Saturday, May 30, 2009

देखता ही रह गया

आज देखा जो उसे तो देखता ही रह गया
अश्क़ मिज़गां पे मेरी इक तैरता ही रह गया

गिर रहीं थीं दिल पे मेरे, सैंकड़ों ही बिजलियां
जिस्म सारा हो के बेबस कांपता ही रह गया

भूल उसको मैं न पाया आज भी सब याद है
धड़कनों में वो पुराना खौलता ही रह गया

यूं हवा में उड़ रही थी ज़ुल्फ़ उसकी बेख़बर
सांप सीने पर मेरे इक लोटता ही रह गया

बेवफ़ा वो हो गया था छोड़ मुझको राह में
अब न जाने क्यों मुझे वो जांचता ही रह गया

रुक नहीं पाती कभी, ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी
प्यार का ये खेल कैसा, सोचता ही रह गया

Tuesday, May 26, 2009

अपना जहां तो और है

ये जहां अपना नहीं, अपना जहां तो और है
हम नहीं मालिक यहाँ, मालिक यहाँ तो और है

जिस चमन को हम सदा अपना चमन समझा किये
अब ये जाना उस चमन का, बाग़बां तो और है

जब कभी देखा निकल कर जिस्म की दीवार से
है चलाता जो इसे, वो बेज़ुबां तो और है

छोड़ जायें इस जहां में चाहे जितनी दौलतें
याद जिनसे रह सकें हम, वो निशां तो और हैं

