Tuesday, December 29, 2009

नव वर्ष की बधाई हो

नव वर्ष की सबों को
बधाई हो बधाई,
सुहानी भोर अपने संग
सूरज आस का है लाई,

बीते पल और
बीती बातें
सुख के दिन या
ग़म की रातें,
पीछे छोड़
सबको अब
चली नई फिर से
पुरवाई

अपने ख़्वाबों के
ख़ुदा से सुन
मांगता क्यों
हर घड़ी हर क्षण,
रास्तों पे
चल के देख
कली दिल की
मुस्कुराई,

तुम बीज प्रेम के
बिखेर दो
दिल पे लिखा ये
संदेश देख लो,
हर पंखुड़ी हसीन
नव धरा पे
खिल रही
है भाई,
नव वर्ष की
बधाई हो
बधाई...

Sunday, December 27, 2009

अचानक

अचानक मेरे दिल को क्या हो गया है
अभी तो यहीं था कहाँ खो गया है

कि बैठा था मैं तो तेरी जुस्तजू में
न जाने ये गुमसुम किधर को गया है

मेरे साथ होता है हरदम यही क्यों
तेरी ओर आऊँ तो ये खो गया है

तेरी आरज़ू अब मेरी ज़िन्दगी है
जहां में भटकते कहाँ खो गया है

तेरे प्यार के गीत हरदम सुनूँ मैं
तेरा नाम अब दिलरुबा हो गया है

ये निर्मल तुम्हारे करम का नतीजा
कि मेरे गुनाहों को कुछ धो गया है

Tuesday, December 22, 2009

अफ़साने मुहब्बत के

मुहब्बत के अफ़साने बनते रहेंगे
दिलों के ये क़िस्से युं चलते रहेंगे

न दिल वाले बदले न बदला ज़माना
ख़िलाफ़त हमेशा ये करते रहेंगे

कोई चाहे कितनी भी ताक़त दिखाये
दिये पर मुहब्बत के जलते रहेंगे

वो जिनके मुक़द्दर में होगी न उल्फ़त
तो समझो कि वो युं ही मरते रहेंगे

मगर जिन दिलों में मुहब्बत की ख़ुशबू
क़दम उनके मंज़िल को उठते रहेंगे

इश्क़ इक प्यारी सी रहमत ख़ुदा की
ये संग हो तो हम आगे बढ़ते रहेंगे

बता दे हमें ज़ुल्म कब तक युं निर्मल
मुहब्बत के दीवाने सहते रहेंगे

Tuesday, December 15, 2009

रहमत ख़ुदा की

ये रहमत ख़ुदा की अगर कम हो जाये
तो समझो ये दुनिया जहन्नम हो जाये

वो चाहे तो हर आग शबनम हो जाये
वे चाहे तो हर रात पूनम हो जाये

रोशन हैं फ़कत सब तन्वीरे ख़ुदा से
वो ना हो तो सब कुछ दर्दे ग़म हो जाये

नज़र उसकी पड़ती हो जब जिसपे सीधी
तो हर ग़म ख़ुशी का तरन्न्म हो जाये

ये पैकर हमारा इनायत उसी की
मुहब्ब्त से उसकी हमीं हम हो जाये

ज़माना ये चलता है चालें अजब सी
मगर जब वो बोले तो सब नम हो जाये

जो उसका नहीं है वो उसका भी दोस्त
जो उसका है उसका वो हमदम हो जाये

तड़पता है निर्मल भी हरदम उसी को
वो फ़ुरकत में उसकी न बेदम हो जाये

Tuesday, December 8, 2009

नया साल

नया साल आने से अब ना टला है
पुराना तो लगभग विदा हो चला है

दिये इसने ग़म चाहे ख़ुशियाँ हों बांटी
न सोचो ये अब हमको क्या-क्या मिला है

जो आने को है उसकी महफ़िल सजायें
जो जाने लगा उससे न कोई गिला है

ये दुनिया करे जो मुहब्बत मुहब्बत
तो फिर समझो नफ़रत न कोई बला है

मिलें हाथ सबके जो आपस में हरदम
इनायत में उसकी नया रंग घुला है

दुआ है यही अब न झगड़ें कभी हम
किया जिसने ऐसा वो फूला फला है

नया दौर सबका अमन से लदा हो
तो अपना भी निर्मल भला ही भला है

Saturday, December 5, 2009

कोहरा

आओ
कि हम
मन से कोहरा
हटायें,
छाया
अंधेरा जो
उसको
मिटायें,

हर बात में
कुछ
नयापन तो
ढूँढें,
हर आँख में
कुछ
अलग सा तो
देखें,
शिखा
प्रेम की युं
हम निरन्तर
जगायें,

सपने हों नये
और
पक्के इरादे,
रिश्तों की
हों न कभी
कच्ची बुनियादें,
ले हाथों में
हाथ
ज़ंजीर इक
बनायें,

माना कि मन पे
होते
कुठाराघात,
लगाते हैं
जब सब
घातों पे घात,
ज़रा-ज़रा फिर
क्यों न
दिल को
सहलायें,

महकता रहे
ख़ुशबू से
सारा चमन,
धरती ही
नहीं केवल
महके
वो गगन,
फिर तो
ये दुनिया
जन्नत ही
बन जाये

आओ
कि हम
मन से कोहरा
हटायें,
छाया
अंधेरा जो
उसको
मिटायें...

Thursday, December 3, 2009

मेरे हिस्से का आस्मान

इस
ब्रहमाण्ड का
हर जीव
हिस्सेदार है,
क़ायनात के
पूर्ण फैलाव का
हर कोई
हक़दार है,
हाथ की रेखायें
चाहे कुछ भी
कहती हों,
क़दमों तले
ज़मीन
चाहे खिसकती
या फिसलती हो,
वक़्त का तकाज़ा है
कि मुझको
मेरे हिस्से का
आस्मान चाहिये,
फूलों खिला हो
या काँटों भरा
मुझको बस
अपना
ग़ुलिस्तान चाहिये...

Sunday, November 15, 2009

दुनिया है ये फ़ानी

दुनिया है ये फ़ानी तो क्या
ग़म की एक कहानी तो क्या

मंज़िल फिर भी पा ही लेंगे
आज अगर परेशानी तो क्या

वक़्त को क़ाबू भी कर लेंगे
करता वो मनमानी तो क्या

होंठ न छोड़ें हँसना गाना
आँखों में है पानी, तो क्या

मरना जीना रुक न पाता
करते आना कानी तो क्या

लम्हा लम्हा सहमा सहमा
छाई है वीरानी, तो क्या

महकेगा अपना भी गुलशन
पतझड़ है तूफ़ानी तो क्या

बातें उसकी अच्छी होतीं
हैं थोड़ी दीवानी तो क्या

इश्क़ ने किसको बख़्शा निर्मल
तुझ पर नज़रें तानी तो क्या

Sunday, November 8, 2009

भूल कर भी

भूल कर भी अब कभी वो
भूलती मुझको नहीं वो

दिल के अंदर है बसी वो
दूर जाती ही नहीं वो

नाम उसका जब सुनूं मैं
चैन ले जाती तभी वो

साथ रहना, साथ चलना
याद है बातें सभी वो

दिल मेरा तो बैठ जाता
मिल है जाती जब कभी वो

होश मुझको तब नहीं थी
जब मुहब्बत में खुली वो

टूट कर तब रह गया था
छोड़ मुझको जब चली वो

जान थी वो ज़िन्दगी थी
पास जब तक है रही वो

या ख़ुदा ये सिलसिला कर
साथ हो फिर हर घड़ी वो

किस बला ने वो बदल दी
थी मुहब्बत से भरी वो

यार निर्मल मान ले अब
है बुरी इतनी नहीं वो

Saturday, October 31, 2009

जलता दिया

जलता दिया
जलाये जिया
पास नहीं जब
होते पिया
जलता दिया...

दीवाली की
रौनक
करे मन को
बेकल,
कैसे
सँभालूं मैं
उठती जो
हलचल,
देखूँ ये
जगमग
तो
तड़पे हिया
जलता दिया...

चमकीली
लड़ियों ने
है जादू बिखेरा
विरह की
घड़ियों ने मगर
मुझको घेरा,
अन्गारों सी
पल-पल
जले है
उमरिया
जलता दिया...

पूछे है
मुझसे ये
अनारों का मौसम
ऐसे में
होते क्यों
परदेसी हमदम,
फुलझरियाँ
क्या जाने
जो
मैने जिया
जलता दिया

Sunday, October 25, 2009

वहां से आने के बाद

इस तरह से कटी ज़िन्दगी वहां से आने के बाद
हर क़दम पे बढ़ी तशनगी वहां से आने के बाद

प्यार-नफ़रत, मुहब्बत-अदावत, वफ़ा-बेवफ़ाई
रिश्तों में बस रही टूटती वहां से आने के बाद

बात कुछ और थी वो शहर तेरे की मेरे यार
फिर न पाई कभी वो ख़ुशी वहां से आने के बाद

छोड़ कर घर तेरा, हम भटकते रहे दर-बदर
कोई तुझसा न मिला हमनशीं वहां से आने के बाद

जो मिले थे मुझे मशवरे मेरे चलने से पहले
भूल मैं सब गया वो तभी वहां से आने के बाद

डूब के रह गया आफ़ताबे हस्ती मिरा इक पल में
खो गई भीड़ में रोशनी वहां से आने के बाद

दिल मेरा अब कभी उस तरफ़ जाने का नाम न ले
उड़ गई वो मेरी सादगी वहां से आने के बाद

हैं सितमगर बहुत, हादसे ज़िन्दगी के निर्मल
हो न पाती कभी बन्दगी वहां से आने के बाद

Tuesday, October 20, 2009

ओ मेरे वैरागी-मन

ओ मेरे वैरागी मन

भूल गया तू हँसना-गाना
विसर गया सब आना-जाना
किस चिन्ता में रहता डूबा
कैसा है ये बावरापन
ओ मेरे वैरागी-मन

पीढ़ी से पीढ़ी तक भटका
इधर कभी तो उधर है अटका
उस पार कभी तू जा न सका
बीच अधर ही रहा तू लटका

कर न सका तू वश में उसको
श्रद्धा के दे चन्द सुमन
ओ मेरे वैरागी-मन

लिप्त रहा बस अपनेपन में
निर्लिप्त हुआ न किसी भी क्षण में
लेकर अपने कर में माला
झांका केवल दूसरे मन में

रही कामना लेने की ही
फिर भी रहा तू निर्धन
ओ मेरे वैरागी-मन

यह कैसा वैराग रचाया
जिसको समझ कभी न पाया
क्यों न बना तू निश्छल दरिया
क्यों न प्रेममार्ग अपनाया

बाँट दे अपने प्रेम की ख़ुशबू
बन के अब भी मस्त पवन
ओ मेरे वैरागी-मन

Wednesday, October 14, 2009

दीवाली

(दीवाली की अनेकों-अनेक शुभकामनाओं सहित)


दीयों की
बारात सजी है
झूमे सब-के-सब
घर-बार,
बाद बरस के
आया देखो
ये पावन
त्योहार,

ख़ुशियों की
फुलझरियाँ छूटें
मन में आस के
लड्डू फूटें,
आस्मान तक
हुआ है रोशन
ग़म न बचा अब
किसी भी तन-मन,
जगमग जगमग
होने लग गया
ये सारा
संसार

उपहारों ने
ज़ोर है पकड़ा
मुस्कानों का
रंग है गहरा,
रूठे थे जो
मान चले हैं
झगड़े थे जो
गले मिले हैं,
दीप जगे हैं
नयनों में और
दिल में चले
अनार

भीनी-भीनी
ख़ुशबू महकी
रंग-बिरंगी
लड़ियां लटकीं,
धूम-धड़क्का
होती जाती
आतिशबाज़ी
चढ़ती जाती,
नई-नवेली
दुल्हन सा फिर
सज गया
रूप-सिंगार

त्योहारों का
आता मौसम
सुख अपने संग
लाता मौसम,
कैसा भी बनवास
हो यारा
ख़त्म हो जाये
इक दिन सारा,
हुआ उजाला
दिल-दिल में
अब गिरने लगी
दीवार
बाद बरस के
आया देखो
ये पावन
त्योहार...

Thursday, October 8, 2009

दीवानगी

लिख लेता हूँ
ख़ुद ही पढ़ लेता हूँ
गा लेता हूँ
खुद ही सुन लेता हूँ
दीवारों से बातें करता हूँ
तस्वीरों में खोजा करता हूँ
ख़्वाबों के महल
बनाता हूँ
तन्हाई में आवाज़
लगाता हूँ
यह दिल हरदम
तुझको ही
ढूँढा करता है
कोई भी बात चले
ज़िक्र तेरा ही
करता है
दीवाना है न...
दीवानों को
होश कहाँ रहती है
इश्क़ के मारों को
बस
इक लगन
लगी रहती है

Wednesday, September 30, 2009

बिखरा पड़ा है

कल तक था जो
सिमटा-सिमटा
आज वो सब-कुछ
बिखरा पड़ा है,
लगता था जो
अपना-अपना
जग सारा वो
बिखरा पड़ा है,

सूरज से अब
किरनें रूठीं
दिखती चाँद में
नहीं चाँदनी
सावन से बरखा
है भागी
छोड़ गई गीतों
को रागिनी,
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें
जोश बड़ा है,

घर शासक के
मिले न शासन
वहाँ तो रहता
अब दु:शासन
सभी उड़ाते हैं
बेपर की
कौन बचाये
देश का दामन,
मत भूलें वो
जन-मानस में
आज भी गांधी
ज़िन्दा खड़ा है,

फोन की घंटी
रेल का गर्जन
शाम-सवेरे
भागता यौवन
लैपटॉप है पास
में फिर भी
लायें कहाँ से
फ़ुरसत के क्षण
ऐसे में अब
कौन ये सोचे
जीवन प्यारा
शहद-घड़ा है

Tuesday, September 22, 2009

आई है वो

पुलाड़ के कंधों पे
चढ़ कर
समय की सीढ़ियां
उतर कर,
जीवन का व्योपार
करने,
मुस्कुराती
आई है
वो

मौलिकता अपनी
छोड़ कर
शरीर की हदों में
सिमट कर
कर्मों का भुगतान
करने,
गुनगुनाती
आई है
वो

अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष
बन
दॄश्य औ दॄष्टा
दोनों बन
पदार्थ व यथार्थ को
सम करने,
झिलमिलाती
आई है
वो

जगत की हलचल
से अपरिचित
प्रभु के रंग-गुण
से सुसज्जित
मिला निर्देश
पूरा करने,
चहचहाती
आई है
वो

प्रेम के हिंडोले
झूलती
बोली चेतना की
बोलती
चिन्तन की लड़ी
से जुड़ने,
जगमगाती
आई है
वो

चुनने के सब
अधिकार लिये
शक्तियों से भरे
भंडार लिये
विश्व में नया कुछ
कर गुज़रने,
खिलखिलाती
आई है
वो

Tuesday, September 15, 2009

वक्त की रफ़्तार

युं उड़ा दिन कि कुछ भी न हमको ख़बर हुई
कब ढली रात, फिर कब न जाने सहर हुई

इस वक्त की तेग़ पे चलते-चलते जाने कब
लड़खड़ाने लगे हम, धुँधली ये नज़र हुई

जो ये रफ़्तार देखी वक्त की तो युं लगा
ज़िन्दगी क्या हुई, समन्दर की लहर हुई

जब करी हमने कोशिश आगे कुछ निकलने की
हर घड़ी हमसे टकराई, हर शय ज़हर हुई

जुस्तुजू में ख़ुशी की इधर से उधर हुये
क्या गिला अब करें, अब तो अपनी उमर हुई

हौसला जब किया थामने का इसे कभी
ग़म बढ़ा इस क़दर ज़िन्दगी मुख़्तसर हुई

कट तो फिर भी गया ये मगर काट भी गया
अजनबी ही रहा हमसे कोई न मेहर हुई

वो जो गुज़रा तेरे साथ कुछ बस युं समझ लो
इक वही दास्तां ज़िन्दगी की अमर हुई

लिख न निर्मल सका गीत उम्दा कभी कोई
और न तो ठीक उससे ग़ज़ल की बहर हुई

Tuesday, September 8, 2009

रुक जाता हूँ

रुक जाता हूँ, चल पड़ता हूँ
आग लगे तो जल पड़ता हूँ

पानी जैसी प्रीत निभाऊँ
प्यार मिले तो गल पड़ता हूँ

जिसको चाहूँ शाम-सवेरे
मिल जाये तो खिल पड़ता हूँ

दुश्मन-दोस्त गहरा रिश्ता
दिल टूटे तो हिल पड़ता हूँ

पत्थर जैसा बनना मुश्किल
दिल माने तो घुल पड़ता हूँ

ऊँचा उड़ना चाहूँ भी तो
पर कट जाये हिल पड़ता हूँ

देखा है कब नया-पुराना
हर साँचे में ढल पड़ता हूँ

रुक न पाऊँ देर तलक मैं
निर्मल के संग चल पड़ता हूँ

Friday, September 4, 2009

देखना हो तो

देखना हो तो खुली आँख से देखना
बन्द आँखों से वो क्या नज़र आयेगा

ग़ौर से देखोगे अपने अंदर जो तुम
मुस्कुराता हुआ वो नज़र आयेगा

ख़्वाब होंगे तेरे जिस क़दर बेकराँ
उस क़दर ही वो तुझमें उभर आयेगा

ज़िन्दगी की डगर टेढ़ी-मेढ़ी तो क्या
चाहोगे तो वो शामो सहर आयेगा

बस यही इक शर्त, दिल बड़ा चाहिये
फिर वो आराम से तेरे घर आयेगा

प्यार को छोड़ बंदिश नहीं कोई भी
प्यार हो तो हर घड़ी हर पहर आयेगा

रास्ते हों कठिन, ये तो भी जान लो
देर कितनी भले हो मगर आयेगा

उठते अब क्यों नहीं हाथ निर्मल तेरे
क्या कहोगे उसे जब नज़र आयेगा

Friday, August 28, 2009

हम जीतेंगे

(भारत की आर्थिक क्रांति को समर्पित)

हम जीतेंगे, हम जीतेंगे
हम जीतेंगे, हम जीतेंगे,

चाहे कितनी दूर हो मंज़िल
चाहे कितनी दूर हो साहिल
चाहे कैसी भी हो ग़र्दिश
चाहे कैसी भी हो मुश्किल
हम न ज़रा भी घबरायेंगे
तूफ़ानों से जा टकरायेंगे
सब लोग देखते रह जायेंगे
हर तरफ़ हमीं हम छा जायेंगे

क़श्ती पार लगा ही देंगे
दुनिया सारी हम जीतेंगे
हम जीतेंगे..

रोज़ नया इतिहास रचेंगे
नये-नये अध्याय लिखेंगे
अभिलाषा के फूल खिलेंगे
कल के सपने आज मिलेंगे
बीते क़िस्से बिसर जायेंगे
रंग उम्मीदों के चमक जायेंगे
अब होंगे पूरे ख़्वाब हमारे
खोये किनारे मिल जायेंगे

स्वर्ग भूमि पर ला छोड़ेंगे
हारी बाज़ी अब जीतेंगे
हम जीतेंगे...

छोड़ दे दुनिया हम से जलना
सीख ले साथ हमारे चलना
चढ़ते सूरज ने न रुकना
ऐसा मौक़ा फिर न मिलना
इक दिन ऐसा भी आयेगा
हर कोई हम पे इतरायेगा
दूर खड़ा जो शर्मायेगा
मन को हमारे न भायेगा

हक़ न पराया हम छीनेंगे
प्यार से सबको हम जीतेंगे
हम जीतेंगे...

दूर हो धर्म-अधर्म का झगड़ा
दूर हो ज़ाति-कुज़ाति का झगड़ा
घिरे कहीं न युद्ध के बादल
लगे कहीं न क़ुदरत का रगड़ा
समय की धारा पलट ही देंगे
दिशा दौड़ की उलट ही देंगे
नहीं चाहिये भीख दया की
अपनी मुश्किल सलट ही लेंगे

दौर नया हम ला ही देंगे
नवयुग में सब हम जीतेंगे
हम जीतेंगे हम जीतेंगे
हम जीतेंगे हम जीतेंगे...

Tuesday, August 11, 2009

सो गये हो कहाँ

जागो कि तुम सो गये हो कहाँ
मालिक मेरे, खो गये हो कहाँ

ऐसी भी क्या रंजिशें हैं तुम्हें
नज़रों से ग़ुम हो गये हो कहाँ

ढूँढा यहाँ से वहाँ तक तुम्हें
घर में नहीं तो गये हो कहाँ

आवाज़ देता तुझे दिल मेरा
तुम तोड़ दिल को गये हो कहाँ

तुमने सुनी क्या नहीं वो सदा
देता जो दिल सो गये हो कहाँ

पल-पल समय है पुकारे तुझे
आओ कि अब खो गये हो कहाँ

युं मुश्किलें क्यों बढ़ाते मेरी
मुझको जगा, सो गये हो कहाँ

Sunday, August 2, 2009

सुख-दुख

मौसम बरसे उपवन में
सुख-दुख बरसे जीवन में
क़ुदरत का ये खेल है सब
क्यों डूबे हम उलझन में
सुख-दुख बरसे.....

