Tuesday, January 20, 2009

सबक़ प्यार का सिखाया कीजिये

ख़ुद को न हमसे छुपाया कीजिये
हमको इशारों से बुलाया कीजिये

दिल ये हमारा घर है आपका
अपने घर में आया जाया कीजिये

ये प्यार तो ख़ुदा की है इबादत
इस क़दर भी न शरमाया कीजिये

हया के दायरे से निकल भी आयें
यूं हमको न तरसाया कीजिये

इतना भी सिमटना ठीक नही है
कभी कभी तो मुस्कुराया कीजिये

महफ़िले ग़ैर में क्यूं हैं जाते आप
दिल हमारा न यूं जलाया कीजिये

ख़्वाब तो ख़्वाब है टूट जाता है
मत ख़्वाबों से बहलाया कीजिय़े

धड़कनों में मेरी नाम है आपका
कभी अपनी भी सुनाया कीजिये

नासूर न बन जायें ज़ख़्म ये कहीं
ज़ख़्मों को मेरे सहलाया कीजिये

नफ़रतों का दौर है हर तरफ़
सबक़ प्यार का सिखाया कीजिये

चाहते हैं अगर प्यार ही प्यार
दिल निर्मल का सजाया कीजिये

वो शख़्स बड़ा दीवाना निकला

जिसको सुनने सारा ज़माना निकला
वो मेरी मुहब्बत का फ़साना निकला

धड़कता था जो सबके दिलों में हरदम
मेरे ही लबों का एक तराना निकला

आते ही दिया पैग़ाम चले जाने का
ये मुझको जुदा करने का बहाना निकला

क़त्ल हुआ मेरा, शोर न मचा क्योंकि
मेरा क़ातिल मेरा यार पुराना निकला

औरों को ख़ुशी दे, ख़ुद ग़म ही समेटे था
इस दौर में वो शख़्स बड़ा दीवाना निकला

ग़म जो मिले निर्मल से तो अचानक बोले
यार, तुमसे तो बरसों का याराना निकला

Friday, January 16, 2009

आज़ादी

सुबह-सवेरे नहा धोकर मैं ज्योंहि अपने आफिस में पहुँचा तो कुछ लिखने को मन हुआ। लिखने का मेरा दफ़्तर मेरे घर पर ही स्थित है। हर तरह की सुविधा से सम्पूर्ण होने पर भी लिखने के मामले में मैं ज़रा दकियानूसी हूँ। कहने का मतलब है कि पहले मैं कलम से कागज़ पर लिखता हूँ पश्चात उसे कम्प्यूटर पर टाईप करता हूँ। हाथ से लिखकर मुझे अत्यधिक संतुष्टि मिलती है। एक बात और मैं ज़्यादातर सुबह-सुबह ही लिखने को तरजीह देता हूँ। इसके कई कारण हैं। एक तो मन सुबह-सुबह काफ़ी हद तक एकाग्र होता है जिससे नयापन तेज़ी से सूझता है। दूसरा बाहरी हस्तक्षेप का अंदेशा भी बहुत कम होता है। उत्तम लेखिनी के लिये सुबह का समय मुझे बहुत उपयुक्त लगता है।
ख़ैर, काफ़ी सोच विचार के बाद अपने पुराने लिखे कागज़ों को एकत्रित कर एक ओर रखा और नये कागज़ सामने रखकर ज्योंहि कलम उठाकर उससे लिखने का प्रयास किया तो कलम अटकने लगी। उसके अटकने का कारण मुझे समझ में न आया। काफ़ी प्रयत्न करने पर भी जब वह टस से मस न हुई तो मैं खिन्न हो उठा और चलने के लिये कलम पर अधिक से अधिक दबाव डालने लगा। मेरा अत्यधिक दबाव देखकर यकायक कलम तड़प उठी और क्रोध से तमतमाते हुये मुझ पर उबल पड़ी।
"आख़िर क्या चाहते हो तुम मुझसे?" वह बिफरी ,"क्यों सताते रहते हो इस तरह मुझे आ आकर। हर सुबह मेरी गर्दन पकड़ कर अपनी मनमानी करना शुरू कर देते हो, आख़िर क्यों"