छोड़ देंगे हम इसी दुनिया में सारी रौनकें
अपने जाने को अभी, कितने जहां तो और हैं

चल संभल कर तू ओ निर्मल बेख़ुदी के दौर से
तू ज़मीं पे खो न जाना, आस्मां तो और हैं

Tuesday, May 12, 2009

अपराध-बोध


सुबोध भाटिया अपने कमरे में टहल रहा था। टहल क्या रहा था-- बस, सुस्त क़दमों से आ-जा रहा था। कुछ क्षण उपरांत वह धम्म से, कमरे में पड़ी एक इज़ी-चेयर पर बैठ गया। सामने फ़र्नेस में, ठंड दूर करने के लिये आग जल रही थी। सर्दियां पूरी तरह अपने ज़ोरों पर थीं मगर, सुबोध के अंदर एक आग सुलग रही थी। उसकी उदास नज़रें सामने दीवार पर टंगी नवजोत की तस्वीर पर अटकी हुई थीं। तस्वीर के ठीक नीचे एक सेल्फ़ पर बहुत सारी ट्राफ़ियाँ रखी हुई थीं। तस्वीर से फ़िसल कर उसकी नज़रें ट्राफ़ियों के मध्य पड़ी सबसे बड़ी ट्राफ़ी पर जा टिकी जिस पर अंकित था, "नवजोत भाटिया...."।
उसकी नज़रें भले ट्रॉफ़ी पर टिकी थीं, परन्तु उसके कानों में नन्हीं नवजोत और उसकी माँ की मिली-जुली आवाज़ें गूंज रही थीं...
सुबोध बरामदे की सीढ़ियां उतर रहा था। नवजोत आँगन में खेल रही थी। उसकी माँ नवजोत को झिड़के जा रही थी। सुबोध को उतरता देख नवजोत, भाग कर घर के अंदर चली गई। माँ सुबोध को आवाज़ें देने लगीं।
"सुबी.... ओ सुबी.... कहाँ है तू.... आज दफ़्तर के लिये जल्दी निकल गया क्या...?"
"नहीं माँ, बस अब, जाने ही वाला हूँ... और सुना, तेरी तबियत अब कैसी है? दवाई अभी है या ख़त्म हो गई?"
"दवाई तो अभी है बेटा, पर तू सुन, आज दफ़्तर से आते हुये पंडित रामकृष्ण के घर होकर आना। उसने बहूरानी के लिये एक उम्दा किस्म का ताबीज़ बना कर रखा है, लेकर आना। देखना, इस बार लड़का ही होगा।"
"ओफ़्फ़ोह माँ.... तुम भी रोज़ सुबह-सुबह शुरू हो जाती है। कहीं ताबीज़ों से भी लड़के पैदा होते हैं? क्यों तुम, इस तरह कमल के पीछे पड़ी रहती हो....?"
"तू समझता क्यों नहीं है सुबी..., अभी पिछले ही महीने इन्हीं महराज के ताबीज़ के बदौलत ही तो गिरधारी के यहाँ लड़का हुआ है। तू भी न, पढ़-लिख कर एकदम नास्तिक हो गया है।"।
"अच्छा... अच्छा माँ, मैं उधर से हो आऊँगा।" सुबोध ने माँ से पीछा छुड़ाने की ग़रज़ से कहा और फिर कमल को आवाज़ें देने लगा,
"कमल.... कमल.... मेरा टिफ़िन कहाँ है और वो नवजोत की बच्ची कहाँ है, आज उसने स्कूल नहीं जाना क्या...?"
"हाँ जी.... हाँ जी.... सब-कुछ तैयार है....," अंदर से टिफ़िन लेकर बाहर आते हुये कमल बोली, "तुम दोनों बाप बेटी सुबह-सुबह नाक में दम कर देते हो। ये नवजोत भी न, पाँच साल की हो गई है पर ज़रा भी चैन नहीं लेने देती...."
"नवजोत.... नवजोत....." सुबोध ने नवजोत को आवज़ दी
"यस पापा.... आई एम रेडी...." नन्ही नवजोत चहकते हुये बाहर निकली।
"अरे वाह मेरी बच्ची.... क्या बात है...." सुबोध ने नवजोत को उठाते हुये कहा, फिर तुरत माँ की ओर देख कर नवजोत के कान के पास मुंह ले जाकर बोला, "अब चलो, जल्दी भाग ले यहाँ से, नहीं तो अगर तेरी दादी शुरू हो गई तो फिर......"
"यस, यस पापा.... चलो भागो जल्दी यहाँ से...." नवजोत भी धीमे से बोली,
सुबोध ने स्कूटर स्टार्ट किया। नवजोत बस्ता लटकाये, दौड़ कर स्कूटर के आगे खड़ी हो गई। सुबोध ने स्कूटर घुमाया और बाहर ट्रैफ़िक की भीड़ में खो गया। कमल की नज़रे उसी तरफ़ टिकी थीं, जिस तरफ़ स्कूटर गया था। वह अपने पति और बच्ची से बेहद ख़ुश थी, पर सुबोध की माँ--- उसका वह क्या करे?
सुबोध भी अपनी पत्नि और बच्ची के साथ बहुत संतुष्ट और ख़ुश था, परन्तु माँ की पोता देखने की लालसा से बेहद परेशान रहता था। उसकी शादी के एक साल बाद ही उसकी माँ ने पोते की रट लगाना शुरू कर दी थी जो कि आज तक जारी थी। पहली बार जब कमल गर्भवती हुई तो माँ ने अनेक धार्मिक स्थानों पर जा-जाकर पोते की मन्नतें मांगनी शुरू कर दी थीं, मगर सब बेकार रहा। कुछ दिन बाद जब उसने कमल को ज़बरन अल्ट्रासाऊण्ड के लिये भेजा, और वहाँ जब ये पता चला कि होने वाला बच्चा लड़की है, तो उसे बड़ी निराशा हुई मगर सुबोध के भय से वह चुप रही। सुबोध ने भी माँ को समझाने का भरपूर प्रयास किया था। वह अक्सर माँ से बातें करता हुआ कहा करता,
"देखो माँ, अब ज़माना बदल गयाहै, अब लड़के और लड़की के बीच का अंतर काफ़ी हद तक मिट चुका है, बल्कि आजकल तो कई क्षेत्रों में लड़कियां लड़कों से बाज़ी मार ले जाती हैं..."
"तू ज़्यादा बक-बक मत किया कर, आदमी का कुल-वंश सब बेटे से ही तो चलता है। बेटे के बिना भी किसी की मुक्ति होती है भला, और लड़कियां... वो तो पराई अमानत होती हैं..."
"अब यह सब पुरानी बातें हो गई हैं माँ, लोगों के सोचने का तरीका अब पहले जैसा नहीं रह गया है। काफ़ी कुछ बदल गया है...."
"कहीं कुछ नहीं बदला है, सब कुछ वैसे का वैसा ही है। लड़की के जन्म से लेकर पालन-पोषण और विवाह पर्यन्त उनकी रखवाली करो, फिर विवाह के बाद भी ज़िम्मेदारी से कोई मुक्ति नहीं, कुछ-न-कुछ देते रहो..... देते रहो.... सुबी... तू एक काम कर, तू इसको गिरा दे...." माँ ने फिर भी लगे हाथ गर्भपात की भी सलाह दे डाली थी।
"यह कभी नहीं होगा माँ, यह हमारा पहला बच्चा है... लड़का हो या लड़की, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।"
"पर, मुझे तो फ़र्क़ पड़ता है सुबी... न जाने तू कब समझेगा..."
लेकिन माँ की लाख ज़िद के बावजूद भी सुबोध ने कमल का गर्भपात नहीं करवाया। फलस्वरूप, नवजोत इस दुनिया में आई, और उसके आने से दोनों पति-पत्नी बेहद ख़ुश थे मगर कब तक!
अगले ही साल माँ ने फिर वही राग अलापना शुरू कर दिया। उसने फिर से पंडितों और मुल्लाओं के चक्कर काटने आरम्भ कर दिये। लड़का होने की ख़बर उसे जिस घर से भी मिलती, वहां पहुँच जाती और उनसे तरीके पूछती। उसने दर्जनों नारियल पानी में बहाये, चौराहों पर अनगिनत दीप जगाये, कितनी ही मजारों पर माथा रगड़ा मगर कोई लाभ न हुआ। यहाँ तक कि वह डाक्टरों-हकीमों के पास भी दवाईयां लेने चली जाती और दवायें लाकर कमल के हाथ पर रख देती, और उस पर नज़र भी रखती कि दवाओं का सेवन वह पूरी विधिपूर्वक कर रही है कि नहीं।।
वैसे, कमल को माँ से और कोई शिकायत नहीं थी। माँ की सिर्फ़ पोता पाने की ही ज़िद से कमल तंग थी वर्ना माँ एक भद्र महिला ही थी, परन्तु दोष कैसा भी क्यों न हो, दोष ही होता है। अगली बार जब कमल गर्भवती हुई, तो वही कहानी दोबारा शुरू हो गई।
पुरानी मान्यताओं और रूढ़िवादी विचारों में जकड़ी अपनी माँ पर, सुबोध के समझाने का कोई असर नहीं हो पा रहा था। पिता के मरणोपरांत जिन कठिनाईयों से गुज़रते हुये माँ ने सुबोध को पाला-पोसा और पढा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया था, उसकी वजह से सुबोध कोई ऐसा सख़्त क़दम नहीं उठा पाता था, जिससे माँ की आत्मा दुखी हो। इसलिये जब दोबारा ये पता चला कि कमल के होने वाला बच्चा लड़की है तो उसने अपनी माँ के हठ के आगे घुटने टेक दिये और न चाहते हुये भी, कमल का गर्भपात करवा कर भ्रूण-हत्या का दोषी बन बैठा। मगर माँ--- फिर वही ढाक के तीन पात।
