Sunday, March 8, 2009

अस्थि कलश (भाग १)

टोरंटो एअरपोर्ट से अंतराष्ट्रीय उड़ानों का सिलसिला जारी था। दोपहर के क़रीब दो बज रहे थे। दुनिया के कोने-कोने में जाने वाले यात्रियों से हवाई अड्डे का चेक-इन एरिया खचाखच भरा हुआ था। रह-रह कर अनांऊसिंग भी चल रही थी, जिसमें यात्रियों को जाने वाली उड़ानों के बारे में बताया जा रहा था और साथ ही उन्हे सफ़र के दौरान ले जाने वाली वस्तुओं के बारे में भी समझाया जा रहा था। सितम्बर ११ के बाद से दुनिया के प्रमुख हवाई अड्डों के सुरक्षा प्रबन्धों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है। यात्रियों को अपनी फ़्लाईट से क़रीब चार घंटे पहले हवाई अड्डे पँहुचना पड़ता है और उनके बड़े साजो-सामान से लेकर छोटी से छोटी चीज़ की भी बड़ी बारीकी से जाँच होती है। किसी भी टूथ पेस्ट, क्रीम या कोई सा भी तरल पदार्थ १०० मि. ली. से ज़्यादा नही ले जाया जा सकता है। इस तरह की बहुत सी अड़चनें खड़ी हो चुकी हैं। इन सारी बातों को हवाई अड्डे पर अनाऊंसिंग के जरिये यात्रियों को पहले ही सूचित किया जाता है ताकि वो इस क़िस्म का अनावश्यक सामान बाहर ही छोड़ दें या उसे अपने चेक बैग में डाल दें, फिर भी कितने ही यात्री ऐसा सामान लेकर अंदर पहुँच जाते हैं जिससे सुरक्षा कर्मचारियों को यह सामान निकालने को बाध्य होना पड़ता है।
यात्रियों की लम्बी लाईनें हर एअर लाईन के काऊन्टर पर लगी हुई थी। जिन यात्रियों के पास अभी वक्त था या जिनकी फ़्लाईट अभी देर से जानी थी, वो सारे कुर्सियों पर पीठ टिकाये बातों में मशरूफ़ थे। बच्चों ने अलग अपना शोर मचा रखा था, कोई किसी के पीछे दौड़ रहा था तो कोई सामान वाली गाड़ी वापस मशीन में डाल कर पच्चीस सेन्ट वापस लेकर ख़ुश हो रहा था। किसी की आँखों में विदाई के आँसू थे तो किसी की आँखों में छुट्टियों पर जाने की चमक थी। फ़ूड-कोर्ट में अपनी धूम मची हुई थी। कोई कुछ खा रहा था, तो कोई कॉफ़ी या बियर की चुस्कियां ले रहा था। हवाई अड्डे के कर्मचारी भी अपनी रंग-बिरंगी पोशाकों में इधर से उधर जाते हुये देखे जा सकते थे। इसी तरह की चहल-पहल और गहमा-गहमी के बीच बलदेव धीरे-धीरे अपना बैग उठाये हवाई अड्डे में दाख़िल हुआ था।
बलदेव सिंह क़रीब पचास-पचपन साल का एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति था। आम सिक्खों की तरह उसके कपड़े भी साधारण ही थे। उसने हल्के नीले रंग की कमीज़ और काले रंग की ढीली-ढाली पैन्ट पहनी हुई थी। उसकी पगड़ी का रंग भी आस्मानी था। इस बीच उसकी सफ़ेद दाढ़ी खुली हुई थी जो अच्छी लग रही थी परन्तु उसकी आँखों से झांकती उदासी को छुपाने में असमर्थ थी। धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ वह के. एल. एम. के काऊन्टर के सम्मुख लगी कुर्सियों के क़रीब आया और एक ख़ाली कुर्सी देख कर उस पर बैठ गया। अपना बैग उसने अपनी गोद में रखकर अपने हाथ उस पर यूं रख लिये मानों उसमें कोई कीमती सामान हो। उसने सरसरी नज़र से हवाई अड्डे का जायज़ा लिया और अपनी पुश्त कुर्सी से टिकाते हुये आँखें बन्द कर ली। उसकी फ़्लाईट में अभी क़ाफ़ी देर थी। हवाई अड्डे के शोर-शराबे के बीच बलदेव अपनी बन्द आँखों के अन्दर ही अन्दर अतीत की दुनिया में डूबता चला गया।
जालन्धर से पठानकोट जाने वाली मुख्य सड़क पर इसापुर नाम का एक गांव है जहाँ बलदेव अपने पुरखों से मिले मकान में रहता था। थोड़ी-बहुत ज़मीन भी उसके पास थी जो उसने ठेके पर दे रखी थी। बलदेव के पिता ने भले उसके लिये बहुत सारी ज़मीन-जायदाद न छोड़ी हो परन्तु उसने बलदेव को गांव के स्कूल से मैट्रिक पास करवा कर, फिर जालन्धर आई. टी. आई से तीन साल का लाईनमैन वाला कोर्स करवाके बिजली बोर्ड में भर्ती करवा दिया था जिसकी वजह से बलदेव को जायदाद की कमी कभी महसूस नही हुई और उसकी ज़िन्दगी सुगमता से कटती चली गई। उसकी शादी भी सही समय पर राजवीर उर्फ़ रज्जी के साथ हो गई जिससे उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम विक्रमजीत था जिसे सब विक्की कह कर बुलाते थे।
बलदेव के पिता अनपढ़ होने के बावजूद एक ज़हीन किस्म के इन्सान थे। उनकी बातें बहुत गूढ़ अर्थ रखती थीं। बलदेव को समझाते हुये वे अक्सर कहा करते थे,
"बलदेव पुत्तर, जायदाद तो अस्थाई होती है, ज्ञान सारी उम्र का साथी होता है। शरीर में जितना लहू ज़रूरी होता है उतनी ही जीवन में विद्या ज़रूरी होती है।"
बहुत सही कहा करते थे पिताजी, वह कई बार सोचता।
"एक बात और याद रखना पुत्तर" वो आगे कहते, "सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नही जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं। जीवन केवल एक गुण वाला दीपक नही बल्कि कई गुणों से चमकने वाला सूर्य होता है जो स्वयं तो चमकता ही है दूसरों को भी रोशन करता है।"
इस तरह की सैंकड़ों बातें थीं जो बलदेव के जीवन में ढल गई थीं। उसने अपने पुत्र विक्रमजीत यानि विक्की को भी इसी अंदाज़ में पालने की कोशिश की थी। विक्की बी. ए. फ़ाईनल की तैयारी में ही था जब उसके ज़ेहन में विदेश जाने का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। एक दिन घर में बातों-बातों में वह बलदेव से बोला,
"पिताजी, मैं अपने पेपरों के बाद कनेडा जाना चाहता हूँ।"
"क्यों?" बलदेव ने पूछा, " आख़िर हमें यहाँ किस चीज़ की कमी है जो तुम बाहर हमसे दूर जाना चाहते हो।"
"क्योंकि मुझे यहाँ भारत में कोई ख़ास तरक्क़ी के रास्ते नज़र नही आते हैं।" विक्की ने जवाब दिया, " भविष्य नाम की कोई चीज़ यहाँ दिखाई ही नही देती है। यहाँ जीवन गुज़ारना दिनों दिन टेढ़ी खीर होता जा रहा है।"
"क्यों, क्या हम लोगों ने अपना जीवन यहाँ नही गुज़ारा?" बलदेव अपने इकलौते पुत्र को स्वयं से दूर करने के पक्ष में नहीं था, इसलिये बोला "मैं मानता हूँ बहुत सारे लोग विदेशों में जाकर बस गये हैं और उन लोगों ने तरक्क़ी की बेमिसाल मंज़िलें भी तय की हैं, मगर इसका ये मतलब नही कि जो भी मुँह उठाये विदेश चला जाये।"
"क्या बात करते हैं पिताजी," विक्की बोला, " भला उन मुल्कों से हमारा क्या मुक़ाबला है? जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा हो वहाँ क्यों न जाया जाये?।"
"परन्तु विक्की पुत्तर, विदेश में भी अब पहले जैसे हालात नही रह गये हैं। पहले तो अनपढ़ व्यक्ति भी वहाँ जाकर सैट हो जाते थे परन्तु अब पढ़े-लिखे लोगों को भी अनेक मुश्किलें आती हैं। अपने तरीके का काम न मिलना, रोज़गार का मंदा होना, आबादी का बढ़ता प्रभाव आदि सब वहाँ भी देखा जा सकता है। ऐसे में तो मैं सोचता हूँ कि अपना ही देश बेहतर है।"
बलदेव ने अपना पक्ष रखते हुये कहा, "हो सकता है आप सही कह रहे हों, पिताजी" विक्की फिर बोला, "पर मैं इससे सहमत नही, जहाँ तक मैं समझता हूँ उन देशों में अभी भी बहुत स्कोप है। तकनीकी विद्या में तो वो हमसे इतना आगे जा चुके हैं कि हमें वहाँ पहुँचने में अभी सदियां लगेंगी।"
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, आजकल हमारे यहाँ भी तरक्क़ी की अच्छी-ख़ासी रफ़्तार है।" बलदेव ने कहा, "मगर उनका सामाजिक और सरकारी ढाँचा हमसे कहीं बेहतर है। जहाँ हम चींटी की रफ़्तार से चल रहे हैं वहाँ वो जेट रफ़्तार से आगे जा रहे हैं। यहाँ भारत में तो हमसे पूरी ज़मीन पर खेती तक नही हो पाती और वो दूसरे ग्रहों पर दुनिया बसा रहे हैं।" विक्की पीछे नहीं हटना चाहता था।
"वो लाख चले जायें दूसरे ग्रहों पर, लेकिन इस मशीनी युग में सब-के-सब मशीन बन के रह गये हैं। ऐशपरस्त तो हैं ही मतलबपरस्त भी कम नही। ख़ुश्क लोग, ख़ुश्क उनका देश। अपना मतलब है तो बात करते हैं नही तो किसी की परवाह नही करते।" बलदेव भी पीछे नहीं हट रहा था।
"यह उनका अपना जीने का ढंग है, इससे हमें क्या लेना-देना है?।" विक्की ने बहस जारी रखी।
"और भी सुनो पुत्तर, उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नही, किसी के लिये कोई आदर मान नही, कोई सत्कार नही है। ऐसे देश में रहा तो जा सकता है परन्तु अलग-थलग सा होकर। अपनी पहचान बनाते एक उम्र निकल जाती है। सांस लेने की भी फ़ुरसत नही, बस दौड़ते रहो, दौड़ते रहो..." बलदेव विचलित हो उठा था।
"अब आप भावुक हो रहे हैं, पिताजी" विक्की ने फिर कहा, "यह तो आपको मानना ही चाहिये कि भावुकता से ज़िन्दगी नही चलती है। हवा में ख़्याली घोड़े दौड़ाने से बेहतर है कि हम ठोस धरातल पर पाँव टिका कर आस्मान पर नज़र रखें। व्यर्थ की भावुकता में बह कर जीवन को व्यर्थ नही गंवाना चाहिये।"
"अपनी सभ्यता और संस्कृति बहुत अमीर है, पुत्तर" बलदेव विक्की को समझाते हुये कहने लगा, "अगर मानव सभ्यता के इतिहास को देखो तो जानोगे कि सबसे ज़्यादा योगदान हमने डाला है। यह ठीक है कि समय के साथ-साथ इस बड़े दरख़्त के आस-पास कुछ कंटीली झाड़ियां ज़रूर उग आई हैं परन्तु उससे दरख़्त की शान में कोई कमी नही आई है।"
"अगर ये सच होता तो बाहर के लोग यहाँ काम करने आते" विक्की न समझने वाले अंदाज़ में बोला, "मगर ऐसा नही है। आजकल, शायद ही ऐसा कोई भारतीय नौजवान होगा जो विदेश न जाना चाहता हो। अपने ही गाँव में देख लीजिये, जिनको धेले की भी अक़्ल नही थी वो भी कनेडा जैसे मुल्कों में जाकर लाखों में खेल रहे हैं। उन लोगों ने गांव में कितनी बड़ी-बड़ी शानदार कोठियां बनवा रखी हैं वो तो आपने भी देखी हैं...."
"और उन कोठियों में रहता कौन है... बताओ...? कोई नही न..." बलदेव बोला, "ऐसी कोठी बनाने का क्या लाभ जिसमें रहने वाला कोई न हो... विक्की पुत्तर, संयुक्त परिवार के महत्व को समझो, जिसमे सुरक्षा, उन्नति और संतुष्टि संभव होती है। तुम हमारे एकलौते पुत्र हो, मैं तुमसे फिर पूछता हूँ कि हमें यहाँ किस बात की कमी है जो तुम हमसे इतनी दूर जाना चाहते हो।"
लेकिन विक्की अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। विदेश जाने की धुन उस पर इस क़दर हावी थी कि बलदेव और रज्जी का समझाना किसी काम न आया। पेपर समाप्त होते ही विक्की जाने की तैयारी में व्यस्त हो गया। उसने पहले ही पासपोर्ट बनवाकर कनेडियन इंबेसी में इमीग्रेशन के लिये अप्लाई किया हुआ था। विक्की के सितारे बुलन्दियों पर थे तभी तो समयानुसार सारे काम होते चले गये। उसका रिजल्ट क्या निकला कि कुछ दिन बाद ही उसका वीज़ा भी आ गया। जिस दिन उसका वीज़ा आया उसके तो पैर ही ज़मीन पर नही पड़ रहे थे।
"मम्मी.... मम्मी... माता... ओ माता... कहाँ हो" वह चिल्लाते हुये घर में घुसा। वह जब बहुत ख़ुश होता था तो अपनी मां को माता कह कर बुलाता था।
"क्या है... क्या बात है... क्यों आस्मान सर पर उठा रखा है... हे वाहेगुरू, इस लड़के को अब तू ही कुछ सिखा, मेरे तो ये बस का नही है" रज्जी कमरे से बाहर आते हुये बोली, "हाँ... अब बता क्या बात है?"
"ये देख क्या है...?" विक्की ने उसके चेहरे पर वीज़े के पेपर लहराते हुये कहा।
"क्या है...?" रज्जी ने पूछा अरे.. ये हैं मेरे कनेडा जाने के काग़ज़ात और अब बहुत शीघ्र ही तेरा सपूत कनेडा की धरती पर पांव रखने वाला है... जट्ट चल्लेया कनेडा नूं... हुण जट्ट चल्लेया कनेडा नूं..." वह गाते हुये बोला। सुनते ही रज्जी गम्भीर हो गई। मां भी ईश्वर की अद्भुत देन है। अपनी औलाद के लिये हर ख़ुशी चाहने वाली मां उसके दूर जाने के विचार से ही व्यथित हो उठती है। फिर भी स्वयं को संभालते हुये रज्जी बोली।
"चलो... अच्छा हुआ... तू कबसे इन कागज़ों की राह देख रहा था, पर बेटा, तुझे इतनी दूर भेजने को मेरा मन नही मान रहा है। कहीं वहाँ जाकर तू हमें भूल तो नही जायेगा?"
"अरे... क्या बात करती हो माता," विक्की अभी भी चहक रहा था, "तुम मुझे जाने तो दो, बस साल भर में ही तुझको और पापा को वहीं बुला लेना है फिर हम वहाँ सारा परिवार मज़े से रहेंगे।"
"अब हम वहाँ जाकर क्या करेंगे पुत्तर," बलदेव घर के अंदर आते हुये बोला। उसने अंदर आते हुये मां-बेटे के वार्तालाप के आख़िरी हिस्से को सुन लिया था। वह सारी बात समझ चुका था।
"अपनी तो सारी उम्र इसी जालंधर से इसापुर के बीच ही कटी है। अब और कहीं जाने को मन नही करता है। ख़ैर, तेरा वीज़ा आ गया है, यह अच्छी ख़बर है। तू तैयारी कर और जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो वह ले ले, किसी भी बात की चिन्ता मत करना, मैं हूँ न..." बलदेव भावुक हो उठा था।
"और हाँ बेटा," रज्जी बोली, "वहाँ जाकर अपने देश, अपने गाँव, गाँव की मिट्टी को भूल न जाना। ये सब तुझमे समाये हैं, बेटा। जब जी चाहे चले आना, हम सब हमेशा तेरी राह देखेंगे......।" कहते हुये रज्जी की आँखो से आँसू बह चले।
"और इन रिश्तों को समय की दीमक भी कभी खोखला नही कर पायेगी।" बलदेव ने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुये कहा, "और हाँ...एक बात है कि हम तेरा कनेडा देखने तो एक बार ज़रूर आयेंगे। वो क्या कहते हैं उसे...हाँ... नियाग्रा फ़ॉल और सीन टॉवर..."
