिल में उठी है
वतन छोड़ हम परदेस आ बसे हैं
मगर देश की याद मिट ना सकी है
वो अब मेरे सपनों में आने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
न मिलते यहाँ मुझको सावन के झूले
यहाँ लोग तो ख़ास रिश्ते भी भूले
यहाँ दौड़ती भागती ज़िन्दगी है
कोई तो हो जो मेरे मन को छूले
मेरी आरज़ू डगमगाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
छोड़ें अब, न इतना भी मातम मनायें
ये ग़मगीन चेहरा न सबको दिखायें
अगर मश्वरा आप निर्मल का माने
यहीं मिलके एक और भारत बनायें
नई रोशनी सर उठाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
मेरे दिल पे बदरी सी छाने लगी है
मेरे दिल पे बदरी सी छाने लगी है
कभी ना जो उतरी हैं दिल के फ़लक से
वो हर बात मुझको सताने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
वो पिक्चर की बातें, वो टी वी के क़िस्से
वो क्रिकेट की दौड़ें, वो हाकी के क़िस्से
वो नुक्कड़ की बैठक, वो ढाबों की रौनक
वो टमटम की खनखन, वो काफ़ी के हिस्से
घड़ी मुड़ के फिर ना वो आने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
वो अब्बा की ज़ेबों से पैसे चुराना
चुरा कर वो पैसे सिनेमा को जाना
गई रात तक घर को वापस न आना
जो आना तो फिर मार अब्बा की खाना
वही मार दिल को जलाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
दिया साथ अम्मा ने हरदम हमारा
गर वो ना होती न होता गुज़ारा
सदा उसने ममता की ठंडक से पाला
न जाने कहाँ अब वो चमके है तारा
मुझे याद उसकी रुलाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
कहाँ से कहाँ ज़िन्दगी आ चुकी है
जो सोचूँ तो इक हूक दिल में उठी है
वतन छोड़ हम परदेस आ बसे हैं
मगर देश की याद मिट ना सकी है
वो अब मेरे सपनों में आने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
न मिलते यहाँ मुझको सावन के झूले
यहाँ लोग तो ख़ास रिश्ते भी भूले
यहाँ दौड़ती भागती ज़िन्दगी है
कोई तो हो जो मेरे मन को छूले
मेरी आरज़ू डगमगाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
छोड़ें अब, न इतना भी मातम मनायें
ये ग़मगीन चेहरा न सबको दिखायें
अगर मश्वरा आप निर्मल का माने
यहीं मिलके एक और भारत बनायें
नई रोशनी सर उठाने लगी है
मेरे देश की याद आने लगी है
मेरे दिल पे बदरी सी छाने लगी है
Friday, January 22, 2010
ज़िन्दगी, इक तमाशा
मैं कोई
दौलतमन्द नहीं कि
तू मेरी
दौलत के लिये ही
मेरे क़रीब
आ सके,
मैं कोई
दानिशमन्द नहीं कि
तू मेरी
अक़्ल का दामन पकड़
मुझमें
समा सके,
मैं कोई बहुत
शक्तिशाली भी नहीं कि
तू मेरी
शक्ति का लोहा मान
मेरी क़िस्मत का
दर खोल दे,
मैं कोई
जादूगर भी नहीं कि
जिसका जादू
पूरी तन्मयता से
तेरे सर चढ़
बोल दे,
फ़नकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
पहुँचा हुआ कि
मेरा फ़न ही
कभी
खींच लाये तुझे,
अदाकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
ऊँचे दर्जे का कि
मेरी कोई
लुभावनी अदा ही
घसीट लाये तुझे,
मैं तो फ़कत
मुसाफ़िर हूँ
उस राह का
जिसकी कोई
मंज़िल नहीं,
अंतहीन आकाश में
उड़ता हुआ एक
आवारा पंछी हूँ केवल
जिसका कोई लक्ष्य नहीं
कोई दिशा नहीं,
तो भी ये
बेमक़सद परवाज़ तो
ख़त्म हो ही
जायेगी इक दिन,
तेरे मेरे बीच की ये
कच्ची डोर भी
टूट ही जायेगी
एक न एक दिन,
मगर
तुझको पाने की
ख़्वाहिश
युं ही बीच राह
डगमगाती रहेगी,
तुम मिलोगे या नहीं
मिलोगे तो कब कहाँ
ये सोच
सोच की पगडंडियों पे
युं ही लड़खड़ाती रहेगी,
किसे दूँ
इल्ज़ाम इसका
अपनी दुर्बलता को
अपनी अग्यानता को
अपनी नीरसता को
अथवा
अपनी विवशता को
या शायद
किसी को भी नहीं,
औक़ात नहीं कि
तुझसे कुछ
पूछ सकूँ,
हैसियत भी नहीं कि
तुझ पर
कोई सवाल
दाग सकूँ,
फिर भी
एक अंतिम सवाल
कि जब तुम
ख़ुद ही
बनाते हो
ख़ुद ही
मिटाते हो
तो फिर ये सारे
तमाशे ज़िन्दगी के
हमसे क्यों
करवाते हो?
हमसे क्यों
करवाते हो?