सुबोध ने सोचा था कि आगे ये समस्या नहीं रहेगी मगर ऐसा भी कभी हुआ है--- समस्या तो समस्या ही होती है। वह जब भी माँ को भगवान के आगे पोते की भीख मांगते हुये सुनता तो उसका मन उचाट हो जाता। जब किसी पड़ोसन से वह कह रही होती, कि मेरे बेटे के पीछे तो भगवान ने चुड़ैलें ही डाल दी हैं तो वह और भी खिन्न हो उठता। आख़िरकार, यह समस्या समाप्त तो हुई मगर जिस तरह हुई उस तरह वह कदापि नहीं चाहता था।
उस शाम को घर आते हुये, सुबोध जान-बूझ कर पंडित रामकृष्ण के यहाँ नहीं गया। ऐसी बातों पर उसे कोई विश्वास नहीं था। सो, वह माँ की इस क़िस्म की हिदायतों को बहाने बना कर टाल जाता था। वैसे भी, उसे पता था कि कमल फिर उम्मीद से है और कल ही चैक-अप के लिये जाना है।
चैक-अप रूम से बाहर आते हुये सुबोध और कमल अत्यधिक उदास थे। इस बार भी डॉक्टर ने गर्भ में कन्या के होने की ही पुष्टी की थी। उन्हे कन्या का दुख नहीं था, माँ की चिन्ता थी जिसने न जाने ईश्वर के कौन-कौन से दरबार में जाकर पोते की मांग रखी थी, मगर ईश्वर, न जाने वह कहाँ रहता है?
एक बार फिर कमल को गर्भपात की त्रासदी से गुज़रना पड़ा। मगर इस बार, क़ुदरत ने उसे ये सज़ा भी दी, कि वह आयन्दा माँ बनने के लायक न रही। उसे बार-बार कन्या-हत्या करने से तो हमेशा के लिये मुक्ति मिल गई, मगर जो दो हत्यायें हो चुकी थीं, उनकी टीस सुबोध और कमल के मन में सदा के लिये बस गई। यूं कमल जब बहुत ग़मगीन होती, तो सुबोध उसे दिलासा देते हुये कहा करता,
"कोई बात नहीं कमल, दुनिया में हज़ारों माँ-बाप ऐसे भी हैं जिनकी कोई औलाद नहीं है, हमारे पास कम-से-कम नवजोत तो है न..., यह तो तुम जानती ही हो कि कितनी विलक्षण प्रतिभा की मालिक है हमारी बेटी। देखना तुम, सदा हमारे पास रहेगी और हमारी हमदर्द बनी रहेगी।"
इस तरह समय अपनी गति से चलता रहा। नवजोत धीरे-धीरे बड़ी होती गई। पढ़ने में वह शुरू से ही होशियार थी। विज्ञान उसका पसंदीदा विषय था। बचपन से ही सुबोध के साथ पहेलियां बूझना, कठिन से कठिन प्रश्नों को हल करना और नये-नये प्रयोग करना उसे बहुत प्रिय था। यूं कक्षा-दर-कक्षा चढ़ते-चढ़ते एक दिन वह कॉलेज तक पहुँच गई।
कॉलेज में भी नवजोत का पढ़ाई में बहुत नाम रहा। तब तक उसने अपना भविष्य भी निश्चित कर लिया था। वह एक भू-वैज्ञानिक बनना चाहती थी ताकि कुछ नया अनुसंधान करके मानवता और अपने देश का कुछ तो कल्याण कर सके।
इन्हीं दिनों माँ की तबियत ख़राब रहने लगी। एक दिन बारिश में भींगने की वजह से निमोनिया हुआ तो तबियत बद से बदतर होती गई और आख़िरकार, सबको रोता कल्पता छोड कर परलोक सिधार गई। माँ की मृत्यु से एक दौर का अन्त तो होता है, मगर उसकी कमी को पाटना भी असंभव होता है।
एक रोज़ सुबोध काम से वापस आ रहा था तो बाज़ार में कुछ लेने के लिये रुका तो उसने देखा, कि एक जवान लड़के को पुलिस हथकड़ियां लगा कर अपनी जीप में बैठा रही थी। वह लड़का शक्ल से ही अपराधी लग रहा था। ज़रूर इसने कोई गम्भीर अपराध किया होगा--- सुबोध यह सोच ही रहा था कि उसने कुछ लोगों को बातें करते सुना,
"इस गिरधारी के लौण्डे ने तो जीना हराम कर रखा है। हर रोज़ कोई-न-कोई नया कारनामा करता है।" एक बोला,
"हाँ, और देखो तो, अभी इसकी उम्र ही क्या है? इतनी छोटी उम्र में ही अच्छा ख़ासा शातिर चोर बन गया है।" दूसरा बोला
"न जाने गिरधारी ने कौन से पाप किये थे, जो भगवान ने उसे ऐसी कमीनी औलाद दी..." तीसरा बोल पड़ा।
"ऐसी औलाद से तो अच्छा है, कि इन्सान बेऔलाद ही रहे..." पहले ने फिर दुखी स्वर में कहा।
सुबोध को अचानक माँ की याद आ गई। पोते का मुंह देखने की तमन्ना मन में लिये स्वर्ग सिधार गई। आज अगर पंडित रामकृष्ण के प्रसाद से उत्पन्न गिरधारी के पुत्र का ह्श्र देखती तो जाने उस पर क्या बीतती? सुबोध को अपनी नवजोत पर गर्व का अहसास होने लगा। अगर माँ जीवित होती तो उससे वह अवश्य कहता "माँ, देखो जिस नवजोत को तुम देखना नहीं चाहती थी वह किस मुकाम की ओर बढ़ रही है और गिरधारी का पुत्र...., फिर भी तुम पुत्र को इतना महत्व देती थी। युग बदल गया है माँ, अब कई नालायक पुत्रों से एक लायक पुत्री बेहतर होती है।"
तरक्क़ी की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते नवजोत एक दिन उच्चकोटि की भू-वैज्ञानिक बन गई। उसके नम्बरों और उसके उत्तम प्रदर्शन को देखते हुये जियोलॉजिकल-सर्वे-ऑफ़-इंडिया ने एक उच्च पद पर कार्य करने की पेशकश कर दी। वह बहुत ख़ुश हुई, वह देश की सेवा ही तो करना चाहती थी। जिस दिन उसे नियुक्ति पत्र मिला वह ख़ुशी से फूली न समा रही थी।
"पापा... पापा... आज मैं बहुत ख़ुश हूँ," वह घर आकर बोली, "अपने देश के लिये काम करना मुझे बहुत अच्छा लगता है"
"हाँ बेटा, यह हम सबके लिये भी बहुत ख़ुशी की बात है कि तुम्हे देश सेवा का मौक़ा मिल रहा है।"
"और तुम देखना पापा, मैं कोई इससे भी बड़ा काम करूंगी।"
"ईश्वर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेगा बेटा," कमल भी बोली।
" हाँ बेटा.... लेकिन जो भी करना पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करना," सुबोध ने कहा,
"यस पापा... श्योर,"
नवजोत की बातें सुन कर सुबोध भाव-विभोर हो उठता था, मगर जब वह कमल के चेहरे की तरफ़ देखता तो वहाँ खिची दर्द की लकीर देख कर उसका अन्तर्मन विह्वल हो उठता। जाने अन्जाने में हुये पाप का अहसास, अब तक उनके मनों को कचोट रहा था।
उधर नवजोत ईमानदारी और मेहनत के साथ आगे बढ़ती गई। अब कमल उसकी शादी की चिन्ता करने लगी क्योंकि उसकी नज़र में अब वह काफी बड़ी हो चुकी थी लेकिन वह जब भी नवजोत से शादी की बात करती तो वह टाल देती। नवजोत अपने कार्य और लक्ष्य को ही प्राथमिकता देती थी
होते-होते जब भारत सरकार ने दक्षिण ध्रुव पर अंटार्कटिका में एक महत्वपूर्ण मिशन के लिये एक खोजी दल भेजने का निर्णय लिया, तो सरकार को उस दल के नेतृत्व के लिये नवजोत से बढ़ कर और कोई दूसरा उपयुक्त उम्मीदवार नज़र नहीं आया। फलस्वरूप वह चुन ली गई, और क़रीब पच्चीस सदस्यों का काफ़िला ले कर वह अंटार्कटिका रवाना हो गई। जाते-जाते वह कमल को अपने साथ काम करने वाले प्रमोद के बारे में केवल इतना बता गई, कि वह उसे पसन्द करती है, और वापस आकर उससे शादी का इरादा रखती है, जिसे सुन कर कमल बहुत खुश हुई थी।
अंटार्कटिका का यह दौरा क़रीब तीन महीने का था। वहाँ पहुँचते ही, नवजोत ने सारी टीम के साथ मिल कर अपना काम पूरी मुश्तैदी से शुरू कर दिया। अपने काम की रोज़ाना की रिपोर्ट उसे लगातार भारत भेजनी होती थी, जिसे वह पूरी तन्मयता के साथ बिना नागा किये जा रही थी। प्रमोद उसके साथ था जो उसकी लक्ष्य-प्राप्ति में हर तरह से उसका साथ दे रहा था। साथ-साथ काम करते हुये दोनों ने अपने भावी-जीवन के लिये भी बहुत-सी योजनायें बना लीं, परन्तु कुदरत बड़ी बलवान होती है, उसके भूत और वर्तमान में तो वैज्ञानिक झांक लेता है, मगर भविष्य में झांकना ज़रा कठिन होता है।