चारो ओर हैं फैले अपने
सुख-दुख के ही गीत
दुख की चर्चा होती लेकिन
सुख न किसी का मीत

कहीं सुखों का ढेर, कहीं
दुख ही मन के आंगन में
सुख-दुख बरसे.....

आस-निराश की बांह पकड़
ये जीवन चलता जाये
धूप-छांव के दो रंगों में
पल-पल रंगता जाये

ऊंची-नीची लहरें सब
दर्द उठाये तन-मन में
सुख-दुख बरसे.....

समय ने पैरों से है बांधी
सुख-दुख की पाज़ेब
दुख से फिर घबराना हमको
दे न ज़रा भी ज़ेब

क्षणभंगुर से इस जीवन में
सुख भी होता बंधन में
सुख-दुख बरसे.....

मान लिया कि जग में होती
चन्द ग़मों की मार बुरी
याद हमें वो जब हैं आते
दिल पे चलती एक छुरी

ऐसा न कोई है जिसके
केवल सुख हो दामन में
सुख-दुख बरसे जीवन में

Tuesday, July 28, 2009

कच्चे रिश्तों की दहलीज़ पे

कभी कच्चे रिश्तों की दहलीज़ पे सर झुकाया नहीं करते
बेजान हों जो बुनियादें उन पे कभी घर बसाया नहीं करते

अगर हौसला ही नहीं तड़पने का जिगर में ज़रा भी तो
मुहब्बत की दुनिया में इक क़दम भी फिर बढ़ाया नहीं करते

वो जिनके दिलों में नहीं, तेरे जज़बाते दिल की कोई जगह
यूं बेवजह फिर उन पे अपनी मुहब्बत लुटाया नहीं करते

पिघलने लगे आपके जिस्मों जां भी अगर गर्मिये ग़म से
तो शिद्दत से उतनी, कभी दिल किसी का जलाया नहीं करते

कभी जो किसी ने बख़्शें हों वफ़ा के महकते हुये फूल
वो ख़ुशबू दिले बेरहम से किसी दम मिटाया नहीं करते

हुआ बेख़बर आज निर्मल, उसे जब ये अहसास हो गया कि
मुहब्बत को अपनी, कभी नज़रों से यूं गिराया नहीं करते

Sunday, July 19, 2009

ज़िन्दगी को बहुत ही सहारा होता

ज़िन्दगी को बहुत ही सहारा होता
दोस्त मेरे, तू जो गर हमारा होता

हर तरफ़ फूल ही फूल बिखरे होते
हर तरफ़ ख़ूबसूरत नज़ारा होता

ये वक्त बेवफ़ाई न करता अगर
साथ हमने ये जीवन गुज़ारा होता

आरज़ू की शमा बुझ न जाती युं ही
चमकता मुक़द्दर का सितारा होता

रहते आबाद मेरे दोनों ही जहां
जो तेरी इक नज़र का इशारा होता

साथ तेरा नहीं छोड़ते हम कभी
गर तेरी बेरुख़ी ने न मारा होता

सोचते-सोचते आ गया दूर मैं
काश, तूने मुझे फिर पुकारा होता

तुमने छोड़ा जहाँ, मैं खड़ा हूँ वहीं
तूने मुड़ कर, देखा तो दोबारा होता

डगमगाती न ये कश्तिये ज़िन्दगी
मिल गया मेरे दिल को किनारा होता

जीत कर, हार जाते न हम इस तरह
खेल अपने इश्क़ का न सारा होता

Tuesday, July 14, 2009

कोई नाराज़ है हमसे

कोई नाराज़ है हमसे कि हम कुछ लिखते नहीं
कहाँ से लायें हम अल्फ़ाज़, जब वो मिलते नहीं

दर्द की गर ज़ुबां होती तो देते हम उनको बता
बतायें हम मगर कैसे, ज़ख़्म जो दिखते नहीं

जो पी सकते तो पी जाते, पिघलते इस ग़म को हम
कोशिश तो की बहुत हमने, अश्क़ पर छुपते नहीं

शिकायत तो वो करते हैं, ये हक़ है उनको मगर
गिला जो हमको उनसे है, उसको वो सुनते नहीं

कभी जब याद आता है वो गुज़रा मौसम हमें
तो दिल की वादियों में ज़लज़ले फिर रुकते नहीं

बहुत आसान है इल्ज़ाम औरों के सर देना
इश्क़ में सिलसिले नाराज़गी के चलते नहीं

Sunday, July 12, 2009

ज़िन्दगी इम्तिहान है

ज़िन्दगी इम्तिहान है यारा
फ़लसफ़ों की दुकान है यारा

चाहे कुछ भी ख़रीद कर देखें
ज़ख़्मों के सब निशान है यारा

चुभते हैं हर घड़ी ये रिश्ते बन
दाग़ ये बेज़ुबान है यारा

बातें इसकी अजीब होती है
बस ये कड़वी ज़ुबान है यारा

लोग मिलते बिछड़ते जाते हैं
आते-जाते तुफ़ान है यारा

दिल से जो निकले ठीक होता है
रूह की, दिल ज़ुबान है यारा

हर क़दम हार-जीत होती है
जाने कैसी ये शान है यारा

पांव नीचे ज़मीं तो है, फिर भी
हाथ में आसमान है यारा

पा के खोते कि खो के पाते हैं
कर्मों की आन-बान है यारा

हैं यहाँ अब, तो कल कहाँ होंगे
बदलते आशियान है यारा

करते हो नाज़ इस जिस्म पे तुम
ये तो कच्चा मकान है यारा

पूछना है बेकार निर्मल से
वो, गई दास्तान है यारा

Tuesday, July 7, 2009

दामन में कभी

दामन में कभी फूल कभी ख़ार सजा लेता हूँ
राह में जो मिल जाये, हमराह बना लेता हूँ

चलना फ़ितरत है मेरी, दिन हो कि शब गहरी
सूरज जो साथ न हो, दीपक मैं जला लेता हूँ

खोया जो कहीं कुछ, ग़म उसका पाला नहीं मैंने
मिल जायें जो ख़ुशियाँ, मैं उनको मना लेता हूँ

रहता नहीं क़ाबू में जब, दर्दे दिल ये मेरा
अपनी आँखों में तब, सावन को बुला लेता हूँ

बेकल है आदम की बस्ती का अब हर कोना
कुदरत से तेरी अय रब, लौ मैं लगा लेता हूँ

मुझको मिलता नहीं जब, दोस्त कोई दुनिया में
हाले-दिल अपना, मैं निर्मल को सुना लेता हूँ

Sunday, July 5, 2009

जाने किन बातों की

जाने किन बातों की वो मुझको सज़ा देता है
जब भी मिलता है कभी, इक दर्द जगा देता है

दिल में उठती हैं जो लपटें, सहना है मुश्किल
जो भी देता है, वो शोलों को हवा देता है

ऐसी दुनिया में इतबारे मुहब्ब्त कैसे हो
अपने दिल को जहाँ, अपना दिल ही दग़ा देता है

दिल के दुश्मन को पहचाने तो कैसे आख़िर
अपनी हस्ती वो, सौ पर्दों में छुपा देता है

लड़ना बाहर से तो मुमकिन है क्या करें उसका
घर के अंदर से जो अंदर का पता देता है

जितना जी चाहे तू कर, दिले निर्मल पे सितम
कुछ भी हो जाये पर, दिल है कि दुआ देता है

Tuesday, June 30, 2009

गर्मी के दिन

आते हैं जब गर्मी के दिन
आ जाते तब छुट्टी के दिन
नाचे गायें, धूम मचायें
अच्छे कितने, मस्ती के दिन
आते हैं जब गर्मी के दिन...

दूर पहाड़ों पर जो जायें
कुदरत का सब मज़ा उठायें
ठंडे मौसम में जब घूमें
गर्म हवा फिर भूल ही जायें
क़ुल्फ़ी ठंडी खाने के दिन
आते हैं जब गर्मी के दिन...

जेठ तपे है, आम पके है
सड़कें रो रो कर पिघले हैं
पोंछ पसीना लाल हुआ तन
पीयें बहुत, न प्यास मिटे है
कटती रातें तारे गिन-गिन
आते हैं जब गर्मी के दिन...

आषाढ़ के पीछे हंसता सावन
सर्दी-गर्मी कुदरत का तन
क्यूं घबराये मेरे साथी
सुख-दुख से बनता है जीवन
पंछी प्यासे गाते निश-दिन
आते हैं जब गर्मी के दिन...

आंखों में सूरज है चुभता
तन्हाई में सीना तपता
रिश्ते सारे टूट हैं जाते
साथ बदन के जी है जलता
ऐसे होते मुफ़लिस के दिन
आते हैं जब गर्मी के दिन...

दुनिया में बारूदी गर्मी
हिंसा औ बदले की गर्मी
इन्सा से अब इन्सा लड़ता
गई किधर वो प्यारी गर्मी
कौन भुलाये वैसे दिन
आते हैं जब गर्मी के दिन
आ जाते तब छुट्टी के दिन....

Sunday, June 28, 2009

जायें तो कहाँ जायें

भरा है दिल भरी हैं आँखे, जायें तो कहाँ जायें
न हैं अपने न ही बेगाने, जायें तो कहाँ जायें

कभी जिनके लिये था, हमने छोड़ा ये जहां सारा
नज़र वो अब नहीं हैं आते, जायें तो कहाँ जायें

सिवा अन्धेरे के कुछ भी नहीं है दिल के आंगन में
बची क़िस्मत में तन्हा रातें, जायें तो कहाँ जायें

किसी बाज़ार में मिलता नहीं ये प्यार का तुहफ़ा
बता दे कोई इसको पाने, जायें तो कहाँ जायें

बदल के रख दिया उस बेवफ़ा ने दिल मुहब्बत का
सुनाने दिल के ये अफ़साने, जायें तो कहाँ जायें

कटेंगे किस तरह दिन ज़िन्दगी के अब तेरे निर्मल
ग़मे फ़ुरकत में दिल बहलाने, जायें तो कहाँ जायें

Tuesday, June 16, 2009

यूं चला कारवां ज़िन्दगी का

यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना
कि धूल में लिपटा रहा तन-बदन अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

क़दम-दर-क़दम, शहर-दर-शहर
ख़्वाब-दर-ख़्वाब, लहर-दर-लहर
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

सबकुछ मिला, फिर भी रहा ये गिला
जुस्तजू रही जिसकी वो कभी न मिला,
फ़लक़ पे उड़ती तमन्नाओं ने
ज़मीं पे न डाली नज़र
दिल में घुटती ख्वाहिशों को कभी
मिल सकी न कोई सहर,
ख़ूबसूरत किसी दिल में कभी
घर-बार न बन सका अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

चलते रहे,
नाकाम हसरतों की उठाये सलीब
न ही कोई दूर था हमसे
और न ही कोई बहुत क़रीब,
रुकती-रुकती सी अब
रुकने लगी है सांस
अब न ज़िन्दा है कोई उम्मीद
और न ही बची कोई आस,
रहा दर-बदर का मुहताज
ये प्यारा सा नसीबा अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

कोई कुछ क़दम आगे
तो कोई कुछ क़दम पीछे चला,
साथ-साथ तो मगर कोई-कोई ही चला
और दिल के बराबर तो कोई भी न चला,
अपने क़दमों की लड़खड़ाहट
अपनी ही करनी का नतीजा बनी
उलझनें रहीं इतनी कि ज़िन्दगी
हर गाम पे इक मरहला बनी,
जिसका न था जवाब
क्यों ज़ुबां से निकलता रहा
बार-बार वो सवाल अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

मतलब को समझा है इश्क़
लगाव को समझ बैठा प्रेम
मोह को बसाये रखा दिल में फ़कत
ग़ुरूर ही रहा सदा ज़िन्दगी का नेम,
जो बुना वो ही पहना
जो चुना वो ही पड़ा सहना
है मुश्किल बहुत मगर यूं
अपने ही घर में अजनबी सा रहना,
साथ यूं ही होता हो शायद सबके मगर
यहाँ तो यही हाल रहा सदा अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना
कि धूल में लिपटा रहा तन-बदन अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का.....

Friday, June 12, 2009

खुद को हमसे जो दूर रखा

ख़ुद को हमसे जो दूर रखा
हम को कितना मजबूर रखा

तो भी हमने दिल में अपने
रोशन चाहत का नूर रखा

अपनी बातें तू ही जाने
ऐसा तूने दस्तूर रखा

किससे बोलें दिल की बातें
इस दिल में तो नासूर रखा

ये कैसा दीवानापन है
दिन रात नशे में चूर रखा

पागल निर्मल बोले, दिल में
बस तेरा नाम ज़रूर रखा

Sunday, June 7, 2009

प्यार का रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

आज भी पंछी
जब हैं गाते
बात प्रेम की
वो समझाते,
झर-झर झरने
जब हैं बहते
गीत प्रीत के
वो भी गाते,

जिधर भी देखो
सब-कुछ बदला
जीने का हर
ढंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

पुष्प प्रेम के
जब हैं खिलते
तन-मन इक-
दूजे से मिलते,
प्रीत की ख़ुशबू
सुध-बुध खोये
जब संदेश
दिलों के मिलते,

तन के कितने
रूप हैं बदले
मन का रूप
भी बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बिना कोई
बात बने न
प्यार बिना इक
रात कटे न,
प्यार ख़ुदा का
नूर है ऐसा
इक पल भी जो
दूर हटे न,

इन्सा ने चेहरा
तो बदला
चेहरे का हर
अंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बदल
गर जायेगा
जग में क्या
रह जायेगा,
आस की कलियां
मुरझायेंगी
ख़्वाब सुहाना
मर जायेगा,

दौर पुराना
वक्त का बदला
सबका तौर-
तरीका बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

Tuesday, June 2, 2009

वो मुझे आजमाता रहा

मैं उसे, वो मुझे आजमाता रहा
जब कभी सामने मेरे आता रहा

भेद उसका समझ आ न सके मुझे
इस तरह के खेल वो रचाता रहा

सेर था मैं अगर, वो सवा सेर था
हर दफ़ा वो मुझे ही नचाता रहा

साथ मेरे यही है हुआ हर घड़ी
ताउम्र भागता या भगाता रहा

मौक़े उसने दिये संभलने के बहुत
आँख मैं ज़िन्दगी से चुराता रहा

हारने जीतने का जो पूछा सबब
फ़ैसले से सदा भाग जाता रहा

ढूंढने जब उसे मैं निकला कभी
ख़ुद को जाने कहाँ वो छुपाता रहा

देखे जो दिल फ़कीरों के हमने कभी
वो वहीं बैठ कर मुस्कुराता रहा

जब कभी वो मिला बन के रहबरे ख़ुदा
मैं उसे जोड़ता या घटाता रहा

फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का बहुत है अजब
धूप या छांव से दिल दुखाता रहा

हो चले हाथ निर्मल के तो अब खड़े
ज़िन्दगी भर युं ही सर झुकाता रहा

Saturday, May 30, 2009

देखता ही रह गया

आज देखा जो उसे तो देखता ही रह गया
अश्क़ मिज़गां पे मेरी इक तैरता ही रह गया

गिर रहीं थीं दिल पे मेरे, सैंकड़ों ही बिजलियां
जिस्म सारा हो के बेबस कांपता ही रह गया

भूल उसको मैं न पाया आज भी सब याद है
धड़कनों में वो पुराना खौलता ही रह गया

यूं हवा में उड़ रही थी ज़ुल्फ़ उसकी बेख़बर
सांप सीने पर मेरे इक लोटता ही रह गया

बेवफ़ा वो हो गया था छोड़ मुझको राह में
अब न जाने क्यों मुझे वो जांचता ही रह गया

रुक नहीं पाती कभी, ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी
प्यार का ये खेल कैसा, सोचता ही रह गया

Tuesday, May 26, 2009

अपना जहां तो और है

ये जहां अपना नहीं, अपना जहां तो और है
हम नहीं मालिक यहाँ, मालिक यहाँ तो और है

जिस चमन को हम सदा अपना चमन समझा किये
अब ये जाना उस चमन का, बाग़बां तो और है

जब कभी देखा निकल कर जिस्म की दीवार से
है चलाता जो इसे, वो बेज़ुबां तो और है

छोड़ जायें इस जहां में चाहे जितनी दौलतें
याद जिनसे रह सकें हम, वो निशां तो और हैं

