Tuesday, September 15, 2009

वक्त की रफ़्तार

युं उड़ा दिन कि कुछ भी न हमको ख़बर हुई
कब ढली रात, फिर कब न जाने सहर हुई

इस वक्त की तेग़ पे चलते-चलते जाने कