Wednesday, September 30, 2009

बिखरा पड़ा है

कल तक था जो
सिमटा-सिमटा
आज वो सब-कुछ
बिखरा पड़ा है,
लगता था जो
अपना-अपना
जग सारा वो
बिखरा पड़ा है,

सूरज से अब
किरनें रूठीं
दिखती चाँद में
नहीं चाँदनी
सावन से बरखा
है भागी
छोड़ गई गीतों
को रागिनी,
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें
जोश बड़ा है,

घर शासक के
मिले न शासन
वहाँ तो रहता
अब दु:शासन
सभी उड़ाते हैं
बेपर की
कौन बचाये
देश का दामन,
मत भूलें वो
जन-मानस में
आज भी गांधी
ज़िन्दा खड़ा है,

फोन की घंटी
रेल का गर्जन
शाम-सवेरे
भागता यौवन
लैपटॉप है पास
में फिर भी
लायें कहाँ से
फ़ुरसत के क्षण
ऐसे में अब
कौन ये सोचे
जीवन प्यारा
शहद-घड़ा है

Tuesday, September 22, 2009

आई है वो

पुलाड़ के कंधों पे
चढ़ कर
समय की सीढ़ियां
उतर कर,
जीवन का व्योपार
करने,
मुस्कुराती
आई है
वो

मौलिकता अपनी
छोड़ कर
शरीर की हदों में
सिमट कर
कर्मों का भुगतान
करने,
गुनगुनाती
आई है
वो

अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष
बन
दॄश्य औ दॄष्टा
दोनों बन
पदार्थ व यथार्थ को
सम करने,
झिलमिलाती
आई है
वो

जगत की हलचल
से अपरिचित
प्रभु के रंग-गुण
से सुसज्जित
मिला निर्देश
पूरा करने,
चहचहाती
आई है
वो

प्रेम के हिंडोले
झूलती
बोली चेतना की
बोलती
चिन्तन की लड़ी
से जुड़ने,
जगमगाती
आई है
वो

चुनने के सब
अधिकार लिये
शक्तियों से भरे
भंडार लिये
विश्व में नया कुछ
कर गुज़रने,
खिलखिलाती
आई है
वो

Tuesday, September 15, 2009

वक्त की रफ़्तार

युं उड़ा दिन कि कुछ भी न हमको ख़बर हुई
कब ढली रात, फिर कब न जाने सहर हुई

इस वक्त की तेग़ पे चलते-चलते जाने कब
लड़खड़ाने लगे हम, धुँधली ये नज़र हुई

जो ये रफ़्तार देखी वक्त की तो युं लगा
ज़िन्दगी क्या हुई, समन्दर की लहर हुई

जब करी हमने कोशिश आगे कुछ निकलने की
हर घड़ी हमसे टकराई, हर शय ज़हर हुई

जुस्तुजू में ख़ुशी की इधर से उधर हुये
क्या गिला अब करें, अब तो अपनी उमर हुई

हौसला जब किया थामने का इसे कभी
ग़म बढ़ा इस क़दर ज़िन्दगी मुख़्तसर हुई

कट तो फिर भी गया ये मगर काट भी गया
अजनबी ही रहा हमसे कोई न मेहर हुई

वो जो गुज़रा तेरे साथ कुछ बस युं समझ लो
इक वही दास्तां ज़िन्दगी की अमर हुई

लिख न निर्मल सका गीत उम्दा कभी कोई
और न तो ठीक उससे ग़ज़ल की बहर हुई

Tuesday, September 8, 2009

रुक जाता हूँ

रुक जाता हूँ, चल पड़ता हूँ
आग लगे तो जल पड़ता हूँ

पानी जैसी प्रीत निभाऊँ
प्यार मिले तो गल पड़ता हूँ

जिसको चाहूँ शाम-सवेरे
मिल जाये तो खिल पड़ता हूँ

दुश्मन-दोस्त गहरा रिश्ता
दिल टूटे तो हिल पड़ता हूँ

पत्थर जैसा बनना मुश्किल
दिल माने तो घुल पड़ता हूँ

ऊँचा उड़ना चाहूँ भी तो
पर कट जाये हिल पड़ता हूँ

देखा है कब नया-पुराना
हर साँचे में ढल पड़ता हूँ

रुक न पाऊँ देर तलक मैं
निर्मल के संग चल पड़ता हूँ

Friday, September 4, 2009

देखना हो तो

देखना हो तो खुली आँख से देखना
बन्द आँखों से वो क्या नज़र आयेगा

ग़ौर से देखोगे अपने अंदर जो तुम
मुस्कुराता हुआ वो नज़र आयेगा

ख़्वाब होंगे तेरे जिस क़दर बेकराँ
उस क़दर ही वो तुझमें उभर आयेगा

ज़िन्दगी की डगर टेढ़ी-मेढ़ी तो क्या
चाहोगे तो वो शामो सहर आयेगा

बस यही इक शर्त, दिल बड़ा चाहिये
फिर वो आराम से तेरे घर आयेगा

प्यार को छोड़ बंदिश नहीं कोई भी
प्यार हो तो हर घड़ी हर पहर आयेगा

रास्ते हों कठिन, ये तो भी जान लो
देर कितनी भले हो मगर आयेगा

उठते अब क्यों नहीं हाथ निर्मल तेरे
क्या कहोगे उसे जब नज़र आयेगा