"ओह...हो.. ये क्या हो गया है आज तुम्हें" मैं बोला " क्यों इस तरह भड़क रही हो, मैने तुम्हे पहले कभी इस तरह अपने कर्तव्य से आंखे चुराते हुये नही देखा"
"कर्तव्य ? कौन से कर्तव्य की बात करते हो तुम" वह भड़क उठी "अगर तुम इमानदारी से सत्य लिखने को कर्तव्य मानते हो तो यह तुमने भी देखा है कि जब भी मैं ऐसा करने का प्रयास करती हूँ तो मेरे पैरों में बेड़ियां डालने की मुहिम शुरू हो जाती है और फिर ज्योंहि मेरे क़दम थमने लगते हैं तुम आकर फिर कर्तव्यपरायणता की दुहाई देने लग जाते हो।"
"यह तो तुम भी जानती हो प्रिये" मैने उसे समझाते हुये कहा, "जब भी दुनिया में कोई सत्य को अपनाता है और ईमान की राह पर चलने का प्रण करता है तो उसकी राह में अड़चनें तो आती ही हैं। फिर यह भी तो उचित नही कि सच्चाई से मुंह मोड़ो और जो होता है उसे होने दो"
"जो होता है उसे होने दो" उसने मेरी बात को व्यंग से दुहराते हुये कहा, "क्या तुम नही जानते कि इस दौर में ऐसा ही चाहा जाता है। हां में हां मिलाने की परिपाटी चली हुई है। राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है कि हर कोई चाहता है बस उसके गुण्गान किये जाओ। चमचागीरी और चापलूसी का ढंग अपनाये जाओ। उनके स्याह-सफ़ेद और घपले-घोटाले का हुबहू समर्थन किये जाओ और अगर ऐसा न कर सको तो अंजाम भुगतने के लिये तैयार हो जाओ।"
"तुम्हे इतनी नाकारत्मक सोच नही रखनी चाहिये" मैं लगभग खीजते हुये बोला, "बल्कि तुम्हे तो हमेशा रचनात्मक धर्म निभाते हुये लिखने से कभी मुंह नही मोड़ना चाहिये।"
"क्या लिखूं मैं?" वह भी खीजते हुये बोली, "क्या दुनिया में ऐसा कुछ हो रहा है जिसे लिखना चाहिये या जो कुछ हो रहा है वह लिखने के लायक है। एक तरफ़ तो तुम्हारे भाई बन्द लगातार तरक्क़ी की मंज़िलें तय करते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ वो इन्सानी क़द्रो क़ीमत के मामले में रसातल में जा रहें हैं। उनका ख़ून सफ़ेद हो चुका है। रिश्तों में दरारें हैं तो प्रेम की जगह नफ़रत ने ले ली है। धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और मुहब्ब्त को मतलबपरस्ती ने घेर रखा है। इतना कुछ तुम्हारी दुनिया में हो रहा है और तुम मुझसे कहते हो कि मैं लिखूं। बताओ क्या लिखूं मैं?"
"नही... नही...हालात इतने भी बुरे नही हैं।" मैंने फिर कहा, "तुम्हे भला कौन रोक सकता है कुछ भी कहने से। तुम मानवता की एक निरपक्ष, निडर, कर्मठ और आज़ाद योद्धा हो।"
"आज़ाद...? आज़ाद हूं मैं?" वह फिर भड़्की, "किस आज़ादी की बात करते हो? मेरी आज़ादी देखना चाहते हो तो जाओ तालीबानों, तानाशाहों, और पूंजीपतियों की दुनिया में, जहाँ मेरी बहनों के हाथ सिर्फ़ इसलिये काट दिये जाते हैं कि मुझे हाथ में लेकर वो अपना जीवन न सवांर सकें, आज़ादी की खुली हवा में सांस न ले सकें। वहाँ जाकर तुम्हें पता चलेगा कि मैं कितनी स्वतंत्र हूँ। वहाँ जब भी मैं चलती हूँ तलवार मेरी गर्दन पर होती है। वो जैसा चाहते हैं मुझे नचाते हैं और तुम कहते हो कि मैं आज़ाद हूँ।"
"मैं मानता हूँ कि विश्व के कुछ हिस्सों में तुमपर ज़ुल्म होता है।" मैंने दबी आवाज़ में कहा, "तुम्हारी चाल को तलवार की धार दिखा कर बदला जाता है परन्तु इस ग़ुलाम मानसिकता के बाहर तो आना ही होगा। भय त्यागना ही होगा वर्ना लोगों का भला क्योंकर हो पायेगा।"
"किन लोगों के भले की बात करते हो वो जो आज तक नही सुधरे।" वह एक बार फिर चिहुंकी, "जिन लोगों की बात तुम करते हो उनको सुधारने के लिये मैं ईमानदारी के साथ सदियों तक दौड़ी हूँ। क्या कुछ न लिखा मैंने तुम्हारे कहने पर। सुन्दर से सुन्दर शब्दों में पिरोकर तुम्हारे विचारों को मैंने इन लोगों के सामने रखा है।कभी रहबरों के साथ, कभी शायरों कवियों और लेखकों के साथ मिलकर इन्हें राह बताई मगर ये आज तक न सुधरे। आज भी वही अंधविश्वास, वही अनपढ़ता, वही ज़ाहिलपन फैला है जो सदियों पहले फैला था। अपने आपको शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी मैंने गंवार और मजहबी जुनून से भरे देखा है। इन्सानियत को यूं मरते देखकर मेरे दिल की जो हालत होती है उसे तुम क्या जानो।" वह एकदम रोआंसी हो उठी।
"देखो दिल छोटा न करो "मैंने उसे दिलासा देते हुये कहा, "कभी पाँच उंगलियां भी बराबर होती हैं भला, परन्तु हर उंगली के महत्व से भी इन्कार तो नही किया जा सकता है। तुम अपना काम किये जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो। वैसे भी, ईश्वर ने ही तो तुम्हारा ये कर्तव्य निश्चित किया है कि जब तक दुनिया में इल्म का पूर्ण प्रकाश न फैल जाये, एक एक इन्सान शिक्षत और समझदार न हो जाये तुम्हे तो चलते ही जाना है क्योंकि चलना ही तेरी नियति है, चलना ही तेरा नियम है और चलना ही तेरा धर्म है।"
क़लम को अब कोई जवाब न सूझा। हालांकि उसके चेहरे पर अभी भी असंतुष्टि के भाव थे पर वह बोली कुछ नही।
"और सुनो" मैंने आगे कहा, "जीवन सिर्फ़ अपने लिये नही होता। अगर तुम्हारी तरह शेक्सपियर, गेटे, टाल्स्टाय, प्रेमचन्द, बच्चन, निराला और गुप्त भी सोचते तो साहित्य जगत युं न मालामाल होता और मानवता कबकी समाप्त हो चुकी होती। और रही बात आज़ादी की तो आज़ादी कोई बाहर ढूंढने की चीज़ नही, वह तुम्हारे अपने अंदर होती है। तुम्हारे मन, विचार कितने शुद्ध और स्वतंत्र हैं उसी का महत्व होता है। अंत में वही बात फिर एक बार मैं कहूंगा कि कर्म करते जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो।"
अब मुझे वह कुछ संतुष्ट व निरुत्तर नज़र आने लगी थी।