दौलतमन्द नहीं कि
तू मेरी
दौलत के लिये ही
मेरे क़रीब
आ सके,
मैं कोई
दानिशमन्द नहीं कि
तू मेरी
अक़्ल का दामन पकड़
मुझमें
समा सके,
मैं कोई बहुत
शक्तिशाली भी नहीं कि
तू मेरी
शक्ति का लोहा मान
मेरी क़िस्मत का
दर खोल दे,
मैं कोई
जादूगर भी नहीं कि
जिसका जादू
पूरी तन्मयता से
तेरे सर चढ़
बोल दे,
फ़नकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
पहुँचा हुआ कि
मेरा फ़न ही
कभी
खींच लाये तुझे,
अदाकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
ऊँचे दर्जे का कि
मेरी कोई
लुभावनी अदा ही
घसीट लाये तुझे,
मैं तो फ़कत
मुसाफ़िर हूँ
उस राह का
जिसकी कोई
मंज़िल नहीं,
अंतहीन आकाश में
उड़ता हुआ एक
आवारा पंछी हूँ केवल
जिसका कोई लक्ष्य नहीं
कोई दिशा नहीं,
तो भी ये
बेमक़सद परवाज़ तो
ख़त्म हो ही
जायेगी इक दिन,
तेरे मेरे बीच की ये
कच्ची डोर भी
टूट ही जायेगी
एक न एक दिन,
मगर
तुझको पाने की
ख़्वाहिश
युं ही बीच राह
डगमगाती रहेगी,
तुम मिलोगे या नहीं
मिलोगे तो कब कहाँ
ये सोच
सोच की पगडंडियों पे
युं ही लड़खड़ाती रहेगी,
किसे दूँ
इल्ज़ाम इसका
अपनी दुर्बलता को
अपनी अग्यानता को
अपनी नीरसता को
अथवा
अपनी विवशता को
या शायद
किसी को भी नहीं,
औक़ात नहीं कि
तुझसे कुछ
पूछ सकूँ,
हैसियत भी नहीं कि
तुझ पर
कोई सवाल
दाग सकूँ,
फिर भी
एक अंतिम सवाल
कि जब तुम
ख़ुद ही
बनाते हो
ख़ुद ही
मिटाते हो
तो फिर ये सारे
तमाशे ज़िन्दगी के
हमसे क्यों
करवाते हो?
हमसे क्यों
करवाते हो?
Friday, January 15, 2010
सदा मेरे दिल से
सदा मेरे दिल से जो उठती रही
ज़ुबां उसको कहने से रुकती रही
समझ ही न पाये हैं ताज़िन्दगी
ये क्यों सबकी नज़रों में चुभती रही
रहे हम खड़े बस उन्हीं के लिये
युं ही ज़िन्दगी ख़्वाब बुनती रही
ख़ता हम मुहब्बत की कर तो गये
शमा आस की जगती बुझती रही
ज़रा पीछे मुड़, देख अय ज़िन्दगी
कि किस आरज़ू में तु लुटती रही
न दिलवर न दोस्त न हमदम कोई
भरे जग में हरदम तु छुपती रही
तेरे मुंह से निर्मल कभी ना सुना
सरे बज़्म दुनिया जो सुनती रही
ज़ुबां उसको कहने से रुकती रही
समझ ही न पाये हैं ताज़िन्दगी
ये क्यों सबकी नज़रों में चुभती रही
रहे हम खड़े बस उन्हीं के लिये
युं ही ज़िन्दगी ख़्वाब बुनती रही
ख़ता हम मुहब्बत की कर तो गये
शमा आस की जगती बुझती रही
ज़रा पीछे मुड़, देख अय ज़िन्दगी
कि किस आरज़ू में तु लुटती रही
न दिलवर न दोस्त न हमदम कोई
भरे जग में हरदम तु छुपती रही
तेरे मुंह से निर्मल कभी ना सुना
सरे बज़्म दुनिया जो सुनती रही
Saturday, January 9, 2010
ख़ुदा जाने
ख़ुदा जाने हमसे हुई क्या ख़तायें
जो ऐसी हमें मिल रही हैं सज़ायें
बहुत हमने चाहा बहुत कर के देखा
मगर पा सके हम न उनकी वफ़ायें
नहीं कोई देखा ज़माने में अपना
ग़मे दास्तां अब ये किसको बतायें
नहीं जानते हम इशारों को उनके
ये कुछ और है या हैं उनकी अदायें
पता ही नहीं अब वो रहते कहाँ हैं
पता गर चले जा के उनको मनायें
कभी जब मिलेंगे तो पूछेंगे उनसे
ये दिल हर घड़ी क्यों दे उनको सदायें
कि हर शाख़ का रुख़ बदलने लगा है
नई से नई चल रही जो हवायें
ये निर्मल भी जाने कहाँ गुम हो जाता
वो सुनता नहीं चाहे जितना बुलायें
जो ऐसी हमें मिल रही हैं सज़ायें
बहुत हमने चाहा बहुत कर के देखा
मगर पा सके हम न उनकी वफ़ायें
नहीं कोई देखा ज़माने में अपना
ग़मे दास्तां अब ये किसको बतायें
नहीं जानते हम इशारों को उनके
ये कुछ और है या हैं उनकी अदायें
पता ही नहीं अब वो रहते कहाँ हैं
पता गर चले जा के उनको मनायें
कभी जब मिलेंगे तो पूछेंगे उनसे
ये दिल हर घड़ी क्यों दे उनको सदायें
कि हर शाख़ का रुख़ बदलने लगा है
नई से नई चल रही जो हवायें
ये निर्मल भी जाने कहाँ गुम हो जाता
वो सुनता नहीं चाहे जितना बुलायें
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