Tuesday, March 31, 2009

तेरा शुक्रिया

शुक्रिया, तेरा शुक्रिया
मेरे यार तेरा शुक्रिया
इक बार नहीं केवल
लक्ख बार तेरा शुक्रिया
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया....



सांस की रफ़्तार का
दिल में उतरे प्यार का
वादा-ओ-इक़रार का
सुन्दर मेरे संसार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

तेरे रहमो-क़रम को मैं बयां
शब्दों में कर नहीं सकता
इस समन्दर को मैं अपने
हाथों में भर नहीं सकता

ज़िन्दगी की बहार का
ख़ूबसूरत यार का
यार के इज़हार का
दिलों के ऐतबार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

हर घड़ी, हर दिन तरसता
था, ये दिल तेरी दीद को
आ गया आराम दिल को
अब दर्शन हुये जो ईद को

ईद के त्योहार का
मनपसन्द उपहार का
बरसों के इंतज़ार का
आये अमन-ओ-क़्ररार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

कभी छोड़ न देना मुझे तू
दिलवर मेरे मंझधार में
छोड़ के दुनिया-जहाँ सब
आया हूँ तेरे दरबार में

आशिकों के ख़ुमार का
इस जहां के सिंगार का
ख़ुदाया तेरे प्यार का
पल-पल के चमत्कार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया......

कह लिया और सुन लिया है
दिल का अफ़साना हुज़ूर
दे सभी को सुकूने-दिल तू
अब न तड़पाना हुज़ूर

इस दरोदीवार का
रहमत के आबशार का
दौलत बेशुमार का
मेरे परवरदीगार का

शुक्रिया, तेरा शुक्रिया
मेरे यार तेरा शुक्रिया
इक बार नहीं केवल
लक्ख बार तेरा शुक्रिया..........

Monday, March 30, 2009

जीवन का सफ़र

जीवन का सफ़र
कब किस तरफ़
मुड़ जाये,
कौन किससे
कहाँ मिल जाये
और कौन किससे
कहाँ बिछड़ जाये,
अनिश्चित सा, अनिर्मित सा
अपरिचित सा, आशंकित सा,
कहाँ न जाने
क्या लॉक हो जाये,
कहाँ न जाने क्या
ब्लॉक हो जाये,
कौन कब
हिट हो जाये
कौन कब
चित हो जाये,
ऐसा क्यूं है?
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन
ऊपर-नीचे, अंदर-बाहर
हर तरफ़
सवाल-ही-सवाल,
उत्तर ग़ुम, जवाब लापता
चलता नहीं ’उसका’ पता,
बस,
सन्नाटा ही तारी है
’उसकी’
तलाश अभी जारी है.......

Tuesday, March 24, 2009

घड़ी भर के लिये आ ही जाईये

सारी उम्र न सही, घड़ी भर के लिये आ ही जाईये
इस ग़मगीन ज़िन्दगी में ज़रा मुस्कुरा ही जाईये

आपके आने से मिल जायेगी दिल को तस्कीन
इस रेगिस्तां में प्यार की बूंदे बरसा ही जाईये

न जाने कब से तारी है इक सन्नाटा सा यहाँ
आहट से क़दमों की, हलचल मचा ही जाईये

क्या पता आपको कैसे कटीं, घड़ियां इंतज़ार की
अब न सतायें और, लगी दिल की बुझा ही जाईये

कितना है तन्हा आज, दुनिया की भीड़ में ’निर्मल’
मरहले उसके आकर आप, अब सुलझा ही जाईये

