कल तक था जो
सिमटा-सिमटा
आज वो सब-कुछ
बिखरा पड़ा है,
लगता था जो
अपना-अपना
जग सारा वो
बिखरा पड़ा है,
सूरज से अब
किरनें रूठीं
दिखती चाँद में
नहीं चाँदनी
सावन से बरखा
है भागी
छोड़ गई गीतों
को रागिनी,
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें
जोश बड़ा है,
घर शासक के
मिले न शासन
वहाँ तो रहता
अब दु:शासन
सभी उड़ाते हैं
बेपर की
कौन बचाये
देश का दामन,
मत भूलें वो
जन-मानस में
आज भी गांधी
ज़िन्दा खड़ा है,
फोन की घंटी
रेल का गर्जन
शाम-सवेरे
भागता यौवन
लैपटॉप है पास
में फिर भी
लायें कहाँ से
फ़ुरसत के क्षण
ऐसे में अब
कौन ये सोचे
जीवन प्यारा
शहद-घड़ा है
Wednesday, September 30, 2009
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सुंदर भाव हैं। आखिरी छंद सत्य के बहुत पास है.
ReplyDeleteलैपटॉप है पास
में फिर भी
लायें कहाँ से
फ़ुरसत के क्षण
सादर
शैलजा
सावन से बरखा
ReplyDeleteहै भागी
छोड़ गई गीतों
को रागिनी,
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें
जोश बड़ा है,
सुन्दर अभिव्यक्ति