छोड़ देंगे हम इसी दुनिया में सारी रौनकें
अपने जाने को अभी, कितने जहां तो और हैं

चल संभल कर तू ओ निर्मल बेख़ुदी के दौर से
तू ज़मीं पे खो न जाना, आस्मां तो और हैं

Tuesday, May 12, 2009

अपराध-बोध


सुबोध भाटिया अपने कमरे में टहल रहा था। टहल क्या रहा था-- बस, सुस्त क़दमों से आ-जा रहा था। कुछ क्षण उपरांत वह धम्म से, कमरे में पड़ी एक इज़ी-चेयर पर बैठ गया। सामने फ़र्नेस में, ठंड दूर करने के लिये आग जल रही थी। सर्दियां पूरी तरह अपने ज़ोरों पर थीं मगर, सुबोध के अंदर एक आग सुलग रही थी। उसकी उदास नज़रें सामने दीवार पर टंगी नवजोत की तस्वीर पर अटकी हुई थीं। तस्वीर के ठीक नीचे एक सेल्फ़ पर बहुत सारी ट्राफ़ियाँ रखी हुई थीं। तस्वीर से फ़िसल कर उसकी नज़रें ट्राफ़ियों के मध्य पड़ी सबसे बड़ी ट्राफ़ी पर जा टिकी जिस पर अंकित था, "नवजोत भाटिया...."।
उसकी नज़रें भले ट्रॉफ़ी पर टिकी थीं, परन्तु उसके कानों में नन्हीं नवजोत और उसकी माँ की मिली-जुली आवाज़ें गूंज रही थीं...
सुबोध बरामदे की सीढ़ियां उतर रहा था। नवजोत आँगन में खेल रही थी। उसकी माँ नवजोत को झिड़के जा रही थी। सुबोध को उतरता देख नवजोत, भाग कर घर के अंदर चली गई। माँ सुबोध को आवाज़ें देने लगीं।
"सुबी.... ओ सुबी.... कहाँ है तू.... आज दफ़्तर के लिये जल्दी निकल गया क्या...?"
"नहीं माँ, बस अब, जाने ही वाला हूँ... और सुना, तेरी तबियत अब कैसी है? दवाई अभी है या ख़त्म हो गई?"
"दवाई तो अभी है बेटा, पर तू सुन, आज दफ़्तर से आते हुये पंडित रामकृष्ण के घर होकर आना। उसने बहूरानी के लिये एक उम्दा किस्म का ताबीज़ बना कर रखा है, लेकर आना। देखना, इस बार लड़का ही होगा।"
"ओफ़्फ़ोह माँ.... तुम भी रोज़ सुबह-सुबह शुरू हो जाती है। कहीं ताबीज़ों से भी लड़के पैदा होते हैं? क्यों तुम, इस तरह कमल के पीछे पड़ी रहती हो....?"
"तू समझता क्यों नहीं है सुबी..., अभी पिछले ही महीने इन्हीं महराज के ताबीज़ के बदौलत ही तो गिरधारी के यहाँ लड़का हुआ है। तू भी न, पढ़-लिख कर एकदम नास्तिक हो गया है।"।
"अच्छा... अच्छा माँ, मैं उधर से हो आऊँगा।" सुबोध ने माँ से पीछा छुड़ाने की ग़रज़ से कहा और फिर कमल को आवाज़ें देने लगा,
"कमल.... कमल.... मेरा टिफ़िन कहाँ है और वो नवजोत की बच्ची कहाँ है, आज उसने स्कूल नहीं जाना क्या...?"
"हाँ जी.... हाँ जी.... सब-कुछ तैयार है....," अंदर से टिफ़िन लेकर बाहर आते हुये कमल बोली, "तुम दोनों बाप बेटी सुबह-सुबह नाक में दम कर देते हो। ये नवजोत भी न, पाँच साल की हो गई है पर ज़रा भी चैन नहीं लेने देती...."
"नवजोत.... नवजोत....." सुबोध ने नवजोत को आवज़ दी
"यस पापा.... आई एम रेडी...." नन्ही नवजोत चहकते हुये बाहर निकली।
"अरे वाह मेरी बच्ची.... क्या बात है...." सुबोध ने नवजोत को उठाते हुये कहा, फिर तुरत माँ की ओर देख कर नवजोत के कान के पास मुंह ले जाकर बोला, "अब चलो, जल्दी भाग ले यहाँ से, नहीं तो अगर तेरी दादी शुरू हो गई तो फिर......"
"यस, यस पापा.... चलो भागो जल्दी यहाँ से...." नवजोत भी धीमे से बोली,
सुबोध ने स्कूटर स्टार्ट किया। नवजोत बस्ता लटकाये, दौड़ कर स्कूटर के आगे खड़ी हो गई। सुबोध ने स्कूटर घुमाया और बाहर ट्रैफ़िक की भीड़ में खो गया। कमल की नज़रे उसी तरफ़ टिकी थीं, जिस तरफ़ स्कूटर गया था। वह अपने पति और बच्ची से बेहद ख़ुश थी, पर सुबोध की माँ--- उसका वह क्या करे?
सुबोध भी अपनी पत्नि और बच्ची के साथ बहुत संतुष्ट और ख़ुश था, परन्तु माँ की पोता देखने की लालसा से बेहद परेशान रहता था। उसकी शादी के एक साल बाद ही उसकी माँ ने पोते की रट लगाना शुरू कर दी थी जो कि आज तक जारी थी। पहली बार जब कमल गर्भवती हुई तो माँ ने अनेक धार्मिक स्थानों पर जा-जाकर पोते की मन्नतें मांगनी शुरू कर दी थीं, मगर सब बेकार रहा। कुछ दिन बाद जब उसने कमल को ज़बरन अल्ट्रासाऊण्ड के लिये भेजा, और वहाँ जब ये पता चला कि होने वाला बच्चा लड़की है, तो उसे बड़ी निराशा हुई मगर सुबोध के भय से वह चुप रही। सुबोध ने भी माँ को समझाने का भरपूर प्रयास किया था। वह अक्सर माँ से बातें करता हुआ कहा करता,
"देखो माँ, अब ज़माना बदल गयाहै, अब लड़के और लड़की के बीच का अंतर काफ़ी हद तक मिट चुका है, बल्कि आजकल तो कई क्षेत्रों में लड़कियां लड़कों से बाज़ी मार ले जाती हैं..."
"तू ज़्यादा बक-बक मत किया कर, आदमी का कुल-वंश सब बेटे से ही तो चलता है। बेटे के बिना भी किसी की मुक्ति होती है भला, और लड़कियां... वो तो पराई अमानत होती हैं..."
"अब यह सब पुरानी बातें हो गई हैं माँ, लोगों के सोचने का तरीका अब पहले जैसा नहीं रह गया है। काफ़ी कुछ बदल गया है...."
"कहीं कुछ नहीं बदला है, सब कुछ वैसे का वैसा ही है। लड़की के जन्म से लेकर पालन-पोषण और विवाह पर्यन्त उनकी रखवाली करो, फिर विवाह के बाद भी ज़िम्मेदारी से कोई मुक्ति नहीं, कुछ-न-कुछ देते रहो..... देते रहो.... सुबी... तू एक काम कर, तू इसको गिरा दे...." माँ ने फिर भी लगे हाथ गर्भपात की भी सलाह दे डाली थी।
"यह कभी नहीं होगा माँ, यह हमारा पहला बच्चा है... लड़का हो या लड़की, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।"
"पर, मुझे तो फ़र्क़ पड़ता है सुबी... न जाने तू कब समझेगा..."
लेकिन माँ की लाख ज़िद के बावजूद भी सुबोध ने कमल का गर्भपात नहीं करवाया। फलस्वरूप, नवजोत इस दुनिया में आई, और उसके आने से दोनों पति-पत्नी बेहद ख़ुश थे मगर कब तक!
अगले ही साल माँ ने फिर वही राग अलापना शुरू कर दिया। उसने फिर से पंडितों और मुल्लाओं के चक्कर काटने आरम्भ कर दिये। लड़का होने की ख़बर उसे जिस घर से भी मिलती, वहां पहुँच जाती और उनसे तरीके पूछती। उसने दर्जनों नारियल पानी में बहाये, चौराहों पर अनगिनत दीप जगाये, कितनी ही मजारों पर माथा रगड़ा मगर कोई लाभ न हुआ। यहाँ तक कि वह डाक्टरों-हकीमों के पास भी दवाईयां लेने चली जाती और दवायें लाकर कमल के हाथ पर रख देती, और उस पर नज़र भी रखती कि दवाओं का सेवन वह पूरी विधिपूर्वक कर रही है कि नहीं।।
वैसे, कमल को माँ से और कोई शिकायत नहीं थी। माँ की सिर्फ़ पोता पाने की ही ज़िद से कमल तंग थी वर्ना माँ एक भद्र महिला ही थी, परन्तु दोष कैसा भी क्यों न हो, दोष ही होता है। अगली बार जब कमल गर्भवती हुई, तो वही कहानी दोबारा शुरू हो गई।
पुरानी मान्यताओं और रूढ़िवादी विचारों में जकड़ी अपनी माँ पर, सुबोध के समझाने का कोई असर नहीं हो पा रहा था। पिता के मरणोपरांत जिन कठिनाईयों से गुज़रते हुये माँ ने सुबोध को पाला-पोसा और पढा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया था, उसकी वजह से सुबोध कोई ऐसा सख़्त क़दम नहीं उठा पाता था, जिससे माँ की आत्मा दुखी हो। इसलिये जब दोबारा ये पता चला कि कमल के होने वाला बच्चा लड़की है तो उसने अपनी माँ के हठ के आगे घुटने टेक दिये और न चाहते हुये भी, कमल का गर्भपात करवा कर भ्रूण-हत्या का दोषी बन बैठा। मगर माँ--- फिर वही ढाक के तीन पात।
सुबोध ने सोचा था कि आगे ये समस्या नहीं रहेगी मगर ऐसा भी कभी हुआ है--- समस्या तो समस्या ही होती है। वह जब भी माँ को भगवान के आगे पोते की भीख मांगते हुये सुनता तो उसका मन उचाट हो जाता। जब किसी पड़ोसन से वह कह रही होती, कि मेरे बेटे के पीछे तो भगवान ने चुड़ैलें ही डाल दी हैं तो वह और भी खिन्न हो उठता। आख़िरकार, यह समस्या समाप्त तो हुई मगर जिस तरह हुई उस तरह वह कदापि नहीं चाहता था।
उस शाम को घर आते हुये, सुबोध जान-बूझ कर पंडित रामकृष्ण के यहाँ नहीं गया। ऐसी बातों पर उसे कोई विश्वास नहीं था। सो, वह माँ की इस क़िस्म की हिदायतों को बहाने बना कर टाल जाता था। वैसे भी, उसे पता था कि कमल फिर उम्मीद से है और कल ही चैक-अप के लिये जाना है।
चैक-अप रूम से बाहर आते हुये सुबोध और कमल अत्यधिक उदास थे। इस बार भी डॉक्टर ने गर्भ में कन्या के होने की ही पुष्टी की थी। उन्हे कन्या का दुख नहीं था, माँ की चिन्ता थी जिसने न जाने ईश्वर के कौन-कौन से दरबार में जाकर पोते की मांग रखी थी, मगर ईश्वर, न जाने वह कहाँ रहता है?
एक बार फिर कमल को गर्भपात की त्रासदी से गुज़रना पड़ा। मगर इस बार, क़ुदरत ने उसे ये सज़ा भी दी, कि वह आयन्दा माँ बनने के लायक न रही। उसे बार-बार कन्या-हत्या करने से तो हमेशा के लिये मुक्ति मिल गई, मगर जो दो हत्यायें हो चुकी थीं, उनकी टीस सुबोध और कमल के मन में सदा के लिये बस गई। यूं कमल जब बहुत ग़मगीन होती, तो सुबोध उसे दिलासा देते हुये कहा करता,
"कोई बात नहीं कमल, दुनिया में हज़ारों माँ-बाप ऐसे भी हैं जिनकी कोई औलाद नहीं है, हमारे पास कम-से-कम नवजोत तो है न..., यह तो तुम जानती ही हो कि कितनी विलक्षण प्रतिभा की मालिक है हमारी बेटी। देखना तुम, सदा हमारे पास रहेगी और हमारी हमदर्द बनी रहेगी।"
इस तरह समय अपनी गति से चलता रहा। नवजोत धीरे-धीरे बड़ी होती गई। पढ़ने में वह शुरू से ही होशियार थी। विज्ञान उसका पसंदीदा विषय था। बचपन से ही सुबोध के साथ पहेलियां बूझना, कठिन से कठिन प्रश्नों को हल करना और नये-नये प्रयोग करना उसे बहुत प्रिय था। यूं कक्षा-दर-कक्षा चढ़ते-चढ़ते एक दिन वह कॉलेज तक पहुँच गई।
कॉलेज में भी नवजोत का पढ़ाई में बहुत नाम रहा। तब तक उसने अपना भविष्य भी निश्चित कर लिया था। वह एक भू-वैज्ञानिक बनना चाहती थी ताकि कुछ नया अनुसंधान करके मानवता और अपने देश का कुछ तो कल्याण कर सके।
इन्हीं दिनों माँ की तबियत ख़राब रहने लगी। एक दिन बारिश में भींगने की वजह से निमोनिया हुआ तो तबियत बद से बदतर होती गई और आख़िरकार, सबको रोता कल्पता छोड कर परलोक सिधार गई। माँ की मृत्यु से एक दौर का अन्त तो होता है, मगर उसकी कमी को पाटना भी असंभव होता है।
एक रोज़ सुबोध काम से वापस आ रहा था तो बाज़ार में कुछ लेने के लिये रुका तो उसने देखा, कि एक जवान लड़के को पुलिस हथकड़ियां लगा कर अपनी जीप में बैठा रही थी। वह लड़का शक्ल से ही अपराधी लग रहा था। ज़रूर इसने कोई गम्भीर अपराध किया होगा--- सुबोध यह सोच ही रहा था कि उसने कुछ लोगों को बातें करते सुना,
"इस गिरधारी के लौण्डे ने तो जीना हराम कर रखा है। हर रोज़ कोई-न-कोई नया कारनामा करता है।" एक बोला,
"हाँ, और देखो तो, अभी इसकी उम्र ही क्या है? इतनी छोटी उम्र में ही अच्छा ख़ासा शातिर चोर बन गया है।" दूसरा बोला
"न जाने गिरधारी ने कौन से पाप किये थे, जो भगवान ने उसे ऐसी कमीनी औलाद दी..." तीसरा बोल पड़ा।
"ऐसी औलाद से तो अच्छा है, कि इन्सान बेऔलाद ही रहे..." पहले ने फिर दुखी स्वर में कहा।
सुबोध को अचानक माँ की याद आ गई। पोते का मुंह देखने की तमन्ना मन में लिये स्वर्ग सिधार गई। आज अगर पंडित रामकृष्ण के प्रसाद से उत्पन्न गिरधारी के पुत्र का ह्श्र देखती तो जाने उस पर क्या बीतती? सुबोध को अपनी नवजोत पर गर्व का अहसास होने लगा। अगर माँ जीवित होती तो उससे वह अवश्य कहता "माँ, देखो जिस नवजोत को तुम देखना नहीं चाहती थी वह किस मुकाम की ओर बढ़ रही है और गिरधारी का पुत्र...., फिर भी तुम पुत्र को इतना महत्व देती थी। युग बदल गया है माँ, अब कई नालायक पुत्रों से एक लायक पुत्री बेहतर होती है।"
तरक्क़ी की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते नवजोत एक दिन उच्चकोटि की भू-वैज्ञानिक बन गई। उसके नम्बरों और उसके उत्तम प्रदर्शन को देखते हुये जियोलॉजिकल-सर्वे-ऑफ़-इंडिया ने एक उच्च पद पर कार्य करने की पेशकश कर दी। वह बहुत ख़ुश हुई, वह देश की सेवा ही तो करना चाहती थी। जिस दिन उसे नियुक्ति पत्र मिला वह ख़ुशी से फूली न समा रही थी।
"पापा... पापा... आज मैं बहुत ख़ुश हूँ," वह घर आकर बोली, "अपने देश के लिये काम करना मुझे बहुत अच्छा लगता है"
"हाँ बेटा, यह हम सबके लिये भी बहुत ख़ुशी की बात है कि तुम्हे देश सेवा का मौक़ा मिल रहा है।"
"और तुम देखना पापा, मैं कोई इससे भी बड़ा काम करूंगी।"
"ईश्वर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेगा बेटा," कमल भी बोली।
" हाँ बेटा.... लेकिन जो भी करना पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करना," सुबोध ने कहा,
"यस पापा... श्योर,"
नवजोत की बातें सुन कर सुबोध भाव-विभोर हो उठता था, मगर जब वह कमल के चेहरे की तरफ़ देखता तो वहाँ खिची दर्द की लकीर देख कर उसका अन्तर्मन विह्वल हो उठता। जाने अन्जाने में हुये पाप का अहसास, अब तक उनके मनों को कचोट रहा था।
उधर नवजोत ईमानदारी और मेहनत के साथ आगे बढ़ती गई। अब कमल उसकी शादी की चिन्ता करने लगी क्योंकि उसकी नज़र में अब वह काफी बड़ी हो चुकी थी लेकिन वह जब भी नवजोत से शादी की बात करती तो वह टाल देती। नवजोत अपने कार्य और लक्ष्य को ही प्राथमिकता देती थी
होते-होते जब भारत सरकार ने दक्षिण ध्रुव पर अंटार्कटिका में एक महत्वपूर्ण मिशन के लिये एक खोजी दल भेजने का निर्णय लिया, तो सरकार को उस दल के नेतृत्व के लिये नवजोत से बढ़ कर और कोई दूसरा उपयुक्त उम्मीदवार नज़र नहीं आया। फलस्वरूप वह चुन ली गई, और क़रीब पच्चीस सदस्यों का काफ़िला ले कर वह अंटार्कटिका रवाना हो गई। जाते-जाते वह कमल को अपने साथ काम करने वाले प्रमोद के बारे में केवल इतना बता गई, कि वह उसे पसन्द करती है, और वापस आकर उससे शादी का इरादा रखती है, जिसे सुन कर कमल बहुत खुश हुई थी।
अंटार्कटिका का यह दौरा क़रीब तीन महीने का था। वहाँ पहुँचते ही, नवजोत ने सारी टीम के साथ मिल कर अपना काम पूरी मुश्तैदी से शुरू कर दिया। अपने काम की रोज़ाना की रिपोर्ट उसे लगातार भारत भेजनी होती थी, जिसे वह पूरी तन्मयता के साथ बिना नागा किये जा रही थी। प्रमोद उसके साथ था जो उसकी लक्ष्य-प्राप्ति में हर तरह से उसका साथ दे रहा था। साथ-साथ काम करते हुये दोनों ने अपने भावी-जीवन के लिये भी बहुत-सी योजनायें बना लीं, परन्तु कुदरत बड़ी बलवान होती है, उसके भूत और वर्तमान में तो वैज्ञानिक झांक लेता है, मगर भविष्य में झांकना ज़रा कठिन होता है।
नवजोत का अनुसंधान-कार्य अपने अन्तिम पड़ाव से गुज़र रहा था। भारत सरकार उसकी सफलता से बेहद ख़ुश थी। सुबोध को उम्मीद थी, कि नवजोत के वापस आने पर बहुत सारी ख़ुशियों के दिन आने वाले हैं। समाचार पत्रों में भी अक्सर ये मांग उभरने लगी, कि नवजोत की प्राप्तियों को देखते हुये, उसके वापस आने पर सरकार को उसे पुरस्कृत करना चाहिये, मगर...
मगर, एकाएक नवजोत की सूचनायें आनी बन्द हो गईं। एक भयंकर बर्फ़ीले तूफ़ान की वजह से उसका सम्बन्ध बाक़ी दुनिया से टूट गया। समाचार प्राप्त करने वाले यन्त्र एकदम ठप्प हो कर रह गये। भारत में शोक की लहर दौड़ गई। इस तूफ़ान का अन्दाज़ा तो वैज्ञानिकों को था, लेकिन यह भयानक तूफ़ान नवजोत और उसके साथियों की जान पर से गुज़रेगा, इसका अनुमान उन्हें क़तई नहीं था। तूफ़ान के वक्त नवजोत अपने कुछ साथियों समेत अपने पड़ाव से दूर, अपने शोध कार्य को अंजाम दे रही थी कि सब-कुछ उलट-पुलट हो गया।
प्रमोद और कुछ साथी पड़ाव में रहने की वजह से बच गये। कुछ दिन बाद जब यह ख़ौफ़नाक तूफ़ान थमा, तो सूचनायें आनी आरम्भ हुईं, मगर हज़ार कोशिशों के बावजूद भी नवजोत और उसके साथियों का कुछ पता न चल सका।
आज गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या थी, जब सुबोध और कमल को नवजोत की श्रेष्ठ उपलब्धियों के बदले घोषित किया गया पुरस्कार, ग्रहण करने के लिये आमंत्रित किया गया था। नवजोत ने मरते-मरते भी अपने शोध परिणाम पड़ाव में प्रमोद तक पहुँचा दिये थे, ताकि आने वाले समय में भारत की उन्नति के और भी रास्ते खुल जायें।
सुबोध और कमल आज नवजोत को मिले इस ईनाम को लेते हुये, स्वयं को जहाँ गर्वित अनुभव कर रहे थे, वहीं उनके हृदय में नवजोत के जाने का ग़म भी कम नहीं था। उनके हृदय में अपनी दो गर्भस्थ कन्याओं की हत्या का अपराध-बोध भी था। काश, वो आज जीवित होतीं तो न जाने देश और क़ौम की उन्नति में किस क़दर सहायक होतीं? वो पाप उन्होंने न किया होता, तो आज उनका अंतस-मन ग्लानि के बोझ तले न दबा होता, उनका जीवन इस तरह वीरान न हो गया होता बल्कि फूलों की ख़ुशबू से महक रहा होता। यह ख़्याल आते ही, सुबोध नवजोत की ट्राफ़ियों के मध्य सिर रख कर सुबकने लगा......

Saturday, May 2, 2009

प्यार का रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला,
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

आज भी पंछी
जब हैं गाते
बात प्रेम की
वो समझाते,
झर-झर झरने
जब हैं बहते
गीत प्रीत के
वो भी गाते,

जिधर भी देखो
सब-कुछ बदला
जीने का हर
ढंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

पुष्प प्रेम के
जब हैं खिलते
तन-मन इक-
दूजे से मिलते,
प्रीत की ख़ुशबू
सुध-बुध खोये
जब संदेश दिलों
के मिलते,

तन के कितने
रूप हैं बदले
मन का रूप
भी बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बिना कोई
बात बने न
प्यार बिना इक
रात कटे न,
प्यार ख़ुदा का
नूर है ऐसा
इक पल भी जो
दूर हटे न,

इन्सा ने चेहरा
तो बदला
चेहरे का हर
अंग है बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....

प्यार बदल
गर जायेगा
जग में क्या
रह जायेगा,
आस की कलियां
मुरझायेंगी
ख़्वाब सुहाना
मर जायेगा,

दौर पुराना
वक्त का बदला
सबका तौर-
तरीका बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला

जग बदला है
मौसम बदला
क़ुदरत का हर
पहलू बदला,
मगर, प्यार का
रंग न बदला.....


