चलो कि
वहाँ जहाँ
असीमित हो जहां,
धरती का कोई
किनारा न हो
आकाश भी अनंत हो
बेअंत हो,
कहीं कोई सीमा नहीं
सोच पर कोई
बंधन नहीं,
सपनों पर कोई
पहरे नहीं
मरने-जीने की कोई
सौगन्ध नहीं,
जिस्मो रूह आज़ाद हों
हम-तुम नाशाद हों,
दुनिया की
भाग-दौड़ से परे
उम्र की हदों से दूर
दिलों के आईने में
रहें झांकते
हो न मजबूर,
वहाँ जहाँ
रिश्तॊं का शोर नहीं
एक का दूजे पे ज़ोर नहीं,
हो तो फ़कत
बहते पानी सा
आज़ादाना बहाव
हो तो केवल
वायु सा
अपरिमित फैलाव,
प्रकाश का एक
लघु बिम्ब
तब बने एक
विशाल प्रकाश-पुंज,
समो जायें
एक दूसरे में
कुछ इस क़दर कि
न रहे भेदभाव
न कोई अभाव
न अधिक झुकाव
न कोई गहरा लगाव
आओ कि चले
हम-तुम वहाँ...
Monday, August 15, 2011
Friday, August 12, 2011
कहानियाँ
कहानियाँ
आती कहीं से हैं
तो कहानियाँ
जाती कहीं पे हैं,
कहानियाँ
गढ़ी जाती हैं
न जाने कहाँ
कहानियाँ
मगर
पढ़ी जाती हैं यहाँ,
कहानियाँ
बनती तो हैं
बहुतों की
कहानियाँ
पर बिगड़ती भी हैं
बहुतों की,
कहानियाँ
कभी सुन्दर
मनचाही व दीवानी सी
कहानियाँ
कभी उबाऊ
नीरस औ बेमानी सी,
कहानियाँ
रचता है
जो कोई भी
कहानियाँ
कभी सुनता न
वो कोई भी,
कहानियाँ
सांसों की
रफ़्तार है कि
कहानियाँ
रेखाओं का
चमत्कार है,
कहानियाँ
भावनाओं के
वलवले हैं कि
कहानियाँ
क्रोध औ नफ़रत के
ज़लज़ले हैं,
कहानियाँ
शारीरिक परिश्रम
के नतीजे हैं कि
कहानियाँ
बस रूहानी
अजूबे हैं,
कहानियाँ तो
बस अनबूझ
पहेली होती हैं
कहानियाँ तो
अनदेखी पर
अलबेली होती हैं,
कहानियाँ
यूं ही उतरती
रहेंगी जब तक
कहानियाँ किताबों में
यूं ही सिमटती
रहेंगी तब तक...
आती कहीं से हैं
तो कहानियाँ
जाती कहीं पे हैं,
कहानियाँ
गढ़ी जाती हैं
न जाने कहाँ
कहानियाँ
मगर
पढ़ी जाती हैं यहाँ,
कहानियाँ
बनती तो हैं
बहुतों की
कहानियाँ
पर बिगड़ती भी हैं
बहुतों की,
कहानियाँ
कभी सुन्दर
मनचाही व दीवानी सी
कहानियाँ
कभी उबाऊ
नीरस औ बेमानी सी,
कहानियाँ
रचता है
जो कोई भी
कहानियाँ
कभी सुनता न
वो कोई भी,
कहानियाँ
सांसों की
रफ़्तार है कि
कहानियाँ
रेखाओं का
चमत्कार है,
कहानियाँ
भावनाओं के
वलवले हैं कि
कहानियाँ
क्रोध औ नफ़रत के
ज़लज़ले हैं,
कहानियाँ
शारीरिक परिश्रम
के नतीजे हैं कि
कहानियाँ
बस रूहानी
अजूबे हैं,
कहानियाँ तो
बस अनबूझ
पहेली होती हैं
कहानियाँ तो
अनदेखी पर
अलबेली होती हैं,
कहानियाँ
यूं ही उतरती
रहेंगी जब तक
कहानियाँ किताबों में
यूं ही सिमटती
रहेंगी तब तक...
Friday, August 5, 2011
पंछी (आत्मा)
मुक्त गगन की
उड़ान को
निहारता पंछी
पराधीनता को
हर घड़ी
नकारता पंछी,
समय को प्रयास
कर पीछे
धकेलता पंछी
आस्तित्व को अपने
निखारता पंछी,
बहुत ही बेसब्र
अब तो
हो चुका है वो
इंतज़ार में पड़ा
बेरंग हो
चुका है वो,
सहनशीलता से
अब न कोई
वास्ता रहा
प्यास जन्मों की लिये
ख़ुश्क हो
चुका है वो,
कड़ी धूप में
देर से नीर को
तलाशता पंछी...
बेचैनियों का
सिलसिला
वो बन गया
ख़्वाहिशों की
सूखी डाल पर ही
तन गया,
तप्त देह में समेटे
जग क्र सारे
ज़लज़ले
मौसमों की मार का
प्रमाण एक
बन गया,
पथ की दुर्लभता
को तक विह्वल हो
पुकारता पंछी...
मन मेरा तो चाहता
मदद उसकी
करूं मैं
तोड़ बेड़ियां समस्त
संग उसके ही
चलूं मैं,
देह-रस गर मेरा
छूट जाये देह से
कहीं
नाम-रस फिर सदा
उसके होंठों पर
धरूं मैं,
बात मेरी जब है सुनता
परों को
संवारता पंछी
मुक्त गगन की
उड़ान को
निहारता पंछी...
उड़ान को
निहारता पंछी
पराधीनता को
हर घड़ी
नकारता पंछी,
समय को प्रयास
कर पीछे
धकेलता पंछी
आस्तित्व को अपने
निखारता पंछी,
बहुत ही बेसब्र
अब तो
हो चुका है वो
इंतज़ार में पड़ा
बेरंग हो
चुका है वो,
सहनशीलता से
अब न कोई
वास्ता रहा
प्यास जन्मों की लिये
ख़ुश्क हो
चुका है वो,
कड़ी धूप में
देर से नीर को
तलाशता पंछी...
बेचैनियों का
सिलसिला
वो बन गया
ख़्वाहिशों की
सूखी डाल पर ही
तन गया,
तप्त देह में समेटे
जग क्र सारे
ज़लज़ले
मौसमों की मार का
प्रमाण एक
बन गया,
पथ की दुर्लभता
को तक विह्वल हो
पुकारता पंछी...
मन मेरा तो चाहता
मदद उसकी
करूं मैं
तोड़ बेड़ियां समस्त
संग उसके ही
चलूं मैं,
देह-रस गर मेरा
छूट जाये देह से
कहीं
नाम-रस फिर सदा
उसके होंठों पर
धरूं मैं,
बात मेरी जब है सुनता
परों को
संवारता पंछी
मुक्त गगन की
उड़ान को
निहारता पंछी...
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