Sunday, March 15, 2009

अरमान

"अरे, सुधीर बाबू... आप यहाँ..., व्हाट ए प्लीजेन्ट सरप्राईज़" सरोज ने जैसे ही सुधीर को देखा तो मारे ख़ुशी के बोल पड़ी। वह फ़ार्मेसी से दवायें लेकर निकल रही थी और सुधीर अंदर दाख़िल हो रहा था।
"ओह, सरोज... कैसी हो तुम?" सुधीर के मुँह से निकला।
"ठीक हूँ...आपका क्या हाल है? एक ही शहर में रहते हुये भी, हम वर्षों से मिले नहीं और आज अचानक... यह भी विचित्र संयोग है न..."
"हाँ भई... ज़िन्दगी की भाग-दौड़ ही ऐसी हो गई है कि कुछ देर के लिये साथ मिलता है फिर दूरी हो जाती है। रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं। बाई द वे, तुम सुनाओ, तुम्हारा क्या हाल है?" सुधीर ने दोबारा पूछा।
"कहा न कि ठीक हूँ... आप यहाँ कहाँ?"
"मैने अपनी कुछ दवायें लेनी थीं, इसीलिये मैं इधर आया था"
"मैं भी अपनी दवाओं के ही सिलसिले में यहाँ आई थी... ख़ैर, आपने कॉफ़ी पीने की आदत छोड़ दी या अभी भी पीते हैं?"
"कभी-कभार पी लेता हूँ... वैसे अब सेहत ज़्यादा कैफ़ीन की इजाज़त नहीं देती है।"
"चलिये फिर... आप अपनी दवायें ले लें... मैं यहीं इंतज़ार करती हूँ, फिर कॉफ़ी-शॉप में चलकर कॉफ़ी पीते हैं... क्यों ठीक है न?"
"ठीक है, तुम रुको... मैं अभी आया।"
सुधीर ने दवायें लीं और धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ सरोज के क़रीब आया। सरोज ने जब उसे ध्यान से देखा तो वह हैरान रह गई। सुधीर क़ाफ़ी ढल चुका था। उसकी चाल बता रही थी कि अब वह पहले वाला सुधीर नहीं रह गया। सिर में गंज, चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों पे चश्मा और चाल में लड़खड़ाहट, सारी बातें सुधीर के बुढ़ापे की गवाही दे रही थीं।
दोनों साथ-साथ चलते हुये कॉफ़ी-शॉप पर पहुँच गये।
"सिर्फ़ कॉफ़ी ही लोगी या कुछ और भी खाने को..." सुधीर ने पूछा।
"कुछ और भी चलेगा..." सरोज ने तेज़ी से कहा, वह इतने दिनों बाद सुधीर को पाकर उसके साथ कुछ समय बिताना चाह रही थी। सुधीर ने उसे कहीं बैठने को कहा और स्वयं कॉफ़ी लेने चल पड़ा।
मॉल के फ़ूड-कोर्ट में काफ़ी चहल-पहल थी। बाद-दोपहर का समय था। स्कूलों की छुट्टी हो चुकी थी। तमाम छात्र-छात्राओं ने मॉल में काफ़ी गहमा-गहमी कर रखी थी। सरोज ने इधर-उधर देखा और एक कोने में लगे टेबल पर जाकर बैठ गई। अब वह ध्यान से सुधीर की ओर देखने लगी।
सुधीर कॉफ़ी-शॉप के सामने लगी लाईन में खड़ा हो गया। सरोज से मिलकर वह भी स्वयं को प्रसन्नचित्त महसूस कर रहा था और सरोज, वह तो उसी के बारे में सोचे जा रही थी।
सुधीर और सरोज एक ही फ़र्म के लिये काम करते थे। क़रीब दस साल तक दोनों ने एक साथ काम किया था। जब सरोज ने वहाँ ज्वाईन किया था तब सुधीर वहाँ मैनेजर के पद पर नियुक्त था। शुरू से ही दोनों में एक ताल-मेल सा बैठ गया था। अथवा, यूं कहें कि उनके विचार आपस में मेल खाते थे तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी।
एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट करने वाली इस फ़र्म में सुधीर ने अपने बल पर ही उन्नति की थी। एक हैड-क्लर्क से लेकर मैनेजर तक का सफ़र आसान नहीं था। इसमें उसकी दिन-रात की मेहनत शामिल थी। फ़र्म वाले उससे बेहद ख़ुश थे। दो पुत्रों और पत्नी के साथ वह शहर के मध्य एक आलीशान फ़्लैट में रहता था। अपने जीवन के वह पचास वर्ष पूरे कर चुका था जब सरोज उसके जीवन में आई थी।
"मैडम जी, कॉफ़ी हाज़िर है..." सुधीर ट्रे लिये सामने खड़ा था।
ट्रे में खाने का सामान भी काफ़ी था। दोनों आहिस्ता-आहिस्ता स्नैक्स खाते हुये कॉफ़ी की चुस्कियां लेने लगे। दोनों में से किसी को भी जल्दी नहीं थी। मनचाहा साथ हो तो समय को पकड़ कर रखने को मन करता है। सुधीर और सरोज अपने-अपने तरीके से अतीत में झांकने का प्रयास कर रहे थे।
उस समय सरोज पैंतीस साल की भरपूर नवयौवना थी। शादी हो चुकी थी और दो बच्चों की माँ थी। पति की तबादले वाली नौकरी की वजह से एक शहर से दूसरे शहर आना-जाना लगा रहता था। इस नये शहर में आकर जब सरोज ने नौकरी की तलाश शुरू की तो सुधीर वाली फ़र्म में जगह मिलने पर उसे बड़ी ख़ुशी हुई। फिर ज्वॉईन करते ही सुधीर जैसा मनचाहा दोस्त मिल गया तो वह स्वयं को और भी भाग्यशाली समझने लगी।
"अशोक कैसा है?" सुधीर ने कॉफ़ी का घूँट भरते हुये पूछा।
"ठीक ही होगा" सरोज ने अनमने से स्वर में कहा। अशोक, सरोज के पति का नाम था।
"ठीक ही होगा का क्या मतलब?"
"अब हम साथ नहीं रहते, हमारा तलाक़ हुये एक अरसा हो चुका है।" कहते हुये सरोज ने कॉफ़ी का मग उठा कर होंठों से लगा लिया।
"ओह... आई एम सॉरी"
"इसमें अफ़सोस की कोई बात नहीं... इट्स ओ. के."
"और बच्चे?"
"दोनों की शादी हो चुकी है। बेटी आस्ट्रेलिया चली गई है और बेटा भारत में होने के बावजूद भी दूसरे शहर में रहता है।"
सरोज के पति में शिक्षित होने के बावजूद एक ऐब था। वह शराब का बहुत आदी था। उसका यह नित्य का शौक़ बन चुका था। यह तो सर्वविदित है कि जिस घर में शराब का प्रवेश होता है, वहाँ से सुख-शान्ति की विदाई हो जाती है। ऐसा ही सरोज के साथ हुआ था। घर की अशान्ति से वह बेहद परेशान रहती थी। अशोक की दारू की आदत ने सरोज के जीवन में ज़हर घोल रखा था। वह सरोज की ज़रा भी परवाह नहीं करता था। यहाँ तक कि नशे की लोर में सरोज पर हाथ भी उठा बैठता था। बच्चों से सरोज को बेहद लगाव था। उन्हीं की वजह से वह सब कुछ सहे जा रही थी। उसने बहुत कोशिश की कि अशोक की यह बुरी लत छूट जाये पर कोई लाभ न हुआ। वह शराब के ही कारण अपना काम भी सही तरीक़े से नहीं कर पाता था। सरोज बहुत बिखरी-बिखरी सी रहा करती थी। इन्हीं मानसिक परेशानियों में घिरे-घिरे वह सुधीर की ओर झुकने लगी थी।
"तो तुम आजकल क्या करती हो? मेरा मतलब है कि स्वयं को व्यस्त रखने का क्या साधन अपना रखा है, जहाँ तक मैं जानता हूँ तुम ख़ाली कभी नहीं रह सकती।" सुधीर ने स्नैक्स खाते हुये पूछा
"बेटा और बहू दोनों ने सेहत की वजह से मुझे काम करने से मना कर रखा है। वही गुज़ारे लायक पैसे भेज देते हैं। दिन भर घर में होती हूँ। कभी-कभी लाईब्रेरी या बाज़ार में घूमने निकल जाती हूँ।" वह फिर ठहर कर बोली, "सुधीर बाबू, ज़िन्दगी के तनाव ने रोगों की शक़्ल में कुछ तुहफ़े दिये हैं जिनमें हाई-ब्लड प्रैशर, डाईबेटीज़ और डिप्रैशन प्रमुख हैं, उन्हीं के साथ गुज़ारा कर रही हूँ। सोचती हूँ, कि बुढ़ापे में रोग अवश्य होने चाहिये, कम-से-कम तन्हा आदमी उनमें व्यस्त तो रहता है।"
"गम्भीर बातों को सहजता से लेने की तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं।" सुधीर ने उसकी आँखों में झांकते हुये कहा।
कभी सुधीर भी ऐसा ही था। वह और सरोज दफ़्तर में हल्का-फुल्का माहौल बनाये रखते। चुटकले सुनाने में सुधीर का कोई मुक़ाबला नहीं था। मैनेजर होने के बावजूद भी उसका अपने सहयोगियों के प्रति रवैया मित्रतापूर्ण था। जबसे सरोज आई थी, वह और भी ख़ुश रहने लगा था। वह उम्र में सरोज से क़ाफी बड़ा था पर उन दोनों को इसका अहसास कभी नहीं होता था। सरोज घर की परेशानियों को दफ़्तर के माहौल में आकर भूल जाती थी। सुधीर उसके लिये किसी मसीहे से कम नहीं था। वह भी उसे ख़ुश करने की ख़ातिर कभी-कभी ‘मैडम जी’ कह कर बुलाता था। उसे ज़रा सा भी उदास देखता तो झट कोई हल्की बात करके उसे हंसा देता था। इस तरह वे दोनों एक-दूसरे के क़रीब आते जा रहे थे।
"आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया? आपकी रिटायरमेंट की ज़िन्दगी कैसी कट रही है?" सरोज ने कॉफ़ी की चुस्की लेते हुये पूछा।
"क्या बताऊँ, कुछ बताने लायक है ही नहीं। दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है। दोनों क़रीब-क़रीब ही रहते हैं, मगर जुदा-जुदा मकानों में। उर्मिला को गुज़रे दो साल हो चुके हैं।"
"ओह... आई एम सॉरी... आप फिर कहाँ रहते हैं?"
"कभी एक बेटे के घर तो कभी दूसरे बेटे के घर आता-जाता रहता हूँ। दो पोते और एक पोती है, बस उन्हीं को संभालता रहता हूँ। जिस बेटे को ज़रूरत होती है फोन कर देता है, मैं उसके घर पहुँच जाता हूँ।" सुधीर ने ज़रा गम्भीरता से कहा।
"मगर... क्या आप ख़ुश हैं इस तरह की ज़िन्दगी से?"
’मुझे नहीं पता..." सुधीर की आवाज़ में दर्द उभरा, "दुख को सहते-सहते हम उसके इतने आदी हो जाते हैं कि एक सीमा के बाद, दुख दुख नहीं सुख मालूम होने लगता है।"
"आप ठीक कहते हैं, अशोक को सही रास्ते पर लाने का मैंने भरसक प्रयास किया परन्तु वह अन्त तक नहीं सुधरा। मैं हार गई और तब मैंने उसे ही छोड़ देने का हौसला किया और बच्चे लेकर अलग हो गई। आज जब बच्चों को नई ज़िन्दगी मिल गई है तो इससे ख़ुशी महसूस होती है।" सरोज ने अपनी बात बताई।
"ख़ुश होना और ख़ुशी महसूस करना दो अलग-अलग पहलू होते हैं सरोज..."
"हाँ... आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। इस तरह की ख़ुशी के साथ-साथ एक ख़ालीपन भी खटकता है जिसकी तह से दर्द की एक टीस बराबर उठती रहती है। आपको शायद याद हो मैंने तो अशोक को कभी का छोड़ दिया होता अगर आपने मुझे न रोका होता।"
कॉफ़ी का मग खाली हो चुका था। बातों-बातों में कॉफ़ी कब समाप्त हुई पता नहीं चला।
"क्या ख़्याल है, एक-एक कप और हो जाये।" सुधीर ने सरोज से पूछा।
सरोज ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो वह फिर कॉफ़ी लेने चला गया।
सरोज सही कह रही थी। सुधीर बेशक सरोज को मन-ही-मन चाहता था परन्तु वह अपना और उसका घर बरबाद नहीं करना चाहता था। उसने हज़ारों दफ़े रुपये-पैसे से सरोज की मदद की होगी, सरोज को अनगिनत उपहार दिये होंगे मगर बदले में उसने कभी उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाने की कभी कोशिश नहीं की।
लेकिन, इतने पर भी उनका साथ ज़्यादा नहीं चल सका था। क्योंकि आहिस्ता-आहिस्ता दफ़्तर में सुधीर और सरोज को लेकर बातें होने लगीं। कोई उनके परिवार वालों से हमदर्दी जताता कोई उनकी उम्र के उलाहने देता। सुधीर के व्यवहार के कारण कोई खुल के कुछ नहीं कहता था, लेकिन बात का सफ़र दूर तक का होता है। चलते-चलते बात अशोक तक पहुँच गई जिसने घर में कोहराम मचा दिया। सरोज तो पहले ही अशोक के व्यवहार से बहुत दुखी थी, तंग आकर अशोक का घर छोड़ कर वह सुधीर के पास आ गई मगर सुधीर ने उसे समझा-बुझा कर वापस अशोक के पास भेज दिया था। सुधीर अगर चाहता तो ज़रा सा सहारा देकर सरोज को उसके पति से तोड़ सकता था, मगर उसने ऐसा नहीं किया।
"क़ॉफ़ी नम्बर दो हाज़िर है, मैडम जी..." सुधीर ने क़ॉफ़ी मेज़ पर रखते हुये कहा।
"आप अपने लिये फिर लार्ज कॉफ़ी ले आये, कुछ अपनी सेहत का भी ख़्याल है आपको कि नहीं?"
सुधीर के चेहरे पर दर्द झलका, शायद किसी ने बहुत दिन बाद उसकी सेहत की चिन्ता व्यक्त की हो।
"आपने बताया नहीं कि आप कौन सी दवायें लेने फ़ार्मेसी में गये थे..." सरोज ने कॉफ़ी का घूँट भरा और पूछा।
"मैडम जी... ये जो अपना दिल है न... यह कुछ अधिक ही धड़कने लग गया था। इधर-उधर ताका-झांकी बहुत करने लग गया था। जब बहुत उछलने लगा तो डाक्टरों ने इसे बड़ी मेहनत से क़ाबू किया और दवाओं की बंदिशों में जकड़ दिया।" सुधीर ने शायराना लेहज़े में कहा।
"आप सही तरीके से नहीं बता सकते क्या...?" सरोज तुनक उठी।
"ज़रूर ज़रूर... एक बार बाई-पास सर्जरी हो चुकी है, घुटने का ऑप्रेशन भी हो चुका है। नज़र कमज़ोर हो चुकी है, रक्तचाप भी रहने लगा है, कहने का मतलब है कि जिस बिमारी का नाम लो मौजूद मिलेगी।" सुधीर ने उदास होते हुये कहा, "इसलिये हर माह फ़ार्मेसी के दरवाज़े पर मत्था टेकने जाना पड़ता है।"
वह ग़लत नहीं था। आयु तो थी ही, परन्तु पत्नि के आकस्मिक से और बच्चों के अपनी ज़िन्दगी में ब्यस्त हो जाने के कारण वह बहुत अकेला पड़ गया था। हमारे बहुत से शारीरिक रोगों की जड़ें हमारे अपने खाने-पीने के ढंग और मानसिक संतुलन में छुपी होती हैं।
"एक और बात बताईये," सरोज ने बात बदली, "आपके पास शहर के बीचो-बीच एक भब्य फ़्लैट था उसका क्या हुआ?"
"बेटों ने अपनी-अपनी शादी के बाद दो अलग-अलग मकान लेने की सोची, तो उस वक्त उनकी पेशगी रक़म देने के लिये बाप की वही जायदाद काम आई।" सुधीर ने गम्भीर स्वर में कहा।
सरोज भी चुपचाप बैठी थी।
"वैसे एक बात कहूँ सरोज..." सुधीर कॉफ़ी समाप्त करते हुये फिर गम्भीरता से कहा।
"हाँ हाँ... कहिये न..."
"मैंने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं परन्तु जो दस वर्ष मैंने तुम्हारे साथ काम करते हुये गुज़ारे हैं वो मेरी ज़िन्दगी के बेहतरीन दिनों में से हैं। आज भी जब उनको याद करता हूँ तो रोमांचित हो उठता हूँ।
कॉफ़ी का मग रख कर सुधीर उठ खड़ा हुआ और सरोज से बोला।
"अच्छा मैडम जी, चलता हूँ, हाँ... अगर ईश्वर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे।"
इतना कह कर सुधीर मुड गया। सरोज को लगा कि वह सुधीर को रोक ले। एक बार वह सुधीर को छोड़ चुकी है, अब दोबारा यह ख़तरा मोल न ले। आजकल सुधीर बहुत अकेला रह गया है। उसका शरीर भी साथ नहीं दे पा रहा है। आज उसे एक साथी की आवश्यकता है जो उसका ध्यान रख सके। दूसरी तरफ़ वह स्वयं भी अकेली है और सुधीर को पसन्द भी करती है। जहाँ मन मिलें हों वहाँ दूसरी बातों की कोई अहमियत नहीं रह जाती है। वैसे भी, सुधीर के लाखों अहसान हैं उस पर, आज शायद वक्त आ गया है उन अहसानों का कुछ तो क़र्ज़ चुकाया जा सके। रही उम्र की बात तो अरमानों की नगरी में आयु का लेखा-जोखा नहीं होता, हर उम्र के अपने अरमान और ज़रूरत होती है जिनकी उचित पूर्ति कोई गुनाह नहीं है। अपने अरमान पूरा करने का आज उसे दोबारा अवसर मिला है तो वह इसे क्यों छोड़े। फिर उसे ख़्याल आया कि लोग क्या कहेंगे। सुधीर और उसकी आयु को उछाला जा सकता है। तभी उसके दिल से आवाज़ आई कि ऐसे लोग तो कभी किसी के सगे नहीं होते। कुछ ही क्षणों में सरोज कितनी ही बातें सोच गई। फिर वह तत्काल उठी और जाते हुये सुधीर के कंधे पर हाथ रख कर बोली,
"सुधीर बाबू...ईश्वर तो यही चाहता है कि अब हम कभी न बिछड़ें......