Thursday, January 15, 2009

कुछ पता नही चला

कब हुआ हादसा कुछ पता नही चला
दिल था या जुनून कुछ पता नही चला

मुहब्ब्त की बातें प्यार के हसीन पल
आये भी गये भी कुछ पता नही चला

शौक़ था हमें भी उनके दिल में रहने का
फिर क्यों हुये जुदा कुछ पता नही चला

भोली सूरत भोली आंखे भोला सा अंदाज़
क़त्ल कब हुआ मेरा कुछ पता नही चला

इश्क़े बादल बिन बरसे ही गुज़र गया
किसने की बेवफ़ाई कुछ पता नही चला

बदली आंखे तो बदल गया हर मौसम
क्यों बदला मेरा यार कुछ पता नही चला

कितने ही सवाल मेरी नज़रों में थे उठे
क्या था उनका जवाब कुछ पता नही चला

कुछ युं सहा हमने तीरे बेरुख़ी उनका
टपका है ख़ूने जिगर कुछ पता नही चला

कभी पागल, कभी दीवाना कहा निर्मल को
कौन था गुनाहगार कुछ पता नही चला

बेवजह किसी को

बेवजह किसी को जलाना नही
जो जलता है उसे बुझाना नही

बिन बुलाये क़रीब जाना नही
जो आना न चाहे उसे बुलाना नही

लम्बी रेस अगर दौड़नी है तो
छोटी से कभी घबराना नही

सहज रहने की आदत डालो
बेसब्र होके कुछ गंवाना नही

अपने दिल की ही सुनो फ़कत
इधर उधर युं ही जाना नही

मुश्किलें कहाँ नही होती निर्मल
उनके डर से भाग जाना नही

तकनीकी विद्या

ख़त्म हुआ है दौर ख़तों का
चला दौर अब ई-मेलों का
लगता नही पता ज़रा भी इन
भ्रमित अन्तर्जाली खेलों का

क्या-क्या हासिल नही है भाई
अन्तर्जाल की माया नगरी में
यूं लगता है सचमुच जैसे
हो भरा समन्दर गगरी में

जो तुम चाहो उसको लेने
बेहिचक अन्तर्जाल पे जाओ
कहीं न जाना, कहीं न आना
बैठे-बैठे शापिंग कर जाओ

नही ज़रूरत किसी दोस्त की
न ही ज़रूरत बैठकबाज़ी की
चाहिये केवल इक कम्प्यूटर
अपेक्षा नही कबूतरबाज़ी की

अगर बड़ों की अपनी है तो
छोटों की अपनी है साईट
हर उम्र को मिलती पूरी ख़ुशी
है जो सबका अपना राईट

तकनीकी विद्या की जीवन में
होती एक विशेष महत्ता
नेत्र तीसरा है ये कहलाती
पास है जिसके, उसकी सत्ता

सीख लो तुम भी जल्द इसे
वर्ना देर बहुत हो जायेगी
रह जाओगे तुम पीछे और
दुनिया आगे बढ़ जायेगी...

Wednesday, January 14, 2009

रिश्ते जो रिस ते हैं

रिश्ते
जो रिस ते हैं
दर्द की इन्तहा से होकर
पल-पल गुज़रते हैं,
नीर बनके नयनों से
जब-तब निकलते हैं,
जीवन की धड़कनों में
घुन जैसे बसते हैं
रिश्ते
जो रिस ते हैं...

रिश्ते
जो रिस ते हैं
आकाश की देन हों
या पृथ्वी का उपहार,
जाने क्यों करते हैं
मन की दुनिया का संहार,
न जोड़े जाते हैं
न तोड़े जाते हैं,
न बताये जाते हैं
न छुपाये जाते हैं,
सम्बन्धों की चक्की में
हरदम पिसते हैं,
रिश्ते
जो रिस ते हैं...

रिश्ते
जो रिस ते हैं
उन पर
मुस्कानों का
लेप किया जाता है,
समय की औषधि से
उपचार किया जाता है,
समझौतों का
अमृत चखाया जाता है,
अनगिनत
प्रार्थनाओं का
अर्घ चढ़ाया जाता है,
मगर
बावले हैं वो
बमुश्किल ही
संभलते हैं,
रिश्ते
जो
रिस ते हैं...

दर्द

दे जितना भी दर्द मुझको दे रहा है तू
दे मगर शिद्दत से जो भी दे रहा है तू
इन्कार न करेंगे कभी लब ये मेरे
दिये जा बेख़ौफ़ होकर जो दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

तन्हाई दे दे ढेर सारी सी तड़प दे दे
रुसवाई दे दे दिल को इंतहा कसक दे दे
आंसुओं के सिलसिले न टूटे कभी मेरे
रंजो ग़म के इस क़दर तू सबक़ दे दे
न मिले हैं वो, न ही मिलने की है सूरत कोई
ख़्वाब जिनके आज भी जो दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

रातों को गिनूं तारे, दिन को न क़रार मिले
रहूँ तन्हा, किसी का न मुझको प्यार मिले
हर तमन्ना नाकाम होके रह जाये मेरी
ख़िज़ां ही ख़िज़ां हो ज़रा सी भी न बहार मिले
मंज़िल क्या मिलेगी उस तरफ़ अब मुझे
जिस तरफ़ का पता मुझको दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द.....

हक़ दिया इन्साफ़ करने का था जिनको
हौसला अन्याय का क्यों मिल गया उनको
मेरा क्या, मैं तो सह लूंगा ये ज़ुल्म सारे
वक्त की शमशीर का क्या डर नही उनको
इस हवा का रुख़ तो बदल जायेगा मगर
शह नाइन्साफ़ी को, जाने क्यों दे रहा है तू
दे जितना भी दर्द मुझको दे रहा है तू
दे मगर शिद्दत से जो भी दे रहा है तू.....

Tuesday, January 13, 2009

चिराग़े मुहब्ब्त

आपने अगर युं न मुस्कुराया होता
रेत का महल हमने न बनाया होता

दिल की वादियों में गीत न गूंजे होते
हर घड़ी आपको न गुनगुनाया होता

आंखों में नींद अब युं न चुभती अपनी
इनमें ख़्वाबों को गर न बसाया होता

दिल की कली सूख न जाती इस तरह
उम्मीद का कमल न मुरझाया होता

दुनिया निर्मल की रहती रौशन सदा
चिराग़े मुहब्ब्त जो न बुझाया होता

पहचान

एक तरफ़ है दिल मेरा
और एक तरफ़ है जान
तू ही अब बतला मुझको
मैं जाऊँ किधर भगवान

फ़िक्र जान की यदि करूँ मैं
दिल मेरा है डूबने लगता
दिल की सुनने जब हूँ जाता
तो मुश्किल में होती जान

दोराहे पर खड़े खड़े ही
वक्त निकल गया सारा
आर हुआ न पार हुआ
बस मैं रहा सदा नादान

जाल बिछा जब समझौतों का
खो गया भीड़ में चेहरा
जग सारा संतुष्ट रहा पर
दिल ने कहा मुझे बेईमान

मुक्त अवस्था को मन तरसे
निर्वाण की चाह पले पल पल
किन्तु झमेले जग के बोलें
तेरी राह नही आसान

नन्ही सी इक बूंद है पूछे
अब तुमसे समुद्र विशाल
जीती क्यों मैं रो रो कर
क्यों खो गई है पहचान

Sunday, January 11, 2009

वक़्त के माथे पे

वक़्त के माथे पे हम शिकन देखते हैं
अपने पैरों में जब भी थकन देखते हैं

डूब चला ये सूरज भी अब हौले हौले
उठती सीने में एक चुभन देखते हैं

उठाये हैं जब से मजहबों ने ख़ंज़र
ख़ौफ़ से भरे दीवार ओ सहन देखते हैं

मुद्दत हुई देखा था फूलों को हंसते हुये
अब तो उजड़ा हुआ चमन देखते हैं

किसको दें भला पैग़ामे उल्फ़त अब
दुश्मनी में डूबा हर ज़ेहन देखते हैं

बदलेगा कभी तो ये बिगड़ा निज़ाम
हौसले की नई एक लगन देखते हैं

मौत आती नही निर्मल को किसी दम
गो ज़हर से भरा उसका बदन देखते हैं

Saturday, January 10, 2009

नज़र आती नही

नज़र आती नही कोई सूरत दिल को बहलाने की
रात है दियों की मगर उम्मीद नही जगमगाने की

बुझ गया था जो दिया इन तेज़ हवाओं के असर से
बेमुरव्व्त जहां ने उसे कोशिश न करी फिर जलाने की

एक और था बिचारा जो जलता ही रहा कहीं तन्हा तन्हा
रोशनी उसकी तो भी चुभती रही आंखों में ज़माने की

जिस दिये में हुआ ख़त्म कभी तेल कभी बाती न रही
लुटी लुटी सी रही दुनिया सदा उसके आशियाने की

उसकी रोशन निगाह से ही कट गया सफ़र तमाम
वर्ना बुझ ही जाती शमा निर्मल के ग़रीबख़ाने की