Thursday, April 23, 2009

अर्चना

रनबीर लिफ़्ट से निकल कर अपने ऑफ़िस की ओर बढ़ चला। धीमे-धीमे क़दमों के साथ ऑफ़िस की तरफ़ जाते हुये, उसे कई लोगों ने विश किया। उसने किसी का जवाब दिया-- किसी का नहीं, चुपचाप अपने दफ़्तर का दरवाज़ा खोला और टेबल पर जाकर बैठ गया। उसके चेहरे से गम्भीरता साफ़ झलक रही थी। कुछ करने के लिये वह उठने ही लगा था कि, अचानक उसके चेहरे के सामने किसी ने घड़ी करते हुये कहा,
"ये ऑफ़िस आने का वक्त है क्या...?"
वह अचकचा गया। मालिक था वह अपनी कम्पनी का। कोई उससे इस क़िस्म का सवाल करे-- इतनी हिमाकत, उसने क्रोध में नज़रें उठा कर सामने देखा।
सामने पच्चीस-छब्बीस साल की ख़ूबसूरत नवयुवती खड़ी थी। रनबीर को अपनी ओर देखते ही फिर बोली,
"जी हाँ.... बोलिये न.... यह कोई ऑफ़िस आने का समय है...? दोपहर का एक बज रहा है और आप हैं कि, अब पधार रहे हैं। थोड़ी ही देर में सबके जाने का टाईम हो जायेगा, सब चले जायेंगे तब आप यहाँ क्या करेंगे?"
"जी.... वो..... मगर....." रनबीर इस अनपेक्षित स्थिति के लिये तैयार नहीं था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह लड़की कौन है। वह उससे पूछने ही वाला था, कि वह पहले ही बोल पड़ी,
"आप सोच रहे होंगे कि मैं कौन हूँ...? है न, तो ज़्यादा दिमाग़ पर ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है, मैं स्वयं ही बता देती हूँ.... माईसेल्फ़ अर्चना रस्तोगी, और मैं आपकी नई सेक्रेटरी हूँ।" अर्चना ने अपना हाथ बढ़ाते हुये कहा
"मगर.... मगर...." रनबीर ने उसके बढ़े हाथ पर कोई ध्यान न दिया।
"और हाँ.... कुछ दिन से आपके बिना ही, ये ऑफ़िस चला रही थी, आज आप आ गये हैं तो सब कुछ जान लेंगे। राईट....?"
"मगर यहाँ तो सुनीता हुआ करती थी।" रनबीर जल्दी में बोला, " वह कहाँ है?"
"उसके पति का दूसरे शहर तबादला हो गया, सो उसे काम छोड़ कर जाना पड़ा और उसकी जगह हमारी अप्वाईंटमेंट हो गई, और कुछ....?"
"ओह....हाँ... वो मलहोत्रा कहाँ है?"
"मलहोत्रा सर अपने ऑफ़िस में हैं। उन्होंने बताया था कि आज आप आने वाले हैं, और जब आप आ जायें तो आपको ये बता दिया जाये, कि आप उनके दफ़्तर में जाकर उनसे मिल सकते हैं।" अर्चना ने बड़ी हलीमी से उत्तर दिया।
इस अप्रत्याशित स्थिति से रनबीर बौखलाया तो था पर अब, काफ़ी हद तक वह संभल चुका था। वह मलहोत्रा के ऑफ़िस की ओर चल पड़ा। वह समझ चुका था कि इस अर्चना रस्तोगी को मलहोत्रा ने अप्वाईंट किया होगा परन्तु उसने उससे, इस बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया था। बीमारी की वजह से वह कई हफ़्तों से दफ़्तर नहीं आ सका था। दफ़्तर में होने वाली हर कारगुज़ारी की रिपोर्ट मलहोत्रा उसे दिया करता था मगर उसने अर्चना वाली बात उसे क्यों नहीं बताई? आख़िरकार, मलहोत्रा उसका बिज़निस पार्टनर था। हर तरह के लाभ-हानि के दोनों समान भागीदार थे, फिर उसने अर्चना वाली बात उससे क्यों छुपाई-- यह बात उसके पल्ले नहीं पड़ रही थी। यही सोचते-सोचते वह मलहोत्रा के दफ़्तर तक जा पहुँचा।
मलहोत्रा अपने ऑफ़िस में किसी पार्टी के साथ विचार-विमर्श में मशरूफ़ था। उसने रनबीर को देखा, और एक कोने में पड़े सोफ़े पर बैठ जाने का इशारा किया। रनबीर ख़ामोशी से सोफ़े पर जा बैठा और उनकी गुफ़्तगू सुनने का प्रयास करने लगा, परन्तु उसका मस्तिष्क तो कहीं और ही घूम रहा था।
रनबीर और मलहोत्रा को ‘हिमालया ग्रुप ऑफ़ इण्डस्ट्रीज़’ नामक इस कम्पनी को चलाते हुये क़रीब तीस साल हो चुके थे। बहुत थोड़ी-सी लागत से शुरू की गई कम्पनी अब एक विशाल एम्पायर में तब्दील हो चुकी थी। दोनों दोस्तों ने जब इस कारोबार का उदघाटन किया था तो उन्हें स्वप्न में भी ग़ुमान नहीं था कि इस कारोबार और उनकी दोस्ती में ऐसा पक्का तालमेल बैठेगा कि जिसकी मिसाल ढूँढने से नहीं मिलेगी। समय ने, चलते-चलते दोनों को बुढ़ापे की दहलीज़ पर तो ला खड़ा किया,मगर उनकी दोस्ती और कारोबार में कोई अन्तर न आया। रनबीर अपने दोस्त मलहोत्रा की सूझ-बूझ और दूर-अंदेशी का क़ायल था। पार्टियों से डील करने में उसका कोई सानी नहीं था। बड़े-बड़े लोगों से मेल-जोल बढ़ा कर अपनी कम्पनी का काम निकालने में वह माहिर था। इसके विपरीत रनबीर कुछ धीर-गम्भीर व्यक्तित्व का मालिक था और अपने इसी स्वभाव और क़ाबलियत के कारण वह कम्पनी का सारा काम पूरी तन्मयता और दक्षता से चलाता था।
"हाँ तो जनाब.... मिल गई फ़ुरसत बीमारी से...?" मलहोत्रा ने रनबीर की ओर आते हुये कहा। पार्टी जा चुकी थी और अब वहाँ उन दोनों के सिवा कोई नहीं था।
" हूँ.... मगर ये अर्चना का क्या किस्सा है...तुमने बताया नहीं?" रनबीर ने पूछा
"कैसे बताता? पिछले साल भर से तुम अपनी मानसिक परेशानियों की वजह से कम्पनी के काम में ध्यान नहीं दे पा रहे थे, मैं...’
"मगर तुम तो मेरा सारा दुख समझते हो, फिर भी ऐसा कह रहे हो?"
"हाँ... मैं जानता हूँ कि पूजा का ग़म तुम्हें अंदर-ही-अंदर खाये जा रहा है मगर मेरे दोस्त, ऐसा कब-तक चलेगा... संभालो अपने आपको मेरे भाई..." मलहोत्रा ने भावुकता से कहा।
"मैं कोशिश तो कर रहा हूँ न!" रनबीर ने कहा
"मैं जानता हूँ, ये अच्छी बात है, परन्तु काम भी तो चलाना पड़ता है, जब तुम नहीं आ पा रहे थे, तो अंदर और बाहर का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा था, ऊपर से तुम्हारी सेक्रेटरी सुनीता भी काम छोड़ गई तो थक-हार-कर मुझे अर्चना को अप्वाईंट करना पड़ा।"
"वो तो ठीक है, पर तुम्हें कोई और नहीं मिली इस अर्चना के अलावा...."
"ओ कम ऑन रनबीर.... इसने बिज़निस मैनेजमेंट का कोर्स किया है और थोड़ा-बहुत तजुर्बा भी है मुझे ये कम्पनी के लिये हर तरह से उपयुक्त लगी, सो इसे मैंने रख लिया। कुछ दिन काम देखा, तो वह भी अच्छा लगा... क्यों? क्या तुम्हें अच्छी नहीं लगी...?" मलहोत्रा ने रनबीर की आँखों में झांका।
"अभी कुछ कह नहीं सकता.... परन्तु बातें बहुत करती है....।" रनबीर को अपने साथ अर्चना का किया व्यवहार स्मरण हो आया।
"मगर, ऑफ़िस का तमाम स्टॉफ़ अर्चना से बेहद ख़ुश है। कुछ ही हफ़्तों में इसने अपनी क़ाबलियत और व्यवहार से सबका मन जीत लिया है। तुम्हारे ग़म की वजह से ऑफ़िस वाले भी बुझे-बुझे से रहते थे। अर्चना के आने से, माहौल कुछ बदला है। मैं चाहता था कि तुम जब आओ तो तुम्हें कुछ अच्छा वातावरण मिले। ख़ैर, मुझे तो वह अच्छी लगी, आशा है, तुम्हें भी अच्छी लगने लगेगी।"
"वेल... देखेंगे... अब क्या प्रोग्राम है?"
"मैं तो लंच के लिये बाहर निकलने वाला था, अब तुम आ गये हो तो तुम भी साथ चलो... बहुत दिन बाद साथ बैठेंगे.... ठीक है न!"
"हाँ... हाँ... चलो.."
मलहोत्रा ने सही कहा था। कम्पनी का माहौल अब काफ़ी बदल चुका था। पिछले साल भर से रनबीर कुछ व्यक्तिगत-कारणवश ऑफ़िस से लगभग दूर ही रहा था। अगर कभी आता भी था तो चिड़चिड़ा और ग़ुस्से से भरा हुआ। ऑफ़िस के लोग उसके इस व्यवहार से परेशान तो थे ही, मगर उसके ग़म से दुखी भी थे। कोई उसकी कही बात का बुरा नहीं मानता था लेकिन ऐसे माहौल का असर काम पर अवश्य पड़ रहा था। पूजा के दुख ने रनबीर को झकझोर कर रख दिया था। अब जीवन उसके लिये ज़रा भी रुचिकर नहीं रह गया था।
"क्या ख़्याल है...? आज शाम मेरे घर चलते हैं। सावित्री भी तुम्हें याद कर रही थी रात का खाना वहीं खायेंगे।" मलहोत्रा ने खाना खाते हुये रनबीर से पूछा।
"आज नहीं ...फिर कभी... भाभी से कहना, मैं जल्दी ही उधर चक्कर लगाऊँगा। अभी तो मैं खाने के बाद सीधा घर ही जाऊंगा...।"
"और घर जाकर , शराब लेकर बैठ जाओगे, क्यों है न?"
"नहीं यार.... अब तो बहुत कम कर दी है।"
"कोई कम-वम नहीं की है, मुझे सब पता है। माना कि, तुम्हारे साथ बड़ा गम्भीर हादसा हुआ है, हम-सब तुम्हारे ग़म में साथ हैं पर यार, दुख से उबरने के लिये प्रयत्न तो तुझे ही करना पड़ेगा न!"
"ओ. के.... ओ. के.... नो लैक्चर प्लीज़.... अच्छा मैं चलता हूँ...." कहते हुये रनबीर उठ खड़ा हुआ।
"कल ऑफ़िस आओगे न?"
"हाँ यार.... आ जाऊँगा...."
इतना कह टैक्सी ले रनबीर घर चल पड़ा। मलहोत्रा का अनुमान बिल्कुल सही था। घर पहुँच कर रनबीर ने बोतल निकाली, और पीने बैठ गया। वह रात देर तक पीता रहा। इन्सान ग़म की गहराईयों से निकलने के लिये शराब का सहारा लेता है, मगर किसी गम्भीर ग़म से उबरना, क्या इतना आसान है?
दूसरी सुबह, रनबीर जब ऑफ़िस पहुँचा तो फिर दोपहर हो चुकी थी। वह जैसे ही टेबल पर बैठा, तो सामने लगे फ़ाईलों का ढेर देख चौंक उठा।
"यह क्या......" उसके मुंह से निकला,
"यह आपका पेंडिग पड़ा हुआ काम है जो आपने समाप्त नहीं किया था, और अब आपने यह करना है..." सामने अर्चना खड़ी मुस्कुरा रही थी।
"मेरी मेज़ पर फ़ाईलों का ढेर लगाने की तुम्हें किसने इजाज़त दी?" वह भड़क उठा
"यह आपका ही काम है और आपको ही करना चाहिये, किसी और की टेबल पर...."
"शट-अप..." वह ग़ुस्से में उबल पड़ा, "यह फ़ाईलें उठाओ और निकल जाओ यहाँ से..."
"एक बात तो बताईये, आप काम से इतना घबराते क्यों हैं? मेरी मानिये, इतना आलस अच्छा नहीं होता....और...."
"आई से यू शट-अप..." वह एकदम से चीख़ते हुये उठ खड़ा हुआ, "तुम बाहर जाती हो कि नहीं...?"
अर्चना ने चुपचाप फ़ाईलें उठाई और बाहर निकलने ही लगी थी कि, वह फिर ज़ोर से बोला,
"और सुनो..... अपनी नसीहतें अपने पास ही रखा करो.... जितनी तुम्हारी उम्र नहीं है उससे कहीं ज़्यादा इस कम्पनी की उम्र है। आयन्दा से, अपने दायरे में रहने की आदत डाल लो.... समझी.... वर्ना...."
अर्चना ने आँखों में तैरते आँसुओं को छुपाया और ख़ामोशी से बाहर निकल गई।
उसके जाते ही रनबीर धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। उसकी सांस फूल रही थी। उसने ज़ेब से गोलियों की शीशी निकाली, एक-दो गोलियां मुंह में डालीं और आँखे बन्द कर लीं।
मलहोत्रा उस वक्त बाहर किसी पार्टी से मिलने गया हुआ था। क़रीब तीन बजे जब वह वापस आया तो उसे सारी बात का पता चला। उसे बहुत दुख हुआ। वह जानता था कि रनबीर दिल का बुरा नहीं है। उसे बस अपने ग़म से उबरने के लिये वक्त चाहिये। उसने अर्चना को बुलाया और उसे बड़े प्यार से समझाया। वह तो नौकरी छोड़ कर जाने को तैयार थी परन्तु उसके समझाने पर रुक गई।
अर्चना को समझाने के बाद मलहोत्रा रनबीर के दफ़्तर में गया और उसे देखते ही क्रोध भरे स्वर में बोला,
"रनबीर ये सब क्या हो रहा है? आख़िर तुम्हें, अर्चना से क्या ऐलर्जी है? क्यों तुम उससे इतनी ख़ार खाते हो? और तो और, तुम अपनी कम्पनी की सारी मान-मर्यादा भूल गये हो!"
रनबीर कुछ न बोला, मलहोत्रा ने फिर आगे कहा,
"देखो रनबीर, इन्सान का एक अवगुण उसके बहुत सारे गुणों को निग़ल लेता है। तुम्हारे क्रोध और हक़ जताने की आदत से मैं तो भलीभांति परिचित हूँ, मगर कम-से-कम अर्चना के साथ इतनी ज़्यादती तो न करो!"
"तुम नहीं जानते मलहोत्रा, वह बहुत ज़्यादा हॉवी होने की कोशिश करती है। ऐसा लगने लगता है कि वह यहां की मालकिन हो, और हम सब नौकर-चाकर।"
"नहीं.... ऐसी बात नहीं है रनबीर, तुमने उन फ़ाईलों को तो खोल कर देखा ही नहीं, कई महीने का तुम्हारा अधूरा काम, उसने पिछले कुछ ही दिनों में पूरा किया है। इस काम के लिये उसने समय की कोई परवाह नहीं की, और आज जब सारा काम समाप्त करके फ़ाईलें तुम्हारे दस्तख़त के लिये टेबल पर रखीं, तो शाबाशी देने की बजाय तुमने उसके साथ जो सुलूक किया उससे उसे कितना दुख हुआ होगा, इसका अंदाज़ा है तुम्हें....?"
"क्या....?" रनबीर के मुंह से निकला,
"हाँ.... जहाँ तुम्हें उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिये था, वहाँ तुमने उसका अपमान कर दिया। वह तो काम छोड़ कर जा रही थी, मैंने ही समझा-बुझा कर रोक लिया है। अब ये तुम्हारे हाथ में है। तुम उसे रखना चाहते हो तो रखो, निकालना चाहते हो तो निकाल दो, मैं कोई दख़ल नहीं दूंगा...।" मल्होत्रा रनबीर से पूरी तरह ख़फ़ा था।
"ओह... आई ऐम सॉरी...." रनबीर का लेहज़ा नर्म हो गया।
"सॉरी मु्झे नहीं.... अर्चना से कहो तो बेहतर है।"
कहने के साथ ही मल्होत्रा उठा और अपने दफ़्तर की ओर बढ़ गया।
रनबीर बहुत देर तक ख़ामोश बैठा रहा। वह इसी उधेड़बुन में था, कि अर्चना को बुलाये तो किस तरह। अपने व्यवहार पर उसे शर्मिन्दगी तो थी ही, परन्तु उसका अहम भी आड़े आ रहा था। अन्तत: उसने अर्चना को बुला भेजा।
"यस सर.... आपने मुझे बुलाया?" अर्चना अंदर आकर पूरे मान और गम्भीरता से बोली,
"हाँ... वो फ़ाईलें दोबारा लाओ,"
कहते हुये रनबीर ने ज्योंहि सर उठा कर सामने अर्चना को देखा, तो देखता ही रह गया। उसकी पलकें रोने की वजह से सूजी हुई थीं। चेहरे से उदासी झलक रही थी। रनबीर को उसमें पूजा की छवि तैरती नज़र आई। ऐसा उसे क्यों लगा -- वह ख़ुद नहीं समझ पाया।
अर्चना बाहर गई और फ़ाईलें दोबारा लाकर टेबल पर रख दीं।
"बैठो...." रनबीर बोला, उसकी समझ में नहीं आ रहा था, कि बात कैसे शुरू करे?
"बात दरअसल यह है......" फ़ाईलों पर नज़र दौड़ाते हुये उसने कहना शुरू किया, " कि मैं.... मैं... तुमसे वो सब नहीं कहना चाहता था जो मैं कह बैठा, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिये था.... आई ऐम सॉरी....."
"कोई बात नहीं सर, ग़लती मेरी ही थी कि, मैं यह भूल गई थी कि मैं एक नौकर हूँ और आप एक मालिक....।"
"अब कह दिया न सॉरी.....और कितनी बार कहना पड़ेगा," रनबीर फिर कुछ उत्तेजित हुआ\
"मैंने भी तो कह दिया न, कि कोई बात नहीं...." अर्चना के चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी, "आप सारी फ़ाईलों पर साईन कीजिये, मुझे और भी काम करने हैं।"
अर्चना फ़ाईलें लेकर बाहर गई, तो रनबीर ने स्वयं को काफी हल्का महसूस किया। वह उठ कर मल्होत्रा के दफ़्तर गया और उससे बोला,
"मलहोत्रा, शाम हो चली है, कॉफ़ी पीने चलें?"
"श्योर... श्योर.... चलो," मल्होत्रा ने जब उसके चेहरे पर ख़ुशी देखी, तो उसे बहुत अच्छा लगा। उसने रनबीर से पूछा, " तुम कहो तो, अर्चना को भी साथ ले लें?"
"जैसी तेरी इच्छा..."
कहते हुये जब रनबीर अपने दफ़्तर की ओर जा रहा था, तो उसने देखा कि अर्चना ख़ुशी-ख़ुशी इधर-उधर आ-जा रही है। उसकी चंचलता वापस आ चुकी थी। रनबीर को बहुत तसल्ली महसूस हुई।
कॉफ़ी पीते-पीते रनबीर और अर्चना के बीच की बची-खुची कड़ुवाहट लगभग समाप्त हो चुकी थी। तीनों ने शाम का भरपूर आनन्द लिया। रात को वापस घर जाते हुये, रनबीर स्वयं को बड़ा शान्त और आनन्दित महसूस कर रहा था। आज बहुत दिनों के बाद उसने घर जाकर, सिर्फ़ एक-दो पैग ही लगाये और सोने चला गया।
इस तरह रनबीर का अस्त-व्यस्त जीवन व्यवस्थित होने लगा। अर्चना ने ऑफ़िस से घर तक का माहौल बदल कर रख दिया। मलहोत्रा और उसकी पत्नी, अर्चना से बेहद ख़ुश थे। उनके घर पर, हर दूसरे-तीसरे दिन कभी खाने पर, तो कभी कॉफ़ी के लिये बैठकें होने लगीं। अर्चना के प्रति, रनबीर के दिल में एक क़िस्म का मोह जाग उठा। जीवन के प्रति उसका रवैया फिर से आशावादी हो चला। अब उसके जीवन में कम्पनी, मलहोत्रा परिवार और अर्चना बस, इसके अलावा और कुछ नहीं था।
समय चलता रहा। दिन महीनों में परिवर्तित होते रहे। क़रीब सात- आठ महीने गुज़रने के बाद एक दिन अचानक, रनबीर के दफ़्तर में आकर अर्चना बोली,
"आज शाम, आप घर पर ही रहना, मैं आ रही हूँ, साथ ही मल्होत्रा सर भी आ रहे हैं। एक महत्वपूर्ण विषय पर आपसे बात करनी है।"
"महत्वपूर्ण विषय...? अभी ही कर लो... शाम तक कौन इंतज़ार करे?" रनबीर ने कहा।
"नहीं..... नहीं..... वह बात यहाँ करने वाली नहीं... शाम को ही करेंगे.... और हाँ ध्यान रहे... नो ड्रिंक्स टिल वी कम... ओ. के.?"
"ओ. के. बाबा... अब तो ख़ुश... अब चलो यहाँ से, मुझे और भी काम करने हैं।"
संध्या समय रनबीर घर पहुँच कर उनका इंतज़ार करने लगा। क़्ररीब सात बजे मलहोत्रा अपनी पत्नी समेत पहुँच गया। तीनों बैठ कर बातें करने लगे। रनबीर ने मलहोत्रा से जब पूछा, कि अर्चना किस विषय पर बात करना चाहती है, तो उसने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की। मलहोत्रा ने भी रनबीर को आजमाने के लिये व्हिस्की लेने का आग्रह किया तो रनबीर ने-- पहले अर्चना को आने दो--कह कर मना कर दिया।
साढ़े सात बज रहे थे जब अर्चना ने कमरे में प्रवेश किया। उसके साथ एक नौजवान भी था। रनबीर थोड़ा चौंका, क्योंकि उसने उस युवक को पहले कभी नहीं देखा था।
"सॉरी, हमें आने में ज़रा देर हो गई।" अर्चना आते ही बोली, "कुछ हम लेट चले थे, कुछ रास्ते में ट्रैफ़िक ने लेट कर दिया..."
"कोई बात नहीं.... मगर..." कहते हुये रनबीर ने उस युवक की ओर सवालिया नज़रों से देखा।
"इनसे मिलिये... ये मि. विकास हैं और विकास...! ये मि. रनबीर, और ये मि. मलहोत्रा हैं जिनके बारे में मैंने तुम्हें बताया था। यूं कहने को तो ये मेरे एम्पलॉयर हैं मगर, इनके अलावा इस शहर में मेरा और कोई नहीं है।" अर्चना ने ज़रा गम्भीरता से कहा।
"पर.... ये है कौन...?" रनबीर से न रहा गया।
"ये मेरे मंगेतर हैं, और अगले ही हफ़्ते हम शादी कर रहे हैं..."
"क्या......? तुमने पहले क्यों नहीं बताया?" रनबीर बुरी तरह चौंका।
"कैसे बताती...? अभी पिछले ही हफ़्ते तो, ये अमेरिका से आया है...। देखो... ग़ुस्सा मत करना.... अब बता दिया न...!"
"अब क्या ख़ाक बता दिया.... सब कुछ होने के बाद बताया तो क्या बताया, शादी भी हो जाने देती तो ही बताती.... और न भी बताती तो क्या फ़र्क़ पड़ जाता..." रनबीर पूरी तरह बेक़ाबू सा हो उठा।
"कोई बात नहीं रनबीर, धीरज रखो....," मलहोत्रा ने आगे आ कर हस्तक्षेप करते हुये कहा, " तुम पहले अर्चना की बात शान्ति से सुन तो लो..."
"क्या सुन लो.....? तू भी इनके साथ मिला है क्या...? अगर तुझे इस बात का पहले से पता था, तो तूने मुझे क्यों नहीं बताया...?"
"अरे भई.... मुझे भी आज ही पता चला है, क्या करता, बच्चों के साथ तो समझौता करना ही पड़ता है। तू तो जानता ही है कि, मैंने पहले भी समझौते किये हैं... यार छोड़ न...! अब तो विरोध करने की हिम्मत भी नहीं रह गई है..."
मलहोत्रा सही था। उसने बहुत समझौते किये थे। उसके दोनों बच्चे उसकी मर्ज़ी के बिना, उससे दूर अमेरिका जाकर बस गये थे। इस बात को लेकर वह अंदर-ही-अंदर बहुत दुखी रहता था। पहले तो बच्चे अक्सर फोन करते रहते थे मगर अब तो कभी-कभार ही फोन आता था। रनबीर का घर तो वैसे ही उजड़ा हुआ था। कभी-कभी बाहर से मालामाल दिखने वाले लोग, अंदर से कितने खोखले होते हैं, इस बात का अंदाज़ा रनबीर और मलहोत्रा को देख कर आसानी से लगाया जा सकता था।
"तुम करो समझौता, मैं तो नहीं करूंगा.... अगर इस लड़की को इतना सलीका नहीं, कि अपने इतने बड़े फ़ैसले में हमें शामिल करना चाहिये तो बेशक... ये जाये जहन्नुम में..." रनबीर ने ऊँचे स्वर में कहा।
"अब तुम अर्चना के साथ भी वही सुलूक कर रहे हो, जो तुमने कभी पूजा के साथ किया था। मुझे कई बार ख़्याल आता है कि तुम्हारी ज़िद और क्रोध की वजह से ही पूजा की जान गई। तुम स्वयं हत्यारे हो अपनी बेटी के रनबीर...।" मल्होत्रा भी तैश में बोले जा रहा था।
"क्या बकते हो तुम.... मैंने तो केवल उसे किसी ग़ैर-धर्म वाले के साथ शादी करने से मना किया था..."
यह सच था। रनबीर की बेटी पूजा किसी ग़ैर-धर्म वाले के साथ प्रीत लगा बैठी थी, जिसे रनबीर स्वीकार नहीं कर पाया। वह उसकी शादी किसी अपनी ज़ाति-धर्म में ही धूम-धाम से करना चाहता था। उसकी पत्नी बहुत पहले ही पूजा को उसकी गोद में छोड़ कर परलोक सिधार चुकी थी। उसके बाद रनबीर ने अपना सारा ध्यान और प्यार पूजा पर उंडेल दिया था। पूजा की ख़ातिर उसने दूसरी शादी नहीं की। अगर कहीं वह ग़लत था तो सिर्फ़ इस बात पर कि, पूजा पर वह हद से ज़्यादा अपना अधिकार समझने लग गया था। इसलिये जब पूजा ने जवानी की दहलीज़ पर पांव रखते ही किसी ग़ैर-धर्म वाले से शादी की इच्छा जाहिर की तो वह आपे से बाहर हो गया, और तड़ातड़ कई तमाचे पूजा की गालों पर रसीद किये और साथ ही बड़े कठोर शब्दों में शादी से एक-तरफा इन्कार कर दिया। पूजा नर्वस और रोहांसी होकर वहाँ से भाग निकली। रास्ते में कार चलाते वक्त वह इस क़दर बदहवास और घबराई हुई थी, कि कब उसकी कार सड़क के दूसरी ओर से आते हुये ट्रक से टकराई, उसे पता भी न चल सका।
पूजा को लाख कोशिशों के बावजूद बचाया न जा सका। रनबीर की पत्नी तो पहले ही उसे छोड़ कर जा चुकी थी, जब पूजा भी उसे छोड़ कर चली गई तो वह बिल्कुल ही तन्हा और मायूस हो गया। दुखों की मार से वह निराश रहने लगा। हताशा के इस दौर ने उसे शराब का आदी और चिडचिड़ा बना दिया। और जब उसे वर्षों-बाद अर्चना में पूजा की छवि दिखाई दी, तो उसी मोह के वशीभूत होकर वह अर्चना पर भी वैसा ही अधिकार समझ बैठा। कभी-कभी ज़िन्दगी के इम्तिहान भी बड़े अजीब होते हैं।
"तुमने मना नहीं, उस पर हद से ज़्यादा दबाव डाल दिया था, जिसे वह मासूम जान बर्दाश्त न कर सकी और अपनी जान गंवा बैठी।"
रनबीर कुछ न बोल पाया। मलहोत्रा ने आगे कहा,
"अब इस अर्चना की ओर देखो, इसने बहुत साल पहले दिल्ली में हुये दंगों में अपने मां-बाप को खो दिया था, मगर तुमने कभी इसे उदास और चिड़चिड़े रूप में देखा है? नहीं न, यह बेचारी भी तो दुखी है। हमें यह अपना समझती है, और खास कर तुममें अपने पिता की छवि पाती है तो तुम इस पर फिर अनुचित दबाव क्यों डाल रहे हो? यार रनबीर, समझा करो... जायदाद और इन्सान में बड़ा फ़र्क होता है।"
रनबीर फिर कुछ न बोला, चुपचाप उठ कर खिड़की के क़रीब चला गया। मलहोत्रा रुका नहीं, कहता ही रहा,
"रनबीर, आज अर्चना के रूप में भगवान ने जब तुम्हारी पूजा को वापस किया है तो तुम क्यों फिर वही कहानी दुहरा रहे हो? देखो मेरे दोस्त, बेटियां सारी ज़िन्दगी साथ रहने के लिये नहीं होती हैं। एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है और हमें सीने पर पत्थर रख कर उन्हें विदा करना पड़ता है। अच्छा है, यदि तुम पूजा को विदा नहीं कर सके, तो कम-से-कम अर्चना को तो बख़ुशी विदा करो...." इतना कह कर मलहोत्रा ख़ामोश होकर बैठ गया। यूं लगा कि, वह थक सा गया था।
रनबीर चुपचाप खिड़की के बाहर देखता रहा। एक तरफ़ बीती बातों ने उसके सीने में दर्द जगा रखा था, तो दूसरी तरफ़ अर्चना से बिछड़ने का ग़म भी उससे सहन नहीं हो पा रहा था। उसकी आँखों में आँसू झलक रहे थे। बाहर आस्मान की ओर देखते हुये उसे पूजा का मासूम चेहरा याद आया। उसके कानों में मलहोत्रा के शब्द दोबारा गूंज उठे,
"बेटियां सारी ज़िन्दगी साथ रहने के लिये नहीं होती हैं, एक-न-एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है। उनकी अपनी एक दुनिया होती है, जो उनका इंतज़ार कर रही होती है।"
उसने मुड़ कर अर्चना की तरफ़ देखा। वह उदास थी। शायद उसके व्यवहार के कारण। वह तो उसे अपने दिल में पिता का स्थान दे चुकी थी। विकास को साथ लेकर उससे आशीर्वाद लेने आई थी, फिर वह क्यों इतना कठोर हो गया? क्यों....क्यों...
यही सोचते-सोचते रनबीर, आहिस्ता-आहिस्ता अर्चना के क़रीब आया और उसके सिर पर अपना हाथ रख, उसे अपने सीने से लगा लिया.....