Friday, March 13, 2009

शोर न मचाओ

आने वाला है मेरा महबूब, शोर न मचाओ
राज़ की एक बात है बताई, शोर न मचाओ

आवाज़ों का हुजूम देख कहीं भड़क न जाये
ख़ुद को रखो ज़रा संभाल, शोर न मचाओ

मालूम नहीं किस राह से है वो आने वाला
चुपचाप बस देखते जाओ, शोर न मचाओ

फिर से न कहीं तड़प उट्ठे मेरा दर्दे दिल
अभी-अभी आँख है लगी, शोर न मचाओ

तन्हाई और ख़ामोशी का बेहद शौकीन है वो
तन्हा सी मह्फ़िल सजाओ, शोर न मचाओ

शोरोग़ुल कभी मुफ़ीद नहीं सेहत के लिये
सेहत को न दाँव पे लगाओ, शोर न मचाओ

ख़ामोश रहे तो दस्तक उसकी सुन ही लोगे
आयेगा वो मौसम ज़रूर, शोर न मचाओ

शोर जो मचाया तो ख़ुद का होगा इख़्तमाम
तमहीद का दामन न छोड़ो, शोर न मचाओ

वक्त के माथे पे होगा, नाम तुम्हारा इक दिन
क्यों देते हो वक्त की दुहाई, शोर न मचाओ