Tuesday, January 6, 2009

अजगर

फोन की घंटी बजी, उसने फोन उठाकर कान से लगाया ही था कि हैलो के बाद मशीन फिर से अपनी रटी रटाई आवाज़ में वही संदेश दुहराने लगी। वह परेशान हो उठा। उसकी समझ में नही आ रहा था कि वह इस समस्या से कैसे निपटे। इस तरह के फोन आने का रोज़ का ही सिलसिला हो गया था बल्कि दिन में तरह तरह के नम्बरों से कई-कई बार ऐसे ही फोन आते थे। कई बार तो थक हार कर वह इस तरह के फोन उठाता ही नही था पर कई बार वह उठाकर फंस जाता था।
करीब पांच साल पहले वह कनाडा आया था। जब वह आया था तो वह बड़े जोश व ख़रोश से भरपूर था। ढेरों ही स्वप्न उसकी आंखों में बसे थे। अपने और अपने परिवार का भविष्य संवारने की उम्मीदें वह अपने मन में संजोये था। परन्तु यहाँ आकर उसे बेहद तलाश करने के बावजूद भी अपनी लाईन का काम नही मिला। वह थोड़ा हताश ज़रूर हुआ फिर भी उसने हिम्मत न हारी और मेहनत करनी आरम्भ की। उसे अपनी लाईन का काम न भी मिला तो भी उसने जो भी काम मिला, करना शुरू किया। डेढ़ साल के अन्दर ही उसने अपने परिवार को भी अपने पास बुला लिया, परन्तु यहीं से उसकी परेशानियों का भी दौर शुरू हुआ। पत्नी ने काम तो किया परन्तु दो बच्चों की पढ़ाई का बोझ भी बढ़ गया था। किसी तरह हिम्मत करके एक छोटा सा घर ले लिया गया पर उससे भी खर्चे और बढ़ गये थे। पीछे भारत में उसके माता पिता व एक कुंवारी बहन रह रहे थे। बहन की शादी का बोझ भी उस पर आ पड़ा। पिताजी को कई बार पैसे भेजने पड़े। इसी दौरान दुनिया में मंदी का दौर शुरू हो चला जिससे उसकी नौकरी जाती रही। धीरे धीरे जब उसकी सारी जमा पूंजी समाप्त हुई तो उसने अपनी क्रेडिट लाईन का इस्तेमाल करना शुरू किया परन्तु वह भी जल्द ही समाप्त हो गई। इस तरह क़र्ज़ का अजगर दिनोंदिन क्रेडिट लाईन, क्रेडिट कार्ड सब कुछ निग़लता चला गया। बच्चे छोटे होने की वजह से साथ नही दे पा रहे थे। पत्नी भी इन परेशानियों के कारण चिड़चिड़ी सी रहने लगी थी। क़र्ज़ के बोझ तले दबे दबे जब भी उसको इसकी वसूली के फोन आते तो वह परेशान हो उठता था। फोन का सिलसिला रुकने का नाम ही नही लेता था। जो नौकरी उसे फिर से मिली थी उससे दो जून की रोटी ही पूरी हो पाती थी। ऐसे में वह क़र्ज़ वापस करे भी तो कैसे!
फोन वापस अपनी जगह रखकर चिन्ता के सागर में डूबा हुआ वह सोफ़े में धँस गया। अपने जीवन में पैसा उधार लेने से उसने हमेशा ग़ुरेज़ किया था और यदि कभी लिया भी था तो धन्यवाद सहित वापस कर दिया था। भारत में अपनी बैंक की नौकरी के दौरान उसने कभी पैसे की कमी महसूस नही की। कर्ज़ को वह बहुत बड़ी लानत मानता था। उधार लेकर वापस न करने को वह बड़ी बेइज्ज़ती समझता था। परन्तु अब वह क्या करे? कोई चारा नही, कर्ज़ के अजगर का मुंह किस तरह भरे। सब कुछ देकर भी वह इस दलदल से निकल नही पायेगा, यह वह अच्छी तरह जानता है। स्वयं को दीवालिया घोषित करने के अलावा और वह करे भी तो क्या करे? इसी उधेड़बुन में डूबते उतराते वह फिरसे फोन के पास आया और बैंकरप्सी में मदद करने वाले अहमद मलिक का नम्बर डायल करने लगा।

Sunday, January 4, 2009

मैं मुम्ब‍ई हूँ

मैं मुम्ब‍ई हूँ (मुम्बई हमले से प्रभावित)

खुशियों का समुन्दर मेरा हुआ दर्द में तब्दील
किसको दिखाऊँ अब मैं ग़म की फ़ेहरिस्त तवील
ज़र्रा ज़र्रा हुआ है घायल रेशा रेशा है ग़मगीन
चप्पे चप्पे आग बरसती आँसू बन गये झील
हब्स के घेरे में घिरके मैं आज बनी तमाशई हूँ
मैं मुम्ब‍ई हूँ , मैं मुम्ब‍ई हूँ , मैं मुम्ब‍ई हूँ

अपने ही जिगर के टुकड़ों को आज बिछ्ड़ते देखा
अपने ही सीने पर दुश्मन को बारूद उग़लते देख
खूं से रंगा है जिस्म मेरा हुआ है छ्लनी दिल मेरा
बग़ैर क़फ़न के बेटों को क़ब्रों में उतरते देखा
दर्द की कितनी ही तहों से मैं आज गुज़र गई हूँ
मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ


मुझको हिस्सों हिस्सों में, ओ ज़ालिम, काटने वालों
अनगिनत टुकडों में मुझे तुम आज बांटने वालों
मेरी आंखों का नूर मेरे दिल का सुरूर छीनने वालों
मतलब की ख़ातिर तलवे विदेशों के चाटने वालों
जान लो सब, उजड़ के दोबारा हर बार ही मैं बस गई हूँ
मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ

बेगुनाहों का लहू जब सर चढ़के तुम्हारे बोलेगा
याद रहे तुम्हारी माँओं का कलेजा भी उस दिन डोलेगा
अर्श से बरसेंगे जब इंतक़ाम के गहरे बादल
हर जुर्म तुम्हारा, वक़्त अपनी तराजू में तोलेगा
कल चलूंगी रफ़्तार से अपनी आज सिमट गई हूँ
मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ

ये उजड़े हुये ढाँचे तो फिर से खड़े हो जायेंगे
दिल पे लगे घाव मगर एक दिन रंग तो लायेंगे
क़त्ल को जायज़ और क़ातिल को पनाह देने वाले
रब की अदालत से भी बच न कभी वो पायेंगे
जान लो सब, न मैं न्यूयार्क, न मैं लंदन, न ही मैं शंघाई हूँ
मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ, मैं मुम्बई हूँ.....

मर्दानगी

मर्दानगी
उनकी मर्दानगी के क़िस्से गली गली आम हो रहे हैं
लहू बेगुनाहों का जो बहाया चर्चे सरे आम हो रहे हैं


जाने कौन सा फ़ितूर है उनमें किसने भरा जुनून है उनमें
नाम पर ख़ुदा के जो यहां हर घड़ी क़त्ले आम हो रहे हैं

तिस पर भी ख़ुद को कभी गुनाहगार नहीं माना उन्होने
गले में लटके हैं गुनाह के पट्टे और बदनाम हो रहे हैं

किस तरह के बहादुर हैं वो, कौन सी मंज़िल के राही हैं वो
मुश्किल है समझना कि क्यों वो हौले हौले तमाम हो रहे हैं

मर्दों में बैठना सीखें कहां से, ये सलीका हम लायें कहां से
क़ाबलियत थी जिनमें ये निर्मल सबके सब नाकाम हो रहे हैं
नया साल

समय ने चोला बदला है
उषा ने रंग गुलाबी घोला है
दिनकर की किरणों पे चल
संदेश नया इक आया है
मन की भावुकता ने फिर
गीत वही दुहराया है
हर दिल में अब
आशाओं के दीप जगें,
फिर से न कहीं भी
नफ़रत के कोई ख़ार चुभें
हालांकि, थका है, व्यथित है
पिछ्ला चरण हमारा,
तो भी उल्लासित हो, संयत हो
उतना ही अगला चरण हमारा,
बर्फ़ीले मौसम ने भी
आज हमें सिखलाया है
सुन्दर उज्जवल दाग़रहित जीवन हो
तो ही रोशन जग हो पाया है