---------------



Sunday, April 5, 2009

अपना-बेगाना

"हैलो मि. सिंह... हाऊ आर यू डूईंग टू डे?"
"आई एम डूईंग गुड, हाऊ एबाऊट यू डायना?"
"आई एम फ़ाईन... ओ. के. मि. सिंह... सी यू लेटर... मैं ज़रा लेट हूँ... इसीलिये जल्दी है... अभी मुझे अपना कार्ड स्वाईप करना है, आपको तो पता ही है, कि आजकल कितनी सख़्ती है। पाँच मिनट लेट हो जाओ तो पन्द्रह मिनट के पैसे कट जाते हैं, ओ. के सी यू..."
एक ही सांस में इतनी सारी बातें कहकर, डायना तेज़ी से सेन्ट्रल-चेक-प्वाईन्ट के अंदर चली गई।
मैं चैक-प्वाईंट के बाहर लिक्विड-ऐंड-जेल की पोज़ीशन पर खड़ा था जहाँ, सफ़र में जाने वाले पैसेंजर से उसके पास मौजूद तरल-पदार्थ का विवरण पूछना पड़ता है और समस्त १०० मि. लि. से कम तरल-वस्तुओं को एक पारदर्शी प्लास्टिक के बैग में डालना पड़ता है ताकि अंदर के ऑफ़िसर्स को बैग-निरिक्षण में आसानी रहे। डायना तो अंदर चली गई पर मैं उसकी कही बात को सोचता रहा।
ठीक ही कह रही थी वह। पियरस-एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी में काम करने वालों के दिनों में अब भारी तब्दीली आ चुकी थी। कुछ समय पहले जहाँ काम करने में सब बहुत आनन्द महसूस करते थे वहाँ अब भारी तनाव के दिन गुज़ार रहे थे। कैट्सा (कैनेडियन एअर ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी अथोरिटी) की हाल में लागू की गई नयी नीतियों ने सबको परेशानियों में डाल रखा था।
वैसे भी, इन्सान जब अधिक आज़ादी से पाबन्दियों में क़ैद होने लगता है तो तड़फड़ाता भी बहुत है। यही हाल सारे सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स का था। जिन्होंने हवाई-अड्डे के ख़ूबसूरत माहौल में आवारागर्दी भोगी हो, अब एक जगह खड़े होकर काम करने को मुसीबत समझ रहे थे।
ख़ैर, अंदर जाकर डायना कार्ड स्वाईप करके प्वाईंट-लीडर के निर्देशानुसार एक मशीन की फ़्रन्ट-पोज़ीशन पर काम करने लगी। प्रत्येक मशीन पर क़रीब पाँच से छे ऑफ़िसर्स हमेशा काम करते हैं। यात्री सर्वप्रथम फ़्रन्ट-पोज़ीशन वाले ऑफ़िसर्स के पास आता है, जो उसके सारे कैरी-ऑन-बैग एक्स-रे मशीन में डलवाता है और उससे सारी धातु-निर्मित वस्तुयें, जैकेट्स, शूज़, सैल-फोन इत्यादि लेकर एक ट्रे में डाल कर, उसे भी एक्स-रे मशीन में धकेलता है ताकि उसे आगे मैटल-डिटेक्टर से गुज़रते हुये कोई परेशानी न हो। मेटल-डिटेक्टर के पार स्कैनर हाथ में लिये एक और ऑफ़िसर होता है जो मेटल-डिटेक्टर पार करके आने वाले पैसेंजर को स्कैन करने के लिये तैयार रहता है। एक ऑफ़िसर एक्स-रे मॉनिटर पर होता है जो समय-समय पर ना-समझ में आने वाली या मनाही वाली वस्तुओं के निरिक्षण के लिये आगे खड़े आफ़िसर को संकेत देता रहता है। प्रत्येक आधे घंटे के बाद स्थानांतरण की सुविधा है जिससे हर ऑफ़िसर की पोज़ीशन बदलती रहती है। इस तरह स्थान बदलते हुये डायना एक्स-रे मॉनिटर तक पहुँच चुकी थी जब वह घटना घटी।
मैं तब तक बाहर लिक्विड-जेल वाली पोज़ीशन पर ही टिका था कि सुना--अंदर पेनीट्रेशन हुआ है और वह भी डायना वाली मशीन पर--ख़ुशी की बात यह थी कि डायना टैस्ट पास कर गई थी।
कैट्सा वाले हम सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स की परीक्षा लेने के लिये किसी भी पैसेंजर के बैग में नकली पिस्तौल, ग्रेनेड या कोई बम रख कर एक्स-रे मशीन पर भेज देते हैं। अगर हम उस वस्तु को सही तरीके से पहचान लेते हैं तो हमारी कार्य-दक्षता सिद्ध हो जाती है और हम टैस्ट पास कर जाते हैं, परन्तु यदि हम नहीं पहचान पाते तो हमें सस्पेंड किया जाता है और दोबारा ट्रेनिंग के लिये भेज दिया जाता है। इसे ही पेनीट्रेशन-टेस्ट अथवा इनफ़िल्ट्रेशन-टेस्ट कहा जाता है और इससे हर सिक्योरिटी ऑफ़िसर घबराता है। जब भी कोई ऑफ़िसर इस टेस्ट को पास करता है तो बाक़ी सबों को बेहद ख़ुशी होती है। उस दिन, डायना के पास होने पर तो मुझे विशेष रूप से ख़ुशी हुई थी।
डायना मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी। मुझे सिक्योरिटी में काम करते हुये क़रीब सात साल हो चुके थे पर डायना मेरी सिनीयर थी। मेरे ज्वाईन करने के बाद बहुत जल्द ही हमारी दोस्ती हो गई थी। हम दोनों आपस में अपना हर सुख-दुख सांझा करते थे। मुझे कैसी भी ज़रूरत क्यों न हो, डायना हर समय हाज़िर रहती थी। उसकी मुस्कुराहट से मुझे बड़ी तसल्ली मिलती थी। मैं भी उसके लिये सब-कुछ करने को तत्पर रहता था। मेरे घर भी उसका आना-जाना था। मेरी पत्नी से उसकी अधिक तो नहीं फिर भी थोड़ी बहुत बनती थी। हमारे हर दिन-त्योहार में वह शामिल होती थी।
बाद दोपहर जब डायना अपनी लंच-ब्रेक के लिये चैक-प्वाईंट से बाहर निकली तो मैं ख़ुशी से बोला,
"हे डायना.... कॉंग्रेच्यूलेशन... य़ू पास्ड द टेस्ट...आई एम वेरी हैप्पी..."
"थैंक यू मि. सिंह... इट वाज़ नॉट दैट डिफ़ीकल्ट..."
"हाँ, लेकिन जहाँ बाक़ी सारे पेनीट्रेशन से बहुत घबराते हैं वहाँ तुमको मैंने कभी विचलित होते हुये नहीं देखा। तुम पहले भी कई बार यह टैस्ट पास कर चुकी हो। बाई-द-वे क्या था बैग में?" मैंने पूछा
"केवल एक ग्रेनेड था जो बहुत सिम्पल था।"
"तुम्हारे लिये सिम्पल होगा पर दूसरों के लिये शायद कठिन होता।"
"हाँ मि. सिंह, यह भी ठीक है... सब भाग्य की बात है... ओ. के. मैं चलती हूँ... आप भी अपनी ब्रेक ले लीजिये, मैं लंच-रूम में आपकी वेट करती हूँ... बड़ी भूख लगी है.. ब्रेक का टाईम भी थोड़ा है..."
इतना कहकर वह लंच-रूम की ओर बढ़ गई। अपनी ब्रेक के लिये, मेरी नज़रें प्वांईट-लीडर को तलाश करने लगीं। अपनी ब्रेक लेकर मैं लंच-रूम की ओर गया तो डायना लंच-रूम के सामने फ़ूड-कोर्ट में पीज़ा-पीज़ा की दुकान के सामने पीज़ा लिये बैठी थी। बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने डायना को घेर रखा था और वह अपने साथ हुये टेस्ट का विवरण दे रही थी। मैं उसकी ओर देखता रहा।
टर्मिनल तीन पर शायद ही कोई ऐसा कर्मचारी हो जो सिक्योरिटी में काम करने वाली डायना को न जानता हो। उसका मुस्कुराता व्यक्तित्व हर किसी को प्रिय था। पैंतालीस वर्षीय इस रोमानियन लेडी के साथ ऊपर के सारे ऑफ़िसर्स भी स्नेह रखते थे। मेरे तो ख़ास दोस्तों में उसका अव्वल नम्बर था। वह जब भी काम पर आती, प्रत्येक सहकर्मी का हाल पूछती--एअरपोर्ट पर होने वाली नित नई घटनाओं का ज़िक्र करती और हर ज़रूरतमन्द की मदद के लिये हमेशा तत्पर रहती।
अभी कुछ माह पहले की बात है जब हमारे साथ काम करने वाले अब्दुल को दिल का दौरा पड़ा था, किस तरह डायना ने सब के साथ मिल कर उसकी भरपूर सहायता करने की कोशिश की थी। ज्योंहि अब्दुल के बीमार होने और अस्पताल में भर्ती होने का समाचार टर्मिनल पर पहुँचा कि डायना सजग हो उठी। उसने दो-तीन ऑफ़िसर्स को साथ लिया और सारे टर्मिनल से चन्दा इकट्ठा किया साथ ही गेट-वेल-सून का बड़ा सा कार्ड ख़रीद कर उस पर सारे ऑफ़िसर्स के दस्तख़त लिये। फिर शाम को हम कई लोगों को साथ लेकर फूलों का बड़ा सा ग़ुलदस्ता लिये अस्पताल अब्दुल को देखने जा पहुँची। अब्दुल गदगद हो उठा था। उसकी आँखे भर आईं थी।
"मैं यह अहसान कैसे.....चुका...." उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
"शान्त रहो अब्दुल," मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुये कहा था, "अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, तुम्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है... बातें तो बाद में होती रहेंगी।"
"हाँ अब्दुल... मि. सिंह ठीक कहते हैं...," डायना बोली, "तुम केवल आराम करो, जब तुम अच्छी तरह तंदरुस्त होकर वापस काम पर आओगे तब जी भर के बातें करेंगे।"
फिर डायना ने गेट-वेल-सून वाला कार्ड अब्दुल के सामने लगे बोर्ड पर लगाया और अब्दुल की पत्नी को एकत्रित किये हुये पैसे दिये और हम सब को लिये बाहर आ गई। वह नहीं चाहती थी कि अब्दुल ज़्यादा बातें करे, जिससे उसकी तबियत में कोई परेशानी खड़ी हो।
हम सिक्योरिटी वालों में यह एक बहुत अच्छी बात है। हम आपस में एक-दूसरे से कितनी ही खार खाते हों, कितना ही जलते हों, एक-दूसरे के काम में कितनी ही टांग अड़ाते हों, परन्तु जब कोई अब्दुल जैसी मुसीबत का शिकार होता है तो सब एकजुट होकर उसकी सहायता करने का संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। जिससे जो भी बन पड़ता है, वो करता है। इस तरह के सामूहिक कार्यों में डायना की हमेशा प्रमुख भूमिका हुआ करती थी।
क़रीब सत्रह-अठारह साल पहले डायना रोमानिया से प्रवास करके कनेडा आई थी। अपने पति जोसेफ़ के साथ मिल कर उसने इस देश में जी-तोड़ मेहनत की, जिसके फलस्वरूप एक छोटा सा घर उसने ले लिया था। एक ही बेटा था उसका जो अब शादी करके अलग रहने लगा था। अपने आरम्भिक दिनों में बेटे की वजह से वह फ़ैक्टरी में रात की शिफ़्ट किया करती थी। बाद में जब उसे एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी की जॉब मिल गई तो वह बहुत ख़ुश हुई थी क्योंकि एक तो यह जॉब शारीरिक रूप से आसान थी और दूसरी यह सुन्दर-स्वच्छ जगह पर साफ़-सुथरी और ज़िम्मेदारी वाली जॉब थी। पढ़े-लिखे लोगों के बीच काम करते हुये डायना ने शायद ही किसी को दुख पहुँचाया हो। वैसे भी, उसका ममतामयी चेहरा सबको बड़ा सुहाता था। परन्तु, ईश्वर के दरबार में जो चल रहा है-- उसे कोई पहले कैसे जान सकता है।
उन दिनों ऐच.बी.ऐस.(HBS) नामक एक नया डिपार्टमेन्ट बना था, जहाँ चेक-बैग्स को एक्स-रे करने की एक नई लाईन सैट की गई थी। नीचे बेसमेन्ट में १५-२० एक्स-रे की नई मशीने लगाई गई थीं जिन पर इतने ही ऑफ़िसर्स बैठ कर, सारे चैक-बैग्स का जहाज़ पर लादे जाने से पूर्व मॉनिटर पर निरिक्षण करते थे। यह सारी बैठने की पोज़ीशने थीं लेकिन यहाँ पर काम करने के लिये स्पेशल-कोर्स करके सर्टिफ़िकेट लेना पड़ता था जो कि कैट्सा ही मुहैया करवाती थी। मेरे और डायना के साथ और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने यह कोर्स पहले ही से किया हुआ था। सो, ऐच. बी. ऐस. के बनते ही हम सब की वहाँ पर डियूटी लगा दी गई। हम सब पाँचो दिन वहाँ बैठ कर काम करने लगे। हमारे दिन बड़े मज़े में कटने लगे, लेकिन कब तक?
चैक-लॉऊन्ज में सबों को खड़े होकर काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे लॉऊन्ज में काम करने वाले हम ऐच. बी. ऐस. में काम करने वालों से जलने लगे, जो उचित भी था। इस ईर्ष्या-अग्नि की आँच जब ऊपर के अफ़सरों तक पहुँची, तो उन्होंने और बहुत सारे लॉऊन्ज में काम करने वालों को ऐच. बी. ऐस. का कोर्स करवाना शुरू कर दिया। फलत: बहुत सारे लोग यह कोर्स करते गये और बैठने वाली पोज़ीशन में हस्त्क्षेप होता गया। हम क्यों नहीं बैठ कर काम कर सकते-- यह रवैया हर ऑफ़िसर्स का था। इस तरह डायना और मेरे साथ-साथ क़ाफ़ी सारे लोगों को ऐच. बी. ऐस. से निकाला गया, और बहुत से नये लोगों को डाला गया। आपस में खींचातानी रहने लगी। सब एक-दूसरे जलते थे, एक-दूसरे का शैड्यूल चैक करते थे और फिर एक-दूसरे से कुढ़ते थे। इस तरह के माहौल से डायना बहुत दुखी रहती थी। वह जब अत्यधिक परेशान होती तो मुझसे कहा करती,
"देखो न मि. सिंह.... कितना अच्छा माहौल हुआ करता था हमारे बीच.... अब सब, आपस में एक-दूसरे से इतना जलते हैं कि एक-दूसरे को देखना तक गंवारा नहीं करते। इससे तो अच्छा होता कि यह एच. बी. ऐस. बनता ही नहीं..."
"तुम ठीक कहती हो डायना.... हमारी आपस की लड़ाई के चलते कोई बड़ी बात नहीं कि यह बैठने वाली पोज़ीशन भी कहीं खड़े होने वाली न बन जाये, ख़ैर, छोड़ो इसको तुम बताओ, तुम डॉक्टर के पास चैक-अप के लिये कब जा रही हो?"
"आप भूल गये क्या? मैं पिछले हफ़्ते ही तो जा के आई हूँ, हाँ... टैस्ट की मेरी रिपोर्ट्स आनी अभी बाक़ी है अगले वीक तक वो भी आ जायेगी।"
"आई होप कि सब-कुछ ठीक होगा।"
"हाँ... वो तो होगा ही.... पर मुझे तो चिन्ता यहाँ की रहती है... आप देखना कुछ-न-कुछ तो होगा और जो होगा वो हमारे हक़ मे अच्छा नहीं होगा।"
"हाँ डायना..." मैं गम्भीरता से बोला, "आपस की इस खींचातानी से नुक़सान तो सबका ही होगा। यह तो तय है कि कुछ तो बदलाव आयेगा, हो सकता है हमारी यूनियन इसमें दख़लंदाज़ी करे।"
"नहीं... नहीं... शैड्यूल में हस्तक्षेप करना यूनियन के बस में नहीं है। और फिर, आपको तो पता ही है कि, यह यूनियन तो स्वयं डवांडोल हो रही है। पिछले कुछ अरसे से जिन लोगों को फ़ायर किया गया था, वो किसी नई यूनियन को लाने की अंदर-ही-अंदर जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं।" डायना नाख़ुश लेहजे में बोली।