तमन्नाओं का मचलना, ख़्वाहिशों का उबलना
इन्हें ख़ामोशी की ज़द में लाओ, शोर न मचाओ

न रखो तुम फ़िरदौस की आरज़ू किसी दम
जिस्म को जन्नत बनाओ, शोर न मचाओ

ज़रा-ज़रा सी मुश्किल पे यूं तड़पा न करो
दर्द को गले लगाओ निर्मल, शोर न मचाओ

Tuesday, March 10, 2009

दिल अपना दीवाना है

दिल अपना दीवाना है
इसने तुझको पाना है

सोच रहा है कबसे ये
इक हमराज़ बनाना है

बहकी-बहकी बातें हैं
बहका हर अफ़साना है

तोड़ सितारा आस्मां का
धरती पर ले आना है

सपने सारे पूरे होंगे
पास तुझे जब लाना है

मिल जायें सितारे अपने जो
तेरा साथ निभाना है

आना-जाना सुख-दुख का
क़िस्मत का नज़राना है

दरिया सोच के बहते हैं
सपना सच हो जाना है

झांको तुम मत इधर-उधर
संग तेरे पैमाना है

मानो निर्मल की वर्ना
उसने चलते जाना है

Monday, March 9, 2009

एक

जबकि
सब-कुछ एक था,
एक सूरज, एक चाँद
एक ही आस्मां था,
जाने क्या हुआ
वो एक टूटता गया,
धीरे-धीरे अनेकता में
फूटता गया,
फिर
भिन्नता में वो
विभाजित हुआ
अहम से लेकिन
पराजित हुआ,
जंगल बने, पर्वत बने
सितारे बने, झरने बने,
नदियाँ बनीं, शाखायें बनीं
राहें बनीं, मंज़िलें बनीं,
लालसाओं का घेरा
बढ़ता गया
तमन्नाओं का शिकंजा
कसता गया,
परत पर परत
चढ़ती गई
वास्तविकता
दबती गई,
दब गया या दबाया गया
भेद न इसका पाया गया,
ओस की बूँद मैली हुई
नूर की जोत धुँधली हुई,
पूछने वाले पूछ्ते हैं कि
अंदर है तो कहाँ है
बाहर है तो कहाँ है?
कोई तो बताये
वो एक
अब मिलता कहाँ है?
कहने वाले फिर भी
कहते हैं कि
पक्षियों के चहचहाने में
बच्चों के मुस्कुराने में,
फूलों के खिलने में
दिलों के मिलने में,
माँ के प्यार में
कुदरत के विस्तार में,
एकम का ही
बिम्ब है
उसी का प्रतिबिम्ब है,
उसका ही प्रसार है
उसी का चमत्कार है,
चाहिये तो बस
सबर चाहिये
देखने वाली इक
नज़र चाहिये...

Sunday, March 8, 2009

अस्थि कलश (भाग १)