नवजोत का अनुसंधान-कार्य अपने अन्तिम पड़ाव से गुज़र रहा था। भारत सरकार उसकी सफलता से बेहद ख़ुश थी। सुबोध को उम्मीद थी, कि नवजोत के वापस आने पर बहुत सारी ख़ुशियों के दिन आने वाले हैं। समाचार पत्रों में भी अक्सर ये मांग उभरने लगी, कि नवजोत की प्राप्तियों को देखते हुये, उसके वापस आने पर सरकार को उसे पुरस्कृत करना चाहिये, मगर...
मगर, एकाएक नवजोत की सूचनायें आनी बन्द हो गईं। एक भयंकर बर्फ़ीले तूफ़ान की वजह से उसका सम्बन्ध बाक़ी दुनिया से टूट गया। समाचार प्राप्त करने वाले यन्त्र एकदम ठप्प हो कर रह गये। भारत में शोक की लहर दौड़ गई। इस तूफ़ान का अन्दाज़ा तो वैज्ञानिकों को था, लेकिन यह भयानक तूफ़ान नवजोत और उसके साथियों की जान पर से गुज़रेगा, इसका अनुमान उन्हें क़तई नहीं था। तूफ़ान के वक्त नवजोत अपने कुछ साथियों समेत अपने पड़ाव से दूर, अपने शोध कार्य को अंजाम दे रही थी कि सब-कुछ उलट-पुलट हो गया।
प्रमोद और कुछ साथी पड़ाव में रहने की वजह से बच गये। कुछ दिन बाद जब यह ख़ौफ़नाक तूफ़ान थमा, तो सूचनायें आनी आरम्भ हुईं, मगर हज़ार कोशिशों के बावजूद भी नवजोत और उसके साथियों का कुछ पता न चल सका।
आज गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या थी, जब सुबोध और कमल को नवजोत की श्रेष्ठ उपलब्धियों के बदले घोषित किया गया पुरस्कार, ग्रहण करने के लिये आमंत्रित किया गया था। नवजोत ने मरते-मरते भी अपने शोध परिणाम पड़ाव में प्रमोद तक पहुँचा दिये थे, ताकि आने वाले समय में भारत की उन्नति के और भी रास्ते खुल जायें।
सुबोध और कमल आज नवजोत को मिले इस ईनाम को लेते हुये, स्वयं को जहाँ गर्वित अनुभव कर रहे थे, वहीं उनके हृदय में नवजोत के जाने का ग़म भी कम नहीं था। उनके हृदय में अपनी दो गर्भस्थ कन्याओं की हत्या का अपराध-बोध भी था। काश, वो आज जीवित होतीं तो न जाने देश और क़ौम की उन्नति में किस क़दर सहायक होतीं? वो पाप उन्होंने न किया होता, तो आज उनका अंतस-मन ग्लानि के बोझ तले न दबा होता, उनका जीवन इस तरह वीरान न हो गया होता बल्कि फूलों की ख़ुशबू से महक रहा होता। यह ख़्याल आते ही, सुबोध नवजोत की ट्राफ़ियों के मध्य सिर रख कर सुबकने लगा......

Saturday, May 2, 2009

प्यार का रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला,
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

आज भी पंछी
जब हैं गाते
बात प्रेम की
वो समझाते,
झर-झर झरने
जब हैं बहते
गीत प्रीत के
वो भी गाते,

जिधर भी देखो
सब-कुछ बदला
जीने का हर
ढंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

पुष्प प्रेम के
जब हैं खिलते
तन-मन इक-
दूजे से मिलते,
प्रीत की ख़ुशबू
सुध-बुध खोये
जब संदेश दिलों
के मिलते,

तन के कितने
रूप हैं बदले
मन का रूप
भी बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बिना कोई
बात बने न
प्यार बिना इक
रात कटे न,
प्यार ख़ुदा का
नूर है ऐसा
इक पल भी जो
दूर हटे न,

इन्सा ने चेहरा
तो बदला
चेहरे का हर
अंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बदल
गर जायेगा
जग में क्या
रह जायेगा,
आस की कलियां
मुरझायेंगी
ख़्वाब सुहाना
मर जायेगा,

दौर पुराना
वक्त का बदला
सबका तौर-
तरीका बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....