यह सत्य भी था कि वर्तमान यूनियन से हम सभी असंतुष्ट थे। हम-सब उसे बदलने के पक्ष में थे और हमने उसे बदल भी डाला था। जिन चन्द लोगों को पिछले दो-तीन वर्षों में निकाला गया था, वो लोग अपनी नई यूनियन बनाकर वापस आना चाहते थे। हमारी हमदर्दी उनके साथ होने की वजह से नई यूनियन के आने का मार्ग साफ़ हो गया और चुनाव में पुरानी यूनियन की क़रारी हार हुई। तत्पश्चात, वही निकाले गये लोग फिर से टर्मिनल पर सक्रिय नज़र आने लगे।
डायना ने नई यूनियन को लाने में बड़ा परिश्रम किया था। डियूटी के अलावा भी उसने अपना अतिरिक्त समय देकर, यूनियन को चुनाव जीत कर स्थापित होने में भरपूर सहयोग दिया था। उसके सौहार्दपूर्ण रवैये ने, ऑफ़िसर्स के नज़रिये को बदलने में पूरी मदद की थी। डायना का मान सबके दिलों में और भी बढ़ गया था। सब उसे दिल-ही-दिल में बहुत दुआयें देते थे। मगर, विधाता के घर, सबकी दुआयें कहाँ क़ुबूल होती हैं।
उस दिन, जब मैं काम पर पहुँचा तो मैं कुछ लेट था। इसलिये क़रीब-क़रीब भागते हुये मैं ट्रांसबोर्डर लॉऊन्ज में पहुँचा, जहाँ कि मेरा काम करने का शैड्यूल था। कुछ देर काम करने के पश्चात मुझे यह अहसास हुआ कि लॉऊन्ज इतना बिज़ी नहीं है, फिर भी तमाम ऑफ़िसर्स पर एक चुप्पी-सी तारी है। मेरे ज़ोर देने पर, जब सब ने मुझे बताया तो मैं सन्न रह गया। बात डायना के बारे में थी। एक पल को मैं विश्वास न कर सका। डायना को कैंसर है-- यह सुन कर मेरा तो दिल ही दहल गया।
डायना मेरी बेस्ट-फ़्रैण्ड थी। उसके लिये मैं कुछ भी कर सकता था। वह भी किसी बात के लिये मुझे इन्कार नहीं करती थी। मुझे भी वह अपना ख़ास दोस्त समझती थी। हे भगवान, यह कैसा अन्याय कर रहा है तू मेरी दोस्त के साथ-- मेरे मन-मस्तिष्क में आँधियां चल रहीं थी।
लंच-ब्रेक होते ही मैं डायना की तलाश में भागा। वह मुझे लंच-रूम के बाहर फ़ूड-कोर्ट में ही मिल गई। मैंने उसे देखा तो हतप्रभ रह गया-- भय का नामो निशान नहीं, वही चेहरा वही मुस्कान।
"डायना..... डायना..... यह मैं क्या सुन रहा हूँ.....? यह सब झूठ है न....?" मैंने डायना से जल्दी-जल्दी पूछा।
"अरे छोड़िये न, मि. सिंह..... सच भी है तो क्या हुआ...?"
"तुम समझ नहीं रही हो डायना, यह बहुत गम्भीर बीमारी है, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं अपना दोस्त किसे बनाऊंगा?"
"इतना मोह न पालें मि. सिंह... हम सब हवा के झोंके की तरह हैं, आते हैं चले जाते हैं.... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... बी ब्रेव टू फ़ेस एनिथिंग मि. सिंह....।"
"नहीं डायना यह तो ईश्वर की सरासर नाइन्साफ़ी है..."
"यही तो ज़िन्दगी है मि. सिंह.... बहुत जल्दी मैं केमोथेरापी के लिये जा रही हूँ शायद कोई चमत्कार हो जाये..."
"होगा ज़रूर होगा..." मैंने पूरे विश्वास के साथ कहा।
" खैर छोड़ें, आईये खाना खायें.... आपकी भी यह पहली ब्रेक है..."
वह मुझे ज़बरदस्ती फ़ूड-कोर्ट में ले गई परन्तु मुझसे कुछ खाया न गया।
मैं सारी रात सो न सका। डायना का मुस्कुराता चेहरा हर पल दिमाग़ में छाया रहा। कभी कोई ख़्याल, तो कभी कोई ख़्याल। कनेडा जैसे देश में जहाँ आपके अपने देश के लोगों का ख़ून सफ़ेद हो जाता है, वहाँ कई बार ग़ैर मुल्क़ के लोग आपके इतने क़रीब आ जाते हैं, कि उनकी दोस्ती पर फ़ख़्र करने को मन करता है।
सिक्योरिटी में काम करते हुये मुझे सात साल हो चुके थे। इस दौरान मेरा, ज़िन्दगी के तरह-तरह के रंगों से पाला पड़ा था। एअर-पोर्ट पर विश्व के भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को मिला कर सिक्योरिटी की टीम बनाई गई है। यूं तो यह बहुत अच्छी बात है, कि जैसे भिन्न-भिन्न फूलों को लेकर तैयार किया गया गुलदस्ता अति मनमोहक और सुन्दर होता है मगर समय के चलते-चलते हर कम्यूनिटी में ग्रुपिज़्म जन्म ले लेता है-- वही बात यहाँ हुई है। हर किसी का अपना दल बन गया है। मज़ाक़ के तौर पर सबने एक दूजे के नाम भी रख छोड़े हैं, जैसे कि इंडियन-माफ़िया, पाकी गैंग, अरबी-ख़ज़ूरें और चायाना-टाऊन आदि। यहाँ ७० प्रतिशत औरतों ने ही जॉब्स पर क़ब्ज़ा कर रखा है जिनमें कामचोर और काहिलों की कमी नहीं है। प्वाईंट-लीडर भी अकसर, मर्दों को दरकिनार कर जब औरतों की हिमायत करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। कुछ तो ऐसे हैं, जो अपने प्रिय लोगों का ही पक्ष लेते हैं और उन्हीं का साथ देते हैं। ऐसे में डायना एक स्वच्छ और ताज़ा हवा की तरह टर्मिनल पर विचरती थी जिसके साथ हुई कुदरती नाईन्साफ़ी को मन नहीं मान रहा था।
मैं तमाम रात करवटें बदलता रहा। सुबह हृदय पर भारी बोझ लिये उठा। काम पर जाने का मन नहीं कर रहा था परन्तु डायना को देखने की तमन्ना लिये चला ही गया। सेन्ट्र्ल-चेक-प्वाईंट से गुज़रते हुये ज्योंहि डायना से सामना हुआ, उसका निस्तेज चेहरा देख ठिठक गया। मुझसे कुछ भी बोला न गया।
वैसे, बीमारी कोई भी शरीर को लग जाये यह अच्छी बात नहीं होती, परन्तु कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनका नाम इस क़दर ख़ौफ़नाक होता है कि सुनते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल भयभीत हो उठता है और चेहरा उदास हो जाता है। कैंसर भी उनमें से एक है।
"अरे... मि. सिंह.... कहाँ खो गये!" डायना ने मेरे चेहरे के आगे चुटकी बजाई।
"कुछ नहीं.... मैं चलता हूँ..... ब्रेक में मिलते हैं।" कह कर अपने आँसू छुपाता हुआ मैं अंदर चला गया।
कई बार देखने में आता है, कि ईश्वर में पूर्ण आस्था रखने वालों के साथ कभी अच्छा नहीं होता है। नेक और ईमानदार राह पर चलने वालों को ही जीवन में कड़ी परीक्षा से गुज़रना पड़ता है, जबकि ग़ैरज़िम्मेदार और बेईमान लोगों को अक्सर आरामदेह जीवन जीते हुये देखा जाता है। ऐसा क्यों-- इसका उत्तर ज़रा कठिन है।
कुछ समय पश्चात डायना को केमोथेरेपी के लिये अस्प्ताल में भर्ती कर लिया गया। उसका काम पर आना तो पहले ही कम हो चुका था। मैं, अब्दुल , पटेल, और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स लगातार उसे देखने अस्पताल जाते रहे।
अपने किसी अज़ीज़ को तिल-तिल कर मरते देखना कितना कठिन होता है--किस-किस तरह की यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है-- यह मैं प्रत्येक दिन, प्रत्येक पल महसूस कर रहा था मगर जोसेफ़, डायना का पति, न जाने किस मिट्टी से बना था?
वह अब पहले वाला जोसेफ़ न रहा। बदल गया था वह। जब डायना को उसकी सब से अधिक आवश्यकता थी, तभी उसने उसका साथ छोड़ दिया। कुछ दिन तो वह अस्पताल डायना को देखने आता रहा मगर फिर वह नहीं आया। और जब मैंने सुना कि वह तमाम घर-बार बेच कर किसी और स्त्री के साथ रहने लग गया है तो मुझे उससे घिन हो आई। अब डायना के पास अस्पताल से जाने के लिये कोई घर भी नहीं बचा था। उसका बेटा भी अपना परिवार लेकर किसी दूसरे शहर चला गया था। मैंने उसे अपने घर की पेशकश दी तो मेरी पत्नी के ख़्याल से उसने स्वीकार नहीं किया। ऐसे में उसकी दूर की एक बहन काम आई। अस्पताल से डायना उसके घर चली गई।
केमोथेरेपी के पश्चात डायना के बाल झड़ गये। उसके मुखड़े का स्वरूप बदल गया। मैं और अब्दुल उसे बराबर देखने जाते रहे। उसका चेहरा कांतिहीन भले हो गया हो मगर उसकी मुस्कान ज्यों-की-त्यों क़ायम थी। उस मुलायम मुस्कुराहट के पीछे,शायद सब-कुछ स्वीकार कर लेने का भाव था। प्रकृति की हर देन को उसने बड़े सहज भाव से क़ुबूल कर लिया था। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
केमोथेरेपी भी महज़ एक डॉक्टरी कोशिश ही निकली। कहते हैं, कि ज़हर, ज़हर को मारता है, मगर यहाँ, ज़हर से ज़हर ने मिलकर डायना को मार डाला।
आज डायना हमारे बीच नहीं है। वह जा चुकी है। एक सच्चे हमदर्द के खोने का ग़म तो मुझे है, परन्तु उसके और मेरे बीच की अदृश्य डोर का अहसास आज भी क़ायम है। बेगाने देश की बेगानी महिला से मिला अपनापन, मेरे दिल की गहराईयों से शायद ही कभी मिटे। आज टर्मिनल पर, अपनों में अपनापन तलाशती मेरी आँखें, कभी-कभी इस क़दर मायूस हो जाती हैं, कि इनको सिवाय जल के और कुछ नहीं मिलता। डायना सबकी थी, पर उसका कोई न था। इन्सानियत उसमें कूट-कूट कर भरी थी। लॉऊन्ज में काम करते हुये आज भी, उसके होने का भ्रम पैदा होता है। उसकी बातें जब चलती हैं तो मुझे लगता है, कि वह यहीं-कहीं है और अपनी मधुर मुस्कान बिखेरते हुये कह रही है,
"मि. सिंह.... कैसे हैं.... मैंने आपसे कहा था न, कि हम-सब हवा के झोंके की तरह हैं.... आते हैं, चले जाते हैं..... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... इसलिये बी ब्रेव मि. सिंह.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.......

Saturday, April 4, 2009

हमें मंज़ूर है

जैसा तुम कहो, हमें मंज़ूर है
जो भी तुम चाहो, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

बैठी रहो बस यूं ही मेरे रूबरू
तेरा ही ख़्याल मुझे तेरी जुस्तजू
तेरे लिये सब, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

रूठ जाना तेरा, फिर मान जाना
प्यारा-प्यारा सा अंदाज़ ये सुहाना
तेरी हर अदा, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

आँखें तेरी करें, प्यार का इज़हार
होंठ चाहे करें, जितना भी इन्कार
होंठों की मिठास, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

दूर तेरा जाना, हमें नामंज़ूर है
इतना तो बताओ क्या कुसूर है
साथ हर घड़ी का, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

पास कोई और तेरे, ये क़ुबूल नहीं
कोई और छूये तुझे, ये क़ुबूल नहीं
रहो मेरे दिल में, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

शिकवा नहीं कोई मेरे यार तुमसे
रंजिश भी नहीं है मुझे कोई तुमसे
तेरा हर गिला, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

कर लो क़ुबूल हमें, आज की रात
हम आयेंगे ज़रूर, आज की रात
आज हर शर्त, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

हमको तेरे आँसू, कभी मंज़ूर नहीं
चेहरे की उदासी, कभी मंज़ूर नहीं
तेरी हर ख़ुशी, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

ख़ुदा से मिला जो प्यार का ये तोहफ़ा
ज़िन्दगी बना देगा, ये ख़ूबसूरत तोहफ़ा
उसका ये उपहार, हमें मंज़ूर है

जैसा तुम कहो, हमें मंज़ूर है
जो भी तुम चाहो, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो............

Tuesday, March 31, 2009

तेरा शुक्रिया

शुक्रिया, तेरा शुक्रिया
मेरे यार तेरा शुक्रिया
इक बार नहीं केवल
लक्ख बार तेरा शुक्रिया
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया....



सांस की रफ़्तार का
दिल में उतरे प्यार का
वादा-ओ-इक़रार का
सुन्दर मेरे संसार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

तेरे रहमो-क़रम को मैं बयां
शब्दों में कर नहीं सकता
इस समन्दर को मैं अपने
हाथों में भर नहीं सकता

ज़िन्दगी की बहार का
ख़ूबसूरत यार का
यार के इज़हार का
दिलों के ऐतबार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

हर घड़ी, हर दिन तरसता
था, ये दिल तेरी दीद को
आ गया आराम दिल को
अब दर्शन हुये जो ईद को

ईद के त्योहार का
मनपसन्द उपहार का
बरसों के इंतज़ार का
आये अमन-ओ-क़्ररार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया.....

कभी छोड़ न देना मुझे तू
दिलवर मेरे मंझधार में
छोड़ के दुनिया-जहाँ सब
आया हूँ तेरे दरबार में

आशिकों के ख़ुमार का
इस जहां के सिंगार का
ख़ुदाया तेरे प्यार का
पल-पल के चमत्कार का
शुक्रिया, तेरा शुक्रिया......

कह लिया और सुन लिया है
दिल का अफ़साना हुज़ूर
दे सभी को सुकूने-दिल तू
अब न तड़पाना हुज़ूर

इस दरोदीवार का
रहमत के आबशार का
दौलत बेशुमार का
मेरे परवरदीगार का

शुक्रिया, तेरा शुक्रिया
मेरे यार तेरा शुक्रिया
इक बार नहीं केवल
लक्ख बार तेरा शुक्रिया..........

Monday, March 30, 2009

जीवन का सफ़र

जीवन का सफ़र
कब किस तरफ़
मुड़ जाये,
कौन किससे
कहाँ मिल जाये
और कौन किससे
कहाँ बिछड़ जाये,
अनिश्चित सा, अनिर्मित सा
अपरिचित सा, आशंकित सा,
कहाँ न जाने
क्या लॉक हो जाये,
कहाँ न जाने क्या
ब्लॉक हो जाये,
कौन कब
हिट हो जाये
कौन कब
चित हो जाये,
ऐसा क्यूं है?
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन
ऊपर-नीचे, अंदर-बाहर
हर तरफ़
सवाल-ही-सवाल,
उत्तर ग़ुम, जवाब लापता
चलता नहीं ’उसका’ पता,
बस,
सन्नाटा ही तारी है
’उसकी’
तलाश अभी जारी है.......

Tuesday, March 24, 2009

घड़ी भर के लिये आ ही जाईये

सारी उम्र न सही, घड़ी भर के लिये आ ही जाईये
इस ग़मगीन ज़िन्दगी में ज़रा मुस्कुरा ही जाईये

आपके आने से मिल जायेगी दिल को तस्कीन
इस रेगिस्तां में प्यार की बूंदे बरसा ही जाईये

न जाने कब से तारी है इक सन्नाटा सा यहाँ
आहट से क़दमों की, हलचल मचा ही जाईये

क्या पता आपको कैसे कटीं, घड़ियां इंतज़ार की
अब न सतायें और, लगी दिल की बुझा ही जाईये

कितना है तन्हा आज, दुनिया की भीड़ में ’निर्मल’
मरहले उसके आकर आप, अब सुलझा ही जाईये

Sunday, March 15, 2009

अरमान

"अरे, सुधीर बाबू... आप यहाँ..., व्हाट ए प्लीजेन्ट सरप्राईज़" सरोज ने जैसे ही सुधीर को देखा तो मारे ख़ुशी के बोल पड़ी। वह फ़ार्मेसी से दवायें लेकर निकल रही थी और सुधीर अंदर दाख़िल हो रहा था।
"ओह, सरोज... कैसी हो तुम?" सुधीर के मुँह से निकला।
"ठीक हूँ...आपका क्या हाल है? एक ही शहर में रहते हुये भी, हम वर्षों से मिले नहीं और आज अचानक... यह भी विचित्र संयोग है न..."
"हाँ भई... ज़िन्दगी की भाग-दौड़ ही ऐसी हो गई है कि कुछ देर के लिये साथ मिलता है फिर दूरी हो जाती है। रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं। बाई द वे, तुम सुनाओ, तुम्हारा क्या हाल है?" सुधीर ने दोबारा पूछा।
"कहा न कि ठीक हूँ... आप यहाँ कहाँ?"
"मैने अपनी कुछ दवायें लेनी थीं, इसीलिये मैं इधर आया था"
"मैं भी अपनी दवाओं के ही सिलसिले में यहाँ आई थी... ख़ैर, आपने कॉफ़ी पीने की आदत छोड़ दी या अभी भी पीते हैं?"
"कभी-कभार पी लेता हूँ... वैसे अब सेहत ज़्यादा कैफ़ीन की इजाज़त नहीं देती है।"
"चलिये फिर... आप अपनी दवायें ले लें... मैं यहीं इंतज़ार करती हूँ, फिर कॉफ़ी-शॉप में चलकर कॉफ़ी पीते हैं... क्यों ठीक है न?"
"ठीक है, तुम रुको... मैं अभी आया।"
सुधीर ने दवायें लीं और धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ सरोज के क़रीब आया। सरोज ने जब उसे ध्यान से देखा तो वह हैरान रह गई। सुधीर क़ाफ़ी ढल चुका था। उसकी चाल बता रही थी कि अब वह पहले वाला सुधीर नहीं रह गया। सिर में गंज, चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों पे चश्मा और चाल में लड़खड़ाहट, सारी बातें सुधीर के बुढ़ापे की गवाही दे रही थीं।
दोनों साथ-साथ चलते हुये कॉफ़ी-शॉप पर पहुँच गये।
"सिर्फ़ कॉफ़ी ही लोगी या कुछ और भी खाने को..." सुधीर ने पूछा।
"कुछ और भी चलेगा..." सरोज ने तेज़ी से कहा, वह इतने दिनों बाद सुधीर को पाकर उसके साथ कुछ समय बिताना चाह रही थी। सुधीर ने उसे कहीं बैठने को कहा और स्वयं कॉफ़ी लेने चल पड़ा।
मॉल के फ़ूड-कोर्ट में काफ़ी चहल-पहल थी। बाद-दोपहर का समय था। स्कूलों की छुट्टी हो चुकी थी। तमाम छात्र-छात्राओं ने मॉल में काफ़ी गहमा-गहमी कर रखी थी। सरोज ने इधर-उधर देखा और एक कोने में लगे टेबल पर जाकर बैठ गई। अब वह ध्यान से सुधीर की ओर देखने लगी।
सुधीर कॉफ़ी-शॉप के सामने लगी लाईन में खड़ा हो गया। सरोज से मिलकर वह भी स्वयं को प्रसन्नचित्त महसूस कर रहा था और सरोज, वह तो उसी के बारे में सोचे जा रही थी।
सुधीर और सरोज एक ही फ़र्म के लिये काम करते थे। क़रीब दस साल तक दोनों ने एक साथ काम किया था। जब सरोज ने वहाँ ज्वाईन किया था तब सुधीर वहाँ मैनेजर के पद पर नियुक्त था। शुरू से ही दोनों में एक ताल-मेल सा बैठ गया था। अथवा, यूं कहें कि उनके विचार आपस में मेल खाते थे तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी।
एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट करने वाली इस फ़र्म में सुधीर ने अपने बल पर ही उन्नति की थी। एक हैड-क्लर्क से लेकर मैनेजर तक का सफ़र आसान नहीं था। इसमें उसकी दिन-रात की मेहनत शामिल थी। फ़र्म वाले उससे बेहद ख़ुश थे। दो पुत्रों और पत्नी के साथ वह शहर के मध्य एक आलीशान फ़्लैट में रहता था। अपने जीवन के वह पचास वर्ष पूरे कर चुका था जब सरोज उसके जीवन में आई थी।
"मैडम जी, कॉफ़ी हाज़िर है..." सुधीर ट्रे लिये सामने खड़ा था।
ट्रे में खाने का सामान भी काफ़ी था। दोनों आहिस्ता-आहिस्ता स्नैक्स खाते हुये कॉफ़ी की चुस्कियां लेने लगे। दोनों में से किसी को भी जल्दी नहीं थी। मनचाहा साथ हो तो समय को पकड़ कर रखने को मन करता है। सुधीर और सरोज अपने-अपने तरीके से अतीत में झांकने का प्रयास कर रहे थे।
उस समय सरोज पैंतीस साल की भरपूर नवयौवना थी। शादी हो चुकी थी और दो बच्चों की माँ थी। पति की तबादले वाली नौकरी की वजह से एक शहर से दूसरे शहर आना-जाना लगा रहता था। इस नये शहर में आकर जब सरोज ने नौकरी की तलाश शुरू की तो सुधीर वाली फ़र्म में जगह मिलने पर उसे बड़ी ख़ुशी हुई। फिर ज्वॉईन करते ही सुधीर जैसा मनचाहा दोस्त मिल गया तो वह स्वयं को और भी भाग्यशाली समझने लगी।
"अशोक कैसा है?" सुधीर ने कॉफ़ी का घूँट भरते हुये पूछा।
"ठीक ही होगा" सरोज ने अनमने से स्वर में कहा। अशोक, सरोज के पति का नाम था।
"ठीक ही होगा का क्या मतलब?"
"अब हम साथ नहीं रहते, हमारा तलाक़ हुये एक अरसा हो चुका है।" कहते हुये सरोज ने कॉफ़ी का मग उठा कर होंठों से लगा लिया।
"ओह... आई एम सॉरी"
"इसमें अफ़सोस की कोई बात नहीं... इट्स ओ. के."
"और बच्चे?"
"दोनों की शादी हो चुकी है। बेटी आस्ट्रेलिया चली गई है और बेटा भारत में होने के बावजूद भी दूसरे शहर में रहता है।"
सरोज के पति में शिक्षित होने के बावजूद एक ऐब था। वह शराब का बहुत आदी था। उसका यह नित्य का शौक़ बन चुका था। यह तो सर्वविदित है कि जिस घर में शराब का प्रवेश होता है, वहाँ से सुख-शान्ति की विदाई हो जाती है। ऐसा ही सरोज के साथ हुआ था। घर की अशान्ति से वह बेहद परेशान रहती थी। अशोक की दारू की आदत ने सरोज के जीवन में ज़हर घोल रखा था। वह सरोज की ज़रा भी परवाह नहीं करता था। यहाँ तक कि नशे की लोर में सरोज पर हाथ भी उठा बैठता था। बच्चों से सरोज को बेहद लगाव था। उन्हीं की वजह से वह सब कुछ सहे जा रही थी। उसने बहुत कोशिश की कि अशोक की यह बुरी लत छूट जाये पर कोई लाभ न हुआ। वह शराब के ही कारण अपना काम भी सही तरीक़े से नहीं कर पाता था। सरोज बहुत बिखरी-बिखरी सी रहा करती थी। इन्हीं मानसिक परेशानियों में घिरे-घिरे वह सुधीर की ओर झुकने लगी थी।
"तो तुम आजकल क्या करती हो? मेरा मतलब है कि स्वयं को व्यस्त रखने का क्या साधन अपना रखा है, जहाँ तक मैं जानता हूँ तुम ख़ाली कभी नहीं रह सकती।" सुधीर ने स्नैक्स खाते हुये पूछा
"बेटा और बहू दोनों ने सेहत की वजह से मुझे काम करने से मना कर रखा है। वही गुज़ारे लायक पैसे भेज देते हैं। दिन भर घर में होती हूँ। कभी-कभी लाईब्रेरी या बाज़ार में घूमने निकल जाती हूँ।" वह फिर ठहर कर बोली, "सुधीर बाबू, ज़िन्दगी के तनाव ने रोगों की शक़्ल में कुछ तुहफ़े दिये हैं जिनमें हाई-ब्लड प्रैशर, डाईबेटीज़ और डिप्रैशन प्रमुख हैं, उन्हीं के साथ गुज़ारा कर रही हूँ। सोचती हूँ, कि बुढ़ापे में रोग अवश्य होने चाहिये, कम-से-कम तन्हा आदमी उनमें व्यस्त तो रहता है।"
"गम्भीर बातों को सहजता से लेने की तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं।" सुधीर ने उसकी आँखों में झांकते हुये कहा।
कभी सुधीर भी ऐसा ही था। वह और सरोज दफ़्तर में हल्का-फुल्का माहौल बनाये रखते। चुटकले सुनाने में सुधीर का कोई मुक़ाबला नहीं था। मैनेजर होने के बावजूद भी उसका अपने सहयोगियों के प्रति रवैया मित्रतापूर्ण था। जबसे सरोज आई थी, वह और भी ख़ुश रहने लगा था। वह उम्र में सरोज से क़ाफी बड़ा था पर उन दोनों को इसका अहसास कभी नहीं होता था। सरोज घर की परेशानियों को दफ़्तर के माहौल में आकर भूल जाती थी। सुधीर उसके लिये किसी मसीहे से कम नहीं था। वह भी उसे ख़ुश करने की ख़ातिर कभी-कभी ‘मैडम जी’ कह कर बुलाता था। उसे ज़रा सा भी उदास देखता तो झट कोई हल्की बात करके उसे हंसा देता था। इस तरह वे दोनों एक-दूसरे के क़रीब आते जा रहे थे।
"आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया? आपकी रिटायरमेंट की ज़िन्दगी कैसी कट रही है?" सरोज ने कॉफ़ी की चुस्की लेते हुये पूछा।
"क्या बताऊँ, कुछ बताने लायक है ही नहीं। दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है। दोनों क़रीब-क़रीब ही रहते हैं, मगर जुदा-जुदा मकानों में। उर्मिला को गुज़रे दो साल हो चुके हैं।"
"ओह... आई एम सॉरी... आप फिर कहाँ रहते हैं?"
"कभी एक बेटे के घर तो कभी दूसरे बेटे के घर आता-जाता रहता हूँ। दो पोते और एक पोती है, बस उन्हीं को संभालता रहता हूँ। जिस बेटे को ज़रूरत होती है फोन कर देता है, मैं उसके घर पहुँच जाता हूँ।" सुधीर ने ज़रा गम्भीरता से कहा।
"मगर... क्या आप ख़ुश हैं इस तरह की ज़िन्दगी से?"
’मुझे नहीं पता..." सुधीर की आवाज़ में दर्द उभरा, "दुख को सहते-सहते हम उसके इतने आदी हो जाते हैं कि एक सीमा के बाद, दुख दुख नहीं सुख मालूम होने लगता है।"
"आप ठीक कहते हैं, अशोक को सही रास्ते पर लाने का मैंने भरसक प्रयास किया परन्तु वह अन्त तक नहीं सुधरा। मैं हार गई और तब मैंने उसे ही छोड़ देने का हौसला किया और बच्चे लेकर अलग हो गई। आज जब बच्चों को नई ज़िन्दगी मिल गई है तो इससे ख़ुशी महसूस होती है।" सरोज ने अपनी बात बताई।
"ख़ुश होना और ख़ुशी महसूस करना दो अलग-अलग पहलू होते हैं सरोज..."
"हाँ... आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। इस तरह की ख़ुशी के साथ-साथ एक ख़ालीपन भी खटकता है जिसकी तह से दर्द की एक टीस बराबर उठती रहती है। आपको शायद याद हो मैंने तो अशोक को कभी का छोड़ दिया होता अगर आपने मुझे न रोका होता।"
कॉफ़ी का मग खाली हो चुका था। बातों-बातों में कॉफ़ी कब समाप्त हुई पता नहीं चला।
"क्या ख़्याल है, एक-एक कप और हो जाये।" सुधीर ने सरोज से पूछा।
सरोज ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो वह फिर कॉफ़ी लेने चला गया।
सरोज सही कह रही थी। सुधीर बेशक सरोज को मन-ही-मन चाहता था परन्तु वह अपना और उसका घर बरबाद नहीं करना चाहता था। उसने हज़ारों दफ़े रुपये-पैसे से सरोज की मदद की होगी, सरोज को अनगिनत उपहार दिये होंगे मगर बदले में उसने कभी उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाने की कभी कोशिश नहीं की।
लेकिन, इतने पर भी उनका साथ ज़्यादा नहीं चल सका था। क्योंकि आहिस्ता-आहिस्ता दफ़्तर में सुधीर और सरोज को लेकर बातें होने लगीं। कोई उनके परिवार वालों से हमदर्दी जताता कोई उनकी उम्र के उलाहने देता। सुधीर के व्यवहार के कारण कोई खुल के कुछ नहीं कहता था, लेकिन बात का सफ़र दूर तक का होता है। चलते-चलते बात अशोक तक पहुँच गई जिसने घर में कोहराम मचा दिया। सरोज तो पहले ही अशोक के व्यवहार से बहुत दुखी थी, तंग आकर अशोक का घर छोड़ कर वह सुधीर के पास आ गई मगर सुधीर ने उसे समझा-बुझा कर वापस अशोक के पास भेज दिया था। सुधीर अगर चाहता तो ज़रा सा सहारा देकर सरोज को उसके पति से तोड़ सकता था, मगर उसने ऐसा नहीं किया।
"क़ॉफ़ी नम्बर दो हाज़िर है, मैडम जी..." सुधीर ने क़ॉफ़ी मेज़ पर रखते हुये कहा।
"आप अपने लिये फिर लार्ज कॉफ़ी ले आये, कुछ अपनी सेहत का भी ख़्याल है आपको कि नहीं?"
सुधीर के चेहरे पर दर्द झलका, शायद किसी ने बहुत दिन बाद उसकी सेहत की चिन्ता व्यक्त की हो।
"आपने बताया नहीं कि आप कौन सी दवायें लेने फ़ार्मेसी में गये थे..." सरोज ने कॉफ़ी का घूँट भरा और पूछा।
"मैडम जी... ये जो अपना दिल है न... यह कुछ अधिक ही धड़कने लग गया था। इधर-उधर ताका-झांकी बहुत करने लग गया था। जब बहुत उछलने लगा तो डाक्टरों ने इसे बड़ी मेहनत से क़ाबू किया और दवाओं की बंदिशों में जकड़ दिया।" सुधीर ने शायराना लेहज़े में कहा।
"आप सही तरीके से नहीं बता सकते क्या...?" सरोज तुनक उठी।
"ज़रूर ज़रूर... एक बार बाई-पास सर्जरी हो चुकी है, घुटने का ऑप्रेशन भी हो चुका है। नज़र कमज़ोर हो चुकी है, रक्तचाप भी रहने लगा है, कहने का मतलब है कि जिस बिमारी का नाम लो मौजूद मिलेगी।" सुधीर ने उदास होते हुये कहा, "इसलिये हर माह फ़ार्मेसी के दरवाज़े पर मत्था टेकने जाना पड़ता है।"
वह ग़लत नहीं था। आयु तो थी ही, परन्तु पत्नि के आकस्मिक से और बच्चों के अपनी ज़िन्दगी में ब्यस्त हो जाने के कारण वह बहुत अकेला पड़ गया था। हमारे बहुत से शारीरिक रोगों की जड़ें हमारे अपने खाने-पीने के ढंग और मानसिक संतुलन में छुपी होती हैं।
"एक और बात बताईये," सरोज ने बात बदली, "आपके पास शहर के बीचो-बीच एक भब्य फ़्लैट था उसका क्या हुआ?"
"बेटों ने अपनी-अपनी शादी के बाद दो अलग-अलग मकान लेने की सोची, तो उस वक्त उनकी पेशगी रक़म देने के लिये बाप की वही जायदाद काम आई।" सुधीर ने गम्भीर स्वर में कहा।
सरोज भी चुपचाप बैठी थी।
"वैसे एक बात कहूँ सरोज..." सुधीर कॉफ़ी समाप्त करते हुये फिर गम्भीरता से कहा।
"हाँ हाँ... कहिये न..."
"मैंने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं परन्तु जो दस वर्ष मैंने तुम्हारे साथ काम करते हुये गुज़ारे हैं वो मेरी ज़िन्दगी के बेहतरीन दिनों में से हैं। आज भी जब उनको याद करता हूँ तो रोमांचित हो उठता हूँ।
कॉफ़ी का मग रख कर सुधीर उठ खड़ा हुआ और सरोज से बोला।
"अच्छा मैडम जी, चलता हूँ, हाँ... अगर ईश्वर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे।"
इतना कह कर सुधीर मुड गया। सरोज को लगा कि वह सुधीर को रोक ले। एक बार वह सुधीर को छोड़ चुकी है, अब दोबारा यह ख़तरा मोल न ले। आजकल सुधीर बहुत अकेला रह गया है। उसका शरीर भी साथ नहीं दे पा रहा है। आज उसे एक साथी की आवश्यकता है जो उसका ध्यान रख सके। दूसरी तरफ़ वह स्वयं भी अकेली है और सुधीर को पसन्द भी करती है। जहाँ मन मिलें हों वहाँ दूसरी बातों की कोई अहमियत नहीं रह जाती है। वैसे भी, सुधीर के लाखों अहसान हैं उस पर, आज शायद वक्त आ गया है उन अहसानों का कुछ तो क़र्ज़ चुकाया जा सके। रही उम्र की बात तो अरमानों की नगरी में आयु का लेखा-जोखा नहीं होता, हर उम्र के अपने अरमान और ज़रूरत होती है जिनकी उचित पूर्ति कोई गुनाह नहीं है। अपने अरमान पूरा करने का आज उसे दोबारा अवसर मिला है तो वह इसे क्यों छोड़े। फिर उसे ख़्याल आया कि लोग क्या कहेंगे। सुधीर और उसकी आयु को उछाला जा सकता है। तभी उसके दिल से आवाज़ आई कि ऐसे लोग तो कभी किसी के सगे नहीं होते। कुछ ही क्षणों में सरोज कितनी ही बातें सोच गई। फिर वह तत्काल उठी और जाते हुये सुधीर के कंधे पर हाथ रख कर बोली,
"सुधीर बाबू...ईश्वर तो यही चाहता है कि अब हम कभी न बिछड़ें......

Friday, March 13, 2009

शोर न मचाओ

आने वाला है मेरा महबूब, शोर न मचाओ
राज़ की एक बात है बताई, शोर न मचाओ

आवाज़ों का हुजूम देख कहीं भड़क न जाये
ख़ुद को रखो ज़रा संभाल, शोर न मचाओ

मालूम नहीं किस राह से है वो आने वाला
चुपचाप बस देखते जाओ, शोर न मचाओ

फिर से न कहीं तड़प उट्ठे मेरा दर्दे दिल
अभी-अभी आँख है लगी, शोर न मचाओ

तन्हाई और ख़ामोशी का बेहद शौकीन है वो
तन्हा सी मह्फ़िल सजाओ, शोर न मचाओ

शोरोग़ुल कभी मुफ़ीद नहीं सेहत के लिये
सेहत को न दाँव पे लगाओ, शोर न मचाओ

ख़ामोश रहे तो दस्तक उसकी सुन ही लोगे
आयेगा वो मौसम ज़रूर, शोर न मचाओ

शोर जो मचाया तो ख़ुद का होगा इख़्तमाम
तमहीद का दामन न छोड़ो, शोर न मचाओ

वक्त के माथे पे होगा, नाम तुम्हारा इक दिन
क्यों देते हो वक्त की दुहाई, शोर न मचाओ

तमन्नाओं का मचलना, ख़्वाहिशों का उबलना
इन्हें ख़ामोशी की ज़द में लाओ, शोर न मचाओ

न रखो तुम फ़िरदौस की आरज़ू किसी दम
जिस्म को जन्नत बनाओ, शोर न मचाओ

ज़रा-ज़रा सी मुश्किल पे यूं तड़पा न करो
दर्द को गले लगाओ निर्मल, शोर न मचाओ

Tuesday, March 10, 2009

दिल अपना दीवाना है

दिल अपना दीवाना है
इसने तुझको पाना है

सोच रहा है कबसे ये
इक हमराज़ बनाना है

बहकी-बहकी बातें हैं
बहका हर अफ़साना है

तोड़ सितारा आस्मां का
धरती पर ले आना है

सपने सारे पूरे होंगे
पास तुझे जब लाना है

मिल जायें सितारे अपने जो
तेरा साथ निभाना है

आना-जाना सुख-दुख का
क़िस्मत का नज़राना है

दरिया सोच के बहते हैं
सपना सच हो जाना है

झांको तुम मत इधर-उधर
संग तेरे पैमाना है

मानो निर्मल की वर्ना
उसने चलते जाना है

Monday, March 9, 2009

एक

जबकि
सब-कुछ एक था,
एक सूरज, एक चाँद
एक ही आस्मां था,
जाने क्या हुआ
वो एक टूटता गया,
धीरे-धीरे अनेकता में
फूटता गया,
फिर
भिन्नता में वो
विभाजित हुआ
अहम से लेकिन
पराजित हुआ,
जंगल बने, पर्वत बने
सितारे बने, झरने बने,
नदियाँ बनीं, शाखायें बनीं
राहें बनीं, मंज़िलें बनीं,
लालसाओं का घेरा
बढ़ता गया
तमन्नाओं का शिकंजा
कसता गया,
परत पर परत
चढ़ती गई
वास्तविकता
दबती गई,
दब गया या दबाया गया
भेद न इसका पाया गया,
ओस की बूँद मैली हुई
नूर की जोत धुँधली हुई,
पूछने वाले पूछ्ते हैं कि
अंदर है तो कहाँ है
बाहर है तो कहाँ है?
कोई तो बताये
वो एक
अब मिलता कहाँ है?
कहने वाले फिर भी
कहते हैं कि
पक्षियों के चहचहाने में
बच्चों के मुस्कुराने में,
फूलों के खिलने में
दिलों के मिलने में,
माँ के प्यार में
कुदरत के विस्तार में,
एकम का ही
बिम्ब है
उसी का प्रतिबिम्ब है,
उसका ही प्रसार है
उसी का चमत्कार है,
चाहिये तो बस
सबर चाहिये
देखने वाली इक
नज़र चाहिये...