टोरंटो एअरपोर्ट से अंतराष्ट्रीय उड़ानों का सिलसिला जारी था। दोपहर के क़रीब दो बज रहे थे। दुनिया के कोने-कोने में जाने वाले यात्रियों से हवाई अड्डे का चेक-इन एरिया खचाखच भरा हुआ था। रह-रह कर अनांऊसिंग भी चल रही थी, जिसमें यात्रियों को जाने वाली उड़ानों के बारे में बताया जा रहा था और साथ ही उन्हे सफ़र के दौरान ले जाने वाली वस्तुओं के बारे में भी समझाया जा रहा था। सितम्बर ११ के बाद से दुनिया के प्रमुख हवाई अड्डों के सुरक्षा प्रबन्धों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है। यात्रियों को अपनी फ़्लाईट से क़रीब चार घंटे पहले हवाई अड्डे पँहुचना पड़ता है और उनके बड़े साजो-सामान से लेकर छोटी से छोटी चीज़ की भी बड़ी बारीकी से जाँच होती है। किसी भी टूथ पेस्ट, क्रीम या कोई सा भी तरल पदार्थ १०० मि. ली. से ज़्यादा नही ले जाया जा सकता है। इस तरह की बहुत सी अड़चनें खड़ी हो चुकी हैं। इन सारी बातों को हवाई अड्डे पर अनाऊंसिंग के जरिये यात्रियों को पहले ही सूचित किया जाता है ताकि वो इस क़िस्म का अनावश्यक सामान बाहर ही छोड़ दें या उसे अपने चेक बैग में डाल दें, फिर भी कितने ही यात्री ऐसा सामान लेकर अंदर पहुँच जाते हैं जिससे सुरक्षा कर्मचारियों को यह सामान निकालने को बाध्य होना पड़ता है।
यात्रियों की लम्बी लाईनें हर एअर लाईन के काऊन्टर पर लगी हुई थी। जिन यात्रियों के पास अभी वक्त था या जिनकी फ़्लाईट अभी देर से जानी थी, वो सारे कुर्सियों पर पीठ टिकाये बातों में मशरूफ़ थे। बच्चों ने अलग अपना शोर मचा रखा था, कोई किसी के पीछे दौड़ रहा था तो कोई सामान वाली गाड़ी वापस मशीन में डाल कर पच्चीस सेन्ट वापस लेकर ख़ुश हो रहा था। किसी की आँखों में विदाई के आँसू थे तो किसी की आँखों में छुट्टियों पर जाने की चमक थी। फ़ूड-कोर्ट में अपनी धूम मची हुई थी। कोई कुछ खा रहा था, तो कोई कॉफ़ी या बियर की चुस्कियां ले रहा था। हवाई अड्डे के कर्मचारी भी अपनी रंग-बिरंगी पोशाकों में इधर से उधर जाते हुये देखे जा सकते थे। इसी तरह की चहल-पहल और गहमा-गहमी के बीच बलदेव धीरे-धीरे अपना बैग उठाये हवाई अड्डे में दाख़िल हुआ था।
बलदेव सिंह क़रीब पचास-पचपन साल का एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति था। आम सिक्खों की तरह उसके कपड़े भी साधारण ही थे। उसने हल्के नीले रंग की कमीज़ और काले रंग की ढीली-ढाली पैन्ट पहनी हुई थी। उसकी पगड़ी का रंग भी आस्मानी था। इस बीच उसकी सफ़ेद दाढ़ी खुली हुई थी जो अच्छी लग रही थी परन्तु उसकी आँखों से झांकती उदासी को छुपाने में असमर्थ थी। धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ वह के. एल. एम. के काऊन्टर के सम्मुख लगी कुर्सियों के क़रीब आया और एक ख़ाली कुर्सी देख कर उस पर बैठ गया। अपना बैग उसने अपनी गोद में रखकर अपने हाथ उस पर यूं रख लिये मानों उसमें कोई कीमती सामान हो। उसने सरसरी नज़र से हवाई अड्डे का जायज़ा लिया और अपनी पुश्त कुर्सी से टिकाते हुये आँखें बन्द कर ली। उसकी फ़्लाईट में अभी क़ाफ़ी देर थी। हवाई अड्डे के शोर-शराबे के बीच बलदेव अपनी बन्द आँखों के अन्दर ही अन्दर अतीत की दुनिया में डूबता चला गया।
जालन्धर से पठानकोट जाने वाली मुख्य सड़क पर इसापुर नाम का एक गांव है जहाँ बलदेव अपने पुरखों से मिले मकान में रहता था। थोड़ी-बहुत ज़मीन भी उसके पास थी जो उसने ठेके पर दे रखी थी। बलदेव के पिता ने भले उसके लिये बहुत सारी ज़मीन-जायदाद न छोड़ी हो परन्तु उसने बलदेव को गांव के स्कूल से मैट्रिक पास करवा कर, फिर जालन्धर आई. टी. आई से तीन साल का लाईनमैन वाला कोर्स करवाके बिजली बोर्ड में भर्ती करवा दिया था जिसकी वजह से बलदेव को जायदाद की कमी कभी महसूस नही हुई और उसकी ज़िन्दगी सुगमता से कटती चली गई। उसकी शादी भी सही समय पर राजवीर उर्फ़ रज्जी के साथ हो गई जिससे उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम विक्रमजीत था जिसे सब विक्की कह कर बुलाते थे।
बलदेव के पिता अनपढ़ होने के बावजूद एक ज़हीन किस्म के इन्सान थे। उनकी बातें बहुत गूढ़ अर्थ रखती थीं। बलदेव को समझाते हुये वे अक्सर कहा करते थे,
"बलदेव पुत्तर, जायदाद तो अस्थाई होती है, ज्ञान सारी उम्र का साथी होता है। शरीर में जितना लहू ज़रूरी होता है उतनी ही जीवन में विद्या ज़रूरी होती है।"
बहुत सही कहा करते थे पिताजी, वह कई बार सोचता।
"एक बात और याद रखना पुत्तर" वो आगे कहते, "सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नही जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं। जीवन केवल एक गुण वाला दीपक नही बल्कि कई गुणों से चमकने वाला सूर्य होता है जो स्वयं तो चमकता ही है दूसरों को भी रोशन करता है।"
इस तरह की सैंकड़ों बातें थीं जो बलदेव के जीवन में ढल गई थीं। उसने अपने पुत्र विक्रमजीत यानि विक्की को भी इसी अंदाज़ में पालने की कोशिश की थी। विक्की बी. ए. फ़ाईनल की तैयारी में ही था जब उसके ज़ेहन में विदेश जाने का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। एक दिन घर में बातों-बातों में वह बलदेव से बोला,
"पिताजी, मैं अपने पेपरों के बाद कनेडा जाना चाहता हूँ।"
"क्यों?" बलदेव ने पूछा, " आख़िर हमें यहाँ किस चीज़ की कमी है जो तुम बाहर हमसे दूर जाना चाहते हो।"
"क्योंकि मुझे यहाँ भारत में कोई ख़ास तरक्क़ी के रास्ते नज़र नही आते हैं।" विक्की ने जवाब दिया, " भविष्य नाम की कोई चीज़ यहाँ दिखाई ही नही देती है। यहाँ जीवन गुज़ारना दिनों दिन टेढ़ी खीर होता जा रहा है।"
