Monday, March 9, 2009

एक

जबकि
सब-कुछ एक था,
एक सूरज, एक चाँद
एक ही आस्मां था,
जाने क्या हुआ
वो एक टूटता गया,
धीरे-धीरे अनेकता में
फूटता गया,
फिर
भिन्नता में वो
विभाजित हुआ
अहम से लेकिन
पराजित हुआ,
जंगल बने, पर्वत बने
सितारे बने, झरने बने,
नदियाँ बनीं, शाखायें बनीं
राहें बनीं, मंज़िलें बनीं,
लालसाओं का घेरा
बढ़ता गया
तमन्नाओं का शिकंजा
कसता गया,
परत पर परत
चढ़ती गई
वास्तविकता
दबती गई,
दब गया या दबाया गया
भेद न इसका पाया गया,
ओस की बूँद मैली हुई
नूर की जोत धुँधली हुई,
पूछने वाले पूछ्ते हैं कि
अंदर है तो कहाँ है
बाहर है तो कहाँ है?
कोई तो बताये
वो एक
अब मिलता कहाँ है?
कहने वाले फिर भी
कहते हैं कि
पक्षियों के चहचहाने में
बच्चों के मुस्कुराने में,
फूलों के खिलने में
दिलों के मिलने में,
माँ के प्यार में
कुदरत के विस्तार में,
एकम का ही
बिम्ब है
उसी का प्रतिबिम्ब है,
उसका ही प्रसार है
उसी का चमत्कार है,
चाहिये तो बस
सबर चाहिये
देखने वाली इक
नज़र चाहिये...

3 comments:

  1. वाह! सिद्धु जी, बहुत अच्छी कविता।

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  2. बेहतरीन!!!

    आपको होली की मुकारबाद एवं बहुत शुभकामनाऐं.
    सादर
    समीर लाल

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  3. कमाल ही कर दिया सिद्धू जी!

    वाह भई वाह क्या अजब गजब प्रवाह है।
    कविता में सरिता सा निर्मल उछाह है॥

    सिद्धू सिद्ध आप हैं कवि प्रसिद्ध आपकी
    कलम से लिक्खा वाक्य वाकई में दिल की चाह है।

    आह है गरीब की कराह बदनसीब की
    बेगुनाह की तो दर असल पनाह गाह है।

    आपकी हरेक ही कहानी की रुहानियत
    रूह रूह को सुझा-सी रही सच्ची राह है।

    गीत नज़्म हो रुबाई या भले कोई गज़ल
    सूफ़ीयाना ढंग बेनज़ीर वाह वाह है।

    शायरी में आपका दखल है लाजवाब “दीप”
    सच्चे बादशाह की महरभरी निगाह है।

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