"सीन टॉवर नही पापा, सी. एन. टॉवर"
" हाँ... हाँ... वही... वही..." बलदेव ने अपने आँसू छुपाते हुये बात समाप्त की।
इस तरह विक्की टोरंटो पहुँच गया। नई जगह थी, नये लोग थे। यूं तो टोरंटो निवासी क़ाफी मिलनसार थे, मगर मशीनी युग ने उन्हे भी मशीन बना दिया था। तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी ने सबको दौड़ते रहना सिखा दिया था। विक्की अपने दोस्त लवली के घर पर ठहरा था जिसके पास कई ट्रक थे जो कनेडा से अमेरिका के बीच सामान ले जाने और ले आने पर लगे हुये थे। लवली ने अपनी ख़ुद की ट्रांसपोर्ट कंपनी ”लवली ट्रांसपोर्ट" भी चलाई हुई थी जिसमे दर्जनों और लोगों के ट्रक भी चलते थे।
लवली और विक्की स्कूल के साथी थे। दसवीं पास करते ही लवली अपने मां-बाप और छोटी बहन शालू के साथ कनेडा आ गया था। उसकी बड़ी बहन अमन की शादी कनेडा में हुई थी सो उसी की स्पॉन्सरशिप पर लवली समेत परिवार कनेडा आ गया था। शालू अभी पढ़ रही थी और ज़ेब ख़र्च के लिये सप्ताहांत पर काम भी किया करती थी। शालू को विक्की भी अपनी बहन ही मानता था। विक्की के कनेडा आ जाने से शालू भी बहुत ख़ुश थी, उसे लगता था कि उसका एक और भाई यहाँ आ गया है। लवली के माता-पिता अब शालू की शादी शीघ्र ही कर देना चाहते थे ताकि अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकें। उसके लिये वो योग्य वर की तलाश में थे। लवली के सैंकड़ो जानकार थे जिसमे से ज़्यादातर ट्रक ड्राईवर, ट्रक ऑपरेटर, डिसपैचर्स और वर्कशॉप वाले थे। वह अपनी बहन के लिये किसी उच्च कोटि के रिश्ते की तलाश में था। उसकी अपनी शादी तो पंजाब में ही हुई थी। अब उसे एक बेटा भी था। लवली को देख कर विक्की उससे अपनी तुलना करने लगता। साथ-साथ पढ़ने वाले उन दोनों में अब कितना अंतर आ गया था। दोनों की क़िस्मत कितनी जुदा थी। इन पाँच-छह सालों मे लवली कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पंजाबियों की घनी आबादी वाले शहर ब्रैम्पटन में लवली के पास एक बहुत बड़ा मकान था।उसके पास तीन नई चमकीली गाड़ियां थीं और एक बडा़ सा फ़ोर-बाई-फ़ोर था जिसमें अपने दोस्तों को लेकर वह हर सप्ताहांत नियाग्रा चला जाता जहाँ सारी-सारी रात दारू पी जाती और कसीनो में पैसे उड़ाये जाते। यूं तो लवली के बहुत सारे दोस्त थे पर हैप्पी और बल्ली उसके बहुत गहरे मित्र थे जो उसके कारोबार के साथी होने के साथ-साथ सुख-दुख के साथी भी थे। रिंकू और बिट्टू भी उसके दोस्तों में से थे। अब तो विक्की भी उनके साथ जाता था और उनकी ऐय्याशी में गाहे-बगाहे शामिल होता था। लवली उससे बराबर कहता था,
"यार... विक्की... तू भी जल्दी से ट्रक का लाईसेंस ले ले और ट्रक चलाना शुरू कर दे। यह जो मेरी ऐशो-आराम की ज़िन्दगी तू देख रहा है, यह इन्ही ट्रकों की देन है। अपने लोग ज़्यादातर इसी धंधे में हैं। इसी में पैसा है, चाहे तो टैक्सी चला, चाहे तो ट्रक चला।"
"पर, लवली, मैं सोचता हूँ कि कोई ढंग का पेशा क्यों न अपनाऊं" विक्की बोलता, "मैं इस काम को बुरा नही समझता परन्तु इसमें आराम नाम की कोई चीज़ नही है। आदमी कोल्हू का बैल होकर रह जाता है। एक ही सीट पर घंटों बैठे रहने से हाज़मा ख़राब हो जाता है जिससे कई रोग लग जाते हैं। कभी मौसम आड़े आता है तो कभी सरकार। दिन और रात सब एक हो जाते हैं। नही... नही... यह काम मेरे लिये नही है। मैं तो कुछ और ही देखूंगा।"
लेकिन विक्की के लाख मना करने पर भी, लवली ने उसे ट्रक का लाईसेंस दिलवा दिया और अपना एक ट्रक उसे चलाने को भी दे दिया। विक्की उसके लिये काम करने लगा। अमेरिका के चक्कर लगने लगे। अब उसे भी मज़ा आने लग गया। चार पैसे उसकी ज़ेब में होने लगे। वह लवली से अलग होकर एक अपार्टमेंट में रहने लगा परन्तु वह जब भी टोरंटो में होता नियाग्रा में दारू और कसीनो का प्रोग्राम ज़रूर बनता था ( शेष अगले भाग में )

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