"क्यों, क्या हम लोगों ने अपना जीवन यहाँ नही गुज़ारा?" बलदेव अपने इकलौते पुत्र को स्वयं से दूर करने के पक्ष में नहीं था, इसलिये बोला "मैं मानता हूँ बहुत सारे लोग विदेशों में जाकर बस गये हैं और उन लोगों ने तरक्क़ी की बेमिसाल मंज़िलें भी तय की हैं, मगर इसका ये मतलब नही कि जो भी मुँह उठाये विदेश चला जाये।"
"क्या बात करते हैं पिताजी," विक्की बोला, " भला उन मुल्कों से हमारा क्या मुक़ाबला है? जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा हो वहाँ क्यों न जाया जाये?।"
"परन्तु विक्की पुत्तर, विदेश में भी अब पहले जैसे हालात नही रह गये हैं। पहले तो अनपढ़ व्यक्ति भी वहाँ जाकर सैट हो जाते थे परन्तु अब पढ़े-लिखे लोगों को भी अनेक मुश्किलें आती हैं। अपने तरीके का काम न मिलना, रोज़गार का मंदा होना, आबादी का बढ़ता प्रभाव आदि सब वहाँ भी देखा जा सकता है। ऐसे में तो मैं सोचता हूँ कि अपना ही देश बेहतर है।"
बलदेव ने अपना पक्ष रखते हुये कहा, "हो सकता है आप सही कह रहे हों, पिताजी" विक्की फिर बोला, "पर मैं इससे सहमत नही, जहाँ तक मैं समझता हूँ उन देशों में अभी भी बहुत स्कोप है। तकनीकी विद्या में तो वो हमसे इतना आगे जा चुके हैं कि हमें वहाँ पहुँचने में अभी सदियां लगेंगी।"
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, आजकल हमारे यहाँ भी तरक्क़ी की अच्छी-ख़ासी रफ़्तार है।" बलदेव ने कहा, "मगर उनका सामाजिक और सरकारी ढाँचा हमसे कहीं बेहतर है। जहाँ हम चींटी की रफ़्तार से चल रहे हैं वहाँ वो जेट रफ़्तार से आगे जा रहे हैं। यहाँ भारत में तो हमसे पूरी ज़मीन पर खेती तक नही हो पाती और वो दूसरे ग्रहों पर दुनिया बसा रहे हैं।" विक्की पीछे नहीं हटना चाहता था।
"वो लाख चले जायें दूसरे ग्रहों पर, लेकिन इस मशीनी युग में सब-के-सब मशीन बन के रह गये हैं। ऐशपरस्त तो हैं ही मतलबपरस्त भी कम नही। ख़ुश्क लोग, ख़ुश्क उनका देश। अपना मतलब है तो बात करते हैं नही तो किसी की परवाह नही करते।" बलदेव भी पीछे नहीं हट रहा था।
"यह उनका अपना जीने का ढंग है, इससे हमें क्या लेना-देना है?।" विक्की ने बहस जारी रखी।
"और भी सुनो पुत्तर, उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नही, किसी के लिये कोई आदर मान नही, कोई सत्कार नही है। ऐसे देश में रहा तो जा सकता है परन्तु अलग-थलग सा होकर। अपनी पहचान बनाते एक उम्र निकल जाती है। सांस लेने की भी फ़ुरसत नही, बस दौड़ते रहो, दौड़ते रहो..." बलदेव विचलित हो उठा था।
"अब आप भावुक हो रहे हैं, पिताजी" विक्की ने फिर कहा, "यह तो आपको मानना ही चाहिये कि भावुकता से ज़िन्दगी नही चलती है। हवा में ख़्याली घोड़े दौड़ाने से बेहतर है कि हम ठोस धरातल पर पाँव टिका कर आस्मान पर नज़र रखें। व्यर्थ की भावुकता में बह कर जीवन को व्यर्थ नही गंवाना चाहिये।"
"अपनी सभ्यता और संस्कृति बहुत अमीर है, पुत्तर" बलदेव विक्की को समझाते हुये कहने लगा, "अगर मानव सभ्यता के इतिहास को देखो तो जानोगे कि सबसे ज़्यादा योगदान हमने डाला है। यह ठीक है कि समय के साथ-साथ इस बड़े दरख़्त के आस-पास कुछ कंटीली झाड़ियां ज़रूर उग आई हैं परन्तु उससे दरख़्त की शान में कोई कमी नही आई है।"
"अगर ये सच होता तो बाहर के लोग यहाँ काम करने आते" विक्की न समझने वाले अंदाज़ में बोला, "मगर ऐसा नही है। आजकल, शायद ही ऐसा कोई भारतीय नौजवान होगा जो विदेश न जाना चाहता हो। अपने ही गाँव में देख लीजिये, जिनको धेले की भी अक़्ल नही थी वो भी कनेडा जैसे मुल्कों में जाकर लाखों में खेल रहे हैं। उन लोगों ने गांव में कितनी बड़ी-बड़ी शानदार कोठियां बनवा रखी हैं वो तो आपने भी देखी हैं...."
"और उन कोठियों में रहता कौन है... बताओ...? कोई नही न..." बलदेव बोला, "ऐसी कोठी बनाने का क्या लाभ जिसमें रहने वाला कोई न हो... विक्की पुत्तर, संयुक्त परिवार के महत्व को समझो, जिसमे सुरक्षा, उन्नति और संतुष्टि संभव होती है। तुम हमारे एकलौते पुत्र हो, मैं तुमसे फिर पूछता हूँ कि हमें यहाँ किस बात की कमी है जो तुम हमसे इतनी दूर जाना चाहते हो।"
लेकिन विक्की अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। विदेश जाने की धुन उस पर इस क़दर हावी थी कि बलदेव और रज्जी का समझाना किसी काम न आया। पेपर समाप्त होते ही विक्की जाने की तैयारी में व्यस्त हो गया। उसने पहले ही पासपोर्ट बनवाकर कनेडियन इंबेसी में इमीग्रेशन के लिये अप्लाई किया हुआ था। विक्की के सितारे बुलन्दियों पर थे तभी तो समयानुसार सारे काम होते चले गये। उसका रिजल्ट क्या निकला कि कुछ दिन बाद ही उसका वीज़ा भी आ गया। जिस दिन उसका वीज़ा आया उसके तो पैर ही ज़मीन पर नही पड़ रहे थे।
"मम्मी.... मम्मी... माता... ओ माता... कहाँ हो" वह चिल्लाते हुये घर में घुसा। वह जब बहुत ख़ुश होता था तो अपनी मां को माता कह कर बुलाता था।
"क्या है... क्या बात है... क्यों आस्मान सर पर उठा रखा है... हे वाहेगुरू, इस लड़के को अब तू ही कुछ सिखा, मेरे तो ये बस का नही है" रज्जी कमरे से बाहर आते हुये बोली, "हाँ... अब बता क्या बात है?"
"ये देख क्या है...?" विक्की ने उसके चेहरे पर वीज़े के पेपर लहराते हुये कहा।
"क्या है...?" रज्जी ने पूछा अरे.. ये हैं मेरे कनेडा जाने के काग़ज़ात और अब बहुत शीघ्र ही तेरा सपूत कनेडा की धरती पर पांव रखने वाला है... जट्ट चल्लेया कनेडा नूं... हुण जट्ट चल्लेया कनेडा नूं..." वह गाते हुये बोला। सुनते ही रज्जी गम्भीर हो गई। मां भी ईश्वर की अद्भुत देन है। अपनी औलाद के लिये हर ख़ुशी चाहने वाली मां उसके दूर जाने के विचार से ही व्यथित हो उठती है। फिर भी स्वयं को संभालते हुये रज्जी बोली।
"चलो... अच्छा हुआ... तू कबसे इन कागज़ों की राह देख रहा था, पर बेटा, तुझे इतनी दूर भेजने को मेरा मन नही मान रहा है। कहीं वहाँ जाकर तू हमें भूल तो नही जायेगा?"
"अरे... क्या बात करती हो माता," विक्की अभी भी चहक रहा था, "तुम मुझे जाने तो दो, बस साल भर में ही तुझको और पापा को वहीं बुला लेना है फिर हम वहाँ सारा परिवार मज़े से रहेंगे।"
"अब हम वहाँ जाकर क्या करेंगे पुत्तर," बलदेव घर के अंदर आते हुये बोला। उसने अंदर आते हुये मां-बेटे के वार्तालाप के आख़िरी हिस्से को सुन लिया था। वह सारी बात समझ चुका था।
"अपनी तो सारी उम्र इसी जालंधर से इसापुर के बीच ही कटी है। अब और कहीं जाने को मन नही करता है। ख़ैर, तेरा वीज़ा आ गया है, यह अच्छी ख़बर है। तू तैयारी कर और जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो वह ले ले, किसी भी बात की चिन्ता मत करना, मैं हूँ न..." बलदेव भावुक हो उठा था।
"और हाँ बेटा," रज्जी बोली, "वहाँ जाकर अपने देश, अपने गाँव, गाँव की मिट्टी को भूल न जाना। ये सब तुझमे समाये हैं, बेटा। जब जी चाहे चले आना, हम सब हमेशा तेरी राह देखेंगे......।" कहते हुये रज्जी की आँखो से आँसू बह चले।
"और इन रिश्तों को समय की दीमक भी कभी खोखला नही कर पायेगी।" बलदेव ने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुये कहा, "और हाँ...एक बात है कि हम तेरा कनेडा देखने तो एक बार ज़रूर आयेंगे। वो क्या कहते हैं उसे...हाँ... नियाग्रा फ़ॉल और सीन टॉवर..."
"सीन टॉवर नही पापा, सी. एन. टॉवर"
" हाँ... हाँ... वही... वही..." बलदेव ने अपने आँसू छुपाते हुये बात समाप्त की।
इस तरह विक्की टोरंटो पहुँच गया। नई जगह थी, नये लोग थे। यूं तो टोरंटो निवासी क़ाफी मिलनसार थे, मगर मशीनी युग ने उन्हे भी मशीन बना दिया था। तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी ने सबको दौड़ते रहना सिखा दिया था। विक्की अपने दोस्त लवली के घर पर ठहरा था जिसके पास कई ट्रक थे जो कनेडा से अमेरिका के बीच सामान ले जाने और ले आने पर लगे हुये थे। लवली ने अपनी ख़ुद की ट्रांसपोर्ट कंपनी ”लवली ट्रांसपोर्ट" भी चलाई हुई थी जिसमे दर्जनों और लोगों के ट्रक भी चलते थे।
लवली और विक्की स्कूल के साथी थे। दसवीं पास करते ही लवली अपने मां-बाप और छोटी बहन शालू के साथ कनेडा आ गया था। उसकी बड़ी बहन अमन की शादी कनेडा में हुई थी सो उसी की स्पॉन्सरशिप पर लवली समेत परिवार कनेडा आ गया था। शालू अभी पढ़ रही थी और ज़ेब ख़र्च के लिये सप्ताहांत पर काम भी किया करती थी। शालू को विक्की भी अपनी बहन ही मानता था। विक्की के कनेडा आ जाने से शालू भी बहुत ख़ुश थी, उसे लगता था कि उसका एक और भाई यहाँ आ गया है। लवली के माता-पिता अब शालू की शादी शीघ्र ही कर देना चाहते थे ताकि अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकें। उसके लिये वो योग्य वर की तलाश में थे। लवली के सैंकड़ो जानकार थे जिसमे से ज़्यादातर ट्रक ड्राईवर, ट्रक ऑपरेटर, डिसपैचर्स और वर्कशॉप वाले थे। वह अपनी बहन के लिये किसी उच्च कोटि के रिश्ते की तलाश में था। उसकी अपनी शादी तो पंजाब में ही हुई थी। अब उसे एक बेटा भी था। लवली को देख कर विक्की उससे अपनी तुलना करने लगता। साथ-साथ पढ़ने वाले उन दोनों में अब कितना अंतर आ गया था। दोनों की क़िस्मत कितनी जुदा थी। इन पाँच-छह सालों मे लवली कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पंजाबियों की घनी आबादी वाले शहर ब्रैम्पटन में लवली के पास एक बहुत बड़ा मकान था।उसके पास तीन नई चमकीली गाड़ियां थीं और एक बडा़ सा फ़ोर-बाई-फ़ोर था जिसमें अपने दोस्तों को लेकर वह हर सप्ताहांत नियाग्रा चला जाता जहाँ सारी-सारी रात दारू पी जाती और कसीनो में पैसे उड़ाये जाते। यूं तो लवली के बहुत सारे दोस्त थे पर हैप्पी और बल्ली उसके बहुत गहरे मित्र थे जो उसके कारोबार के साथी होने के साथ-साथ सुख-दुख के साथी भी थे। रिंकू और बिट्टू भी उसके दोस्तों में से थे। अब तो विक्की भी उनके साथ जाता था और उनकी ऐय्याशी में गाहे-बगाहे शामिल होता था। लवली उससे बराबर कहता था,
"यार... विक्की... तू भी जल्दी से ट्रक का लाईसेंस ले ले और ट्रक चलाना शुरू कर दे। यह जो मेरी ऐशो-आराम की ज़िन्दगी तू देख रहा है, यह इन्ही ट्रकों की देन है। अपने लोग ज़्यादातर इसी धंधे में हैं। इसी में पैसा है, चाहे तो टैक्सी चला, चाहे तो ट्रक चला।"
"पर, लवली, मैं सोचता हूँ कि कोई ढंग का पेशा क्यों न अपनाऊं" विक्की बोलता, "मैं इस काम को बुरा नही समझता परन्तु इसमें आराम नाम की कोई चीज़ नही है। आदमी कोल्हू का बैल होकर रह जाता है। एक ही सीट पर घंटों बैठे रहने से हाज़मा ख़राब हो जाता है जिससे कई रोग लग जाते हैं। कभी मौसम आड़े आता है तो कभी सरकार। दिन और रात सब एक हो जाते हैं। नही... नही... यह काम मेरे लिये नही है। मैं तो कुछ और ही देखूंगा।"
लेकिन विक्की के लाख मना करने पर भी, लवली ने उसे ट्रक का लाईसेंस दिलवा दिया और अपना एक ट्रक उसे चलाने को भी दे दिया। विक्की उसके लिये काम करने लगा। अमेरिका के चक्कर लगने लगे। अब उसे भी मज़ा आने लग गया। चार पैसे उसकी ज़ेब में होने लगे। वह लवली से अलग होकर एक अपार्टमेंट में रहने लगा परन्तु वह जब भी टोरंटो में होता नियाग्रा में दारू और कसीनो का प्रोग्राम ज़रूर बनता था ( शेष अगले भाग में )