Sunday, March 8, 2009

अस्थि कलश (भाग १)

टोरंटो एअरपोर्ट से अंतराष्ट्रीय उड़ानों का सिलसिला जारी था। दोपहर के क़रीब दो बज रहे थे। दुनिया के कोने-कोने में जाने वाले यात्रियों से हवाई अड्डे का चेक-इन एरिया खचाखच भरा हुआ था। रह-रह कर अनांऊसिंग भी चल रही थी, जिसमें यात्रियों को जाने वाली उड़ानों के बारे में बताया जा रहा था और साथ ही उन्हे सफ़र के दौरान ले जाने वाली वस्तुओं के बारे में भी समझाया जा रहा था। सितम्बर ११ के बाद से दुनिया के प्रमुख हवाई अड्डों के सुरक्षा प्रबन्धों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है। यात्रियों को अपनी फ़्लाईट से क़रीब चार घंटे पहले हवाई अड्डे पँहुचना पड़ता है और उनके बड़े साजो-सामान से लेकर छोटी से छोटी चीज़ की भी बड़ी बारीकी से जाँच होती है। किसी भी टूथ पेस्ट, क्रीम या कोई सा भी तरल पदार्थ १०० मि. ली. से ज़्यादा नही ले जाया जा सकता है। इस तरह की बहुत सी अड़चनें खड़ी हो चुकी हैं। इन सारी बातों को हवाई अड्डे पर अनाऊंसिंग के जरिये यात्रियों को पहले ही सूचित किया जाता है ताकि वो इस क़िस्म का अनावश्यक सामान बाहर ही छोड़ दें या उसे अपने चेक बैग में डाल दें, फिर भी कितने ही यात्री ऐसा सामान लेकर अंदर पहुँच जाते हैं जिससे सुरक्षा कर्मचारियों को यह सामान निकालने को बाध्य होना पड़ता है।
यात्रियों की लम्बी लाईनें हर एअर लाईन के काऊन्टर पर लगी हुई थी। जिन यात्रियों के पास अभी वक्त था या जिनकी फ़्लाईट अभी देर से जानी थी, वो सारे कुर्सियों पर पीठ टिकाये बातों में मशरूफ़ थे। बच्चों ने अलग अपना शोर मचा रखा था, कोई किसी के पीछे दौड़ रहा था तो कोई सामान वाली गाड़ी वापस मशीन में डाल कर पच्चीस सेन्ट वापस लेकर ख़ुश हो रहा था। किसी की आँखों में विदाई के आँसू थे तो किसी की आँखों में छुट्टियों पर जाने की चमक थी। फ़ूड-कोर्ट में अपनी धूम मची हुई थी। कोई कुछ खा रहा था, तो कोई कॉफ़ी या बियर की चुस्कियां ले रहा था। हवाई अड्डे के कर्मचारी भी अपनी रंग-बिरंगी पोशाकों में इधर से उधर जाते हुये देखे जा सकते थे। इसी तरह की चहल-पहल और गहमा-गहमी के बीच बलदेव धीरे-धीरे अपना बैग उठाये हवाई अड्डे में दाख़िल हुआ था।
बलदेव सिंह क़रीब पचास-पचपन साल का एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति था। आम सिक्खों की तरह उसके कपड़े भी साधारण ही थे। उसने हल्के नीले रंग की कमीज़ और काले रंग की ढीली-ढाली पैन्ट पहनी हुई थी। उसकी पगड़ी का रंग भी आस्मानी था। इस बीच उसकी सफ़ेद दाढ़ी खुली हुई थी जो अच्छी लग रही थी परन्तु उसकी आँखों से झांकती उदासी को छुपाने में असमर्थ थी। धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ वह के. एल. एम. के काऊन्टर के सम्मुख लगी कुर्सियों के क़रीब आया और एक ख़ाली कुर्सी देख कर उस पर बैठ गया। अपना बैग उसने अपनी गोद में रखकर अपने हाथ उस पर यूं रख लिये मानों उसमें कोई कीमती सामान हो। उसने सरसरी नज़र से हवाई अड्डे का जायज़ा लिया और अपनी पुश्त कुर्सी से टिकाते हुये आँखें बन्द कर ली। उसकी फ़्लाईट में अभी क़ाफ़ी देर थी। हवाई अड्डे के शोर-शराबे के बीच बलदेव अपनी बन्द आँखों के अन्दर ही अन्दर अतीत की दुनिया में डूबता चला गया।
जालन्धर से पठानकोट जाने वाली मुख्य सड़क पर इसापुर नाम का एक गांव है जहाँ बलदेव अपने पुरखों से मिले मकान में रहता था। थोड़ी-बहुत ज़मीन भी उसके पास थी जो उसने ठेके पर दे रखी थी। बलदेव के पिता ने भले उसके लिये बहुत सारी ज़मीन-जायदाद न छोड़ी हो परन्तु उसने बलदेव को गांव के स्कूल से मैट्रिक पास करवा कर, फिर जालन्धर आई. टी. आई से तीन साल का लाईनमैन वाला कोर्स करवाके बिजली बोर्ड में भर्ती करवा दिया था जिसकी वजह से बलदेव को जायदाद की कमी कभी महसूस नही हुई और उसकी ज़िन्दगी सुगमता से कटती चली गई। उसकी शादी भी सही समय पर राजवीर उर्फ़ रज्जी के साथ हो गई जिससे उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम विक्रमजीत था जिसे सब विक्की कह कर बुलाते थे।
बलदेव के पिता अनपढ़ होने के बावजूद एक ज़हीन किस्म के इन्सान थे। उनकी बातें बहुत गूढ़ अर्थ रखती थीं। बलदेव को समझाते हुये वे अक्सर कहा करते थे,
"बलदेव पुत्तर, जायदाद तो अस्थाई होती है, ज्ञान सारी उम्र का साथी होता है। शरीर में जितना लहू ज़रूरी होता है उतनी ही जीवन में विद्या ज़रूरी होती है।"
बहुत सही कहा करते थे पिताजी, वह कई बार सोचता।
"एक बात और याद रखना पुत्तर" वो आगे कहते, "सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नही जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं। जीवन केवल एक गुण वाला दीपक नही बल्कि कई गुणों से चमकने वाला सूर्य होता है जो स्वयं तो चमकता ही है दूसरों को भी रोशन करता है।"
इस तरह की सैंकड़ों बातें थीं जो बलदेव के जीवन में ढल गई थीं। उसने अपने पुत्र विक्रमजीत यानि विक्की को भी इसी अंदाज़ में पालने की कोशिश की थी। विक्की बी. ए. फ़ाईनल की तैयारी में ही था जब उसके ज़ेहन में विदेश जाने का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। एक दिन घर में बातों-बातों में वह बलदेव से बोला,
"पिताजी, मैं अपने पेपरों के बाद कनेडा जाना चाहता हूँ।"
"क्यों?" बलदेव ने पूछा, " आख़िर हमें यहाँ किस चीज़ की कमी है जो तुम बाहर हमसे दूर जाना चाहते हो।"
"क्योंकि मुझे यहाँ भारत में कोई ख़ास तरक्क़ी के रास्ते नज़र नही आते हैं।" विक्की ने जवाब दिया, " भविष्य नाम की कोई चीज़ यहाँ दिखाई ही नही देती है। यहाँ जीवन गुज़ारना दिनों दिन टेढ़ी खीर होता जा रहा है।"
"क्यों, क्या हम लोगों ने अपना जीवन यहाँ नही गुज़ारा?" बलदेव अपने इकलौते पुत्र को स्वयं से दूर करने के पक्ष में नहीं था, इसलिये बोला "मैं मानता हूँ बहुत सारे लोग विदेशों में जाकर बस गये हैं और उन लोगों ने तरक्क़ी की बेमिसाल मंज़िलें भी तय की हैं, मगर इसका ये मतलब नही कि जो भी मुँह उठाये विदेश चला जाये।"
"क्या बात करते हैं पिताजी," विक्की बोला, " भला उन मुल्कों से हमारा क्या मुक़ाबला है? जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा हो वहाँ क्यों न जाया जाये?।"
"परन्तु विक्की पुत्तर, विदेश में भी अब पहले जैसे हालात नही रह गये हैं। पहले तो अनपढ़ व्यक्ति भी वहाँ जाकर सैट हो जाते थे परन्तु अब पढ़े-लिखे लोगों को भी अनेक मुश्किलें आती हैं। अपने तरीके का काम न मिलना, रोज़गार का मंदा होना, आबादी का बढ़ता प्रभाव आदि सब वहाँ भी देखा जा सकता है। ऐसे में तो मैं सोचता हूँ कि अपना ही देश बेहतर है।"
बलदेव ने अपना पक्ष रखते हुये कहा, "हो सकता है आप सही कह रहे हों, पिताजी" विक्की फिर बोला, "पर मैं इससे सहमत नही, जहाँ तक मैं समझता हूँ उन देशों में अभी भी बहुत स्कोप है। तकनीकी विद्या में तो वो हमसे इतना आगे जा चुके हैं कि हमें वहाँ पहुँचने में अभी सदियां लगेंगी।"
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, आजकल हमारे यहाँ भी तरक्क़ी की अच्छी-ख़ासी रफ़्तार है।" बलदेव ने कहा, "मगर उनका सामाजिक और सरकारी ढाँचा हमसे कहीं बेहतर है। जहाँ हम चींटी की रफ़्तार से चल रहे हैं वहाँ वो जेट रफ़्तार से आगे जा रहे हैं। यहाँ भारत में तो हमसे पूरी ज़मीन पर खेती तक नही हो पाती और वो दूसरे ग्रहों पर दुनिया बसा रहे हैं।" विक्की पीछे नहीं हटना चाहता था।
"वो लाख चले जायें दूसरे ग्रहों पर, लेकिन इस मशीनी युग में सब-के-सब मशीन बन के रह गये हैं। ऐशपरस्त तो हैं ही मतलबपरस्त भी कम नही। ख़ुश्क लोग, ख़ुश्क उनका देश। अपना मतलब है तो बात करते हैं नही तो किसी की परवाह नही करते।" बलदेव भी पीछे नहीं हट रहा था।
"यह उनका अपना जीने का ढंग है, इससे हमें क्या लेना-देना है?।" विक्की ने बहस जारी रखी।
"और भी सुनो पुत्तर, उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नही, किसी के लिये कोई आदर मान नही, कोई सत्कार नही है। ऐसे देश में रहा तो जा सकता है परन्तु अलग-थलग सा होकर। अपनी पहचान बनाते एक उम्र निकल जाती है। सांस लेने की भी फ़ुरसत नही, बस दौड़ते रहो, दौड़ते रहो..." बलदेव विचलित हो उठा था।
"अब आप भावुक हो रहे हैं, पिताजी" विक्की ने फिर कहा, "यह तो आपको मानना ही चाहिये कि भावुकता से ज़िन्दगी नही चलती है। हवा में ख़्याली घोड़े दौड़ाने से बेहतर है कि हम ठोस धरातल पर पाँव टिका कर आस्मान पर नज़र रखें। व्यर्थ की भावुकता में बह कर जीवन को व्यर्थ नही गंवाना चाहिये।"
"अपनी सभ्यता और संस्कृति बहुत अमीर है, पुत्तर" बलदेव विक्की को समझाते हुये कहने लगा, "अगर मानव सभ्यता के इतिहास को देखो तो जानोगे कि सबसे ज़्यादा योगदान हमने डाला है। यह ठीक है कि समय के साथ-साथ इस बड़े दरख़्त के आस-पास कुछ कंटीली झाड़ियां ज़रूर उग आई हैं परन्तु उससे दरख़्त की शान में कोई कमी नही आई है।"
"अगर ये सच होता तो बाहर के लोग यहाँ काम करने आते" विक्की न समझने वाले अंदाज़ में बोला, "मगर ऐसा नही है। आजकल, शायद ही ऐसा कोई भारतीय नौजवान होगा जो विदेश न जाना चाहता हो। अपने ही गाँव में देख लीजिये, जिनको धेले की भी अक़्ल नही थी वो भी कनेडा जैसे मुल्कों में जाकर लाखों में खेल रहे हैं। उन लोगों ने गांव में कितनी बड़ी-बड़ी शानदार कोठियां बनवा रखी हैं वो तो आपने भी देखी हैं...."
"और उन कोठियों में रहता कौन है... बताओ...? कोई नही न..." बलदेव बोला, "ऐसी कोठी बनाने का क्या लाभ जिसमें रहने वाला कोई न हो... विक्की पुत्तर, संयुक्त परिवार के महत्व को समझो, जिसमे सुरक्षा, उन्नति और संतुष्टि संभव होती है। तुम हमारे एकलौते पुत्र हो, मैं तुमसे फिर पूछता हूँ कि हमें यहाँ किस बात की कमी है जो तुम हमसे इतनी दूर जाना चाहते हो।"
लेकिन विक्की अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। विदेश जाने की धुन उस पर इस क़दर हावी थी कि बलदेव और रज्जी का समझाना किसी काम न आया। पेपर समाप्त होते ही विक्की जाने की तैयारी में व्यस्त हो गया। उसने पहले ही पासपोर्ट बनवाकर कनेडियन इंबेसी में इमीग्रेशन के लिये अप्लाई किया हुआ था। विक्की के सितारे बुलन्दियों पर थे तभी तो समयानुसार सारे काम होते चले गये। उसका रिजल्ट क्या निकला कि कुछ दिन बाद ही उसका वीज़ा भी आ गया। जिस दिन उसका वीज़ा आया उसके तो पैर ही ज़मीन पर नही पड़ रहे थे।
"मम्मी.... मम्मी... माता... ओ माता... कहाँ हो" वह चिल्लाते हुये घर में घुसा। वह जब बहुत ख़ुश होता था तो अपनी मां को माता कह कर बुलाता था।
"क्या है... क्या बात है... क्यों आस्मान सर पर उठा रखा है... हे वाहेगुरू, इस लड़के को अब तू ही कुछ सिखा, मेरे तो ये बस का नही है" रज्जी कमरे से बाहर आते हुये बोली, "हाँ... अब बता क्या बात है?"
"ये देख क्या है...?" विक्की ने उसके चेहरे पर वीज़े के पेपर लहराते हुये कहा।
"क्या है...?" रज्जी ने पूछा अरे.. ये हैं मेरे कनेडा जाने के काग़ज़ात और अब बहुत शीघ्र ही तेरा सपूत कनेडा की धरती पर पांव रखने वाला है... जट्ट चल्लेया कनेडा नूं... हुण जट्ट चल्लेया कनेडा नूं..." वह गाते हुये बोला। सुनते ही रज्जी गम्भीर हो गई। मां भी ईश्वर की अद्भुत देन है। अपनी औलाद के लिये हर ख़ुशी चाहने वाली मां उसके दूर जाने के विचार से ही व्यथित हो उठती है। फिर भी स्वयं को संभालते हुये रज्जी बोली।
"चलो... अच्छा हुआ... तू कबसे इन कागज़ों की राह देख रहा था, पर बेटा, तुझे इतनी दूर भेजने को मेरा मन नही मान रहा है। कहीं वहाँ जाकर तू हमें भूल तो नही जायेगा?"
"अरे... क्या बात करती हो माता," विक्की अभी भी चहक रहा था, "तुम मुझे जाने तो दो, बस साल भर में ही तुझको और पापा को वहीं बुला लेना है फिर हम वहाँ सारा परिवार मज़े से रहेंगे।"
"अब हम वहाँ जाकर क्या करेंगे पुत्तर," बलदेव घर के अंदर आते हुये बोला। उसने अंदर आते हुये मां-बेटे के वार्तालाप के आख़िरी हिस्से को सुन लिया था। वह सारी बात समझ चुका था।
"अपनी तो सारी उम्र इसी जालंधर से इसापुर के बीच ही कटी है। अब और कहीं जाने को मन नही करता है। ख़ैर, तेरा वीज़ा आ गया है, यह अच्छी ख़बर है। तू तैयारी कर और जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो वह ले ले, किसी भी बात की चिन्ता मत करना, मैं हूँ न..." बलदेव भावुक हो उठा था।
"और हाँ बेटा," रज्जी बोली, "वहाँ जाकर अपने देश, अपने गाँव, गाँव की मिट्टी को भूल न जाना। ये सब तुझमे समाये हैं, बेटा। जब जी चाहे चले आना, हम सब हमेशा तेरी राह देखेंगे......।" कहते हुये रज्जी की आँखो से आँसू बह चले।
"और इन रिश्तों को समय की दीमक भी कभी खोखला नही कर पायेगी।" बलदेव ने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुये कहा, "और हाँ...एक बात है कि हम तेरा कनेडा देखने तो एक बार ज़रूर आयेंगे। वो क्या कहते हैं उसे...हाँ... नियाग्रा फ़ॉल और सीन टॉवर..."
"सीन टॉवर नही पापा, सी. एन. टॉवर"
" हाँ... हाँ... वही... वही..." बलदेव ने अपने आँसू छुपाते हुये बात समाप्त की।
इस तरह विक्की टोरंटो पहुँच गया। नई जगह थी, नये लोग थे। यूं तो टोरंटो निवासी क़ाफी मिलनसार थे, मगर मशीनी युग ने उन्हे भी मशीन बना दिया था। तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी ने सबको दौड़ते रहना सिखा दिया था। विक्की अपने दोस्त लवली के घर पर ठहरा था जिसके पास कई ट्रक थे जो कनेडा से अमेरिका के बीच सामान ले जाने और ले आने पर लगे हुये थे। लवली ने अपनी ख़ुद की ट्रांसपोर्ट कंपनी ”लवली ट्रांसपोर्ट" भी चलाई हुई थी जिसमे दर्जनों और लोगों के ट्रक भी चलते थे।
लवली और विक्की स्कूल के साथी थे। दसवीं पास करते ही लवली अपने मां-बाप और छोटी बहन शालू के साथ कनेडा आ गया था। उसकी बड़ी बहन अमन की शादी कनेडा में हुई थी सो उसी की स्पॉन्सरशिप पर लवली समेत परिवार कनेडा आ गया था। शालू अभी पढ़ रही थी और ज़ेब ख़र्च के लिये सप्ताहांत पर काम भी किया करती थी। शालू को विक्की भी अपनी बहन ही मानता था। विक्की के कनेडा आ जाने से शालू भी बहुत ख़ुश थी, उसे लगता था कि उसका एक और भाई यहाँ आ गया है। लवली के माता-पिता अब शालू की शादी शीघ्र ही कर देना चाहते थे ताकि अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकें। उसके लिये वो योग्य वर की तलाश में थे। लवली के सैंकड़ो जानकार थे जिसमे से ज़्यादातर ट्रक ड्राईवर, ट्रक ऑपरेटर, डिसपैचर्स और वर्कशॉप वाले थे। वह अपनी बहन के लिये किसी उच्च कोटि के रिश्ते की तलाश में था। उसकी अपनी शादी तो पंजाब में ही हुई थी। अब उसे एक बेटा भी था। लवली को देख कर विक्की उससे अपनी तुलना करने लगता। साथ-साथ पढ़ने वाले उन दोनों में अब कितना अंतर आ गया था। दोनों की क़िस्मत कितनी जुदा थी। इन पाँच-छह सालों मे लवली कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पंजाबियों की घनी आबादी वाले शहर ब्रैम्पटन में लवली के पास एक बहुत बड़ा मकान था।उसके पास तीन नई चमकीली गाड़ियां थीं और एक बडा़ सा फ़ोर-बाई-फ़ोर था जिसमें अपने दोस्तों को लेकर वह हर सप्ताहांत नियाग्रा चला जाता जहाँ सारी-सारी रात दारू पी जाती और कसीनो में पैसे उड़ाये जाते। यूं तो लवली के बहुत सारे दोस्त थे पर हैप्पी और बल्ली उसके बहुत गहरे मित्र थे जो उसके कारोबार के साथी होने के साथ-साथ सुख-दुख के साथी भी थे। रिंकू और बिट्टू भी उसके दोस्तों में से थे। अब तो विक्की भी उनके साथ जाता था और उनकी ऐय्याशी में गाहे-बगाहे शामिल होता था। लवली उससे बराबर कहता था,
"यार... विक्की... तू भी जल्दी से ट्रक का लाईसेंस ले ले और ट्रक चलाना शुरू कर दे। यह जो मेरी ऐशो-आराम की ज़िन्दगी तू देख रहा है, यह इन्ही ट्रकों की देन है। अपने लोग ज़्यादातर इसी धंधे में हैं। इसी में पैसा है, चाहे तो टैक्सी चला, चाहे तो ट्रक चला।"
"पर, लवली, मैं सोचता हूँ कि कोई ढंग का पेशा क्यों न अपनाऊं" विक्की बोलता, "मैं इस काम को बुरा नही समझता परन्तु इसमें आराम नाम की कोई चीज़ नही है। आदमी कोल्हू का बैल होकर रह जाता है। एक ही सीट पर घंटों बैठे रहने से हाज़मा ख़राब हो जाता है जिससे कई रोग लग जाते हैं। कभी मौसम आड़े आता है तो कभी सरकार। दिन और रात सब एक हो जाते हैं। नही... नही... यह काम मेरे लिये नही है। मैं तो कुछ और ही देखूंगा।"
लेकिन विक्की के लाख मना करने पर भी, लवली ने उसे ट्रक का लाईसेंस दिलवा दिया और अपना एक ट्रक उसे चलाने को भी दे दिया। विक्की उसके लिये काम करने लगा। अमेरिका के चक्कर लगने लगे। अब उसे भी मज़ा आने लग गया। चार पैसे उसकी ज़ेब में होने लगे। वह लवली से अलग होकर एक अपार्टमेंट में रहने लगा परन्तु वह जब भी टोरंटो में होता नियाग्रा में दारू और कसीनो का प्रोग्राम ज़रूर बनता था ( शेष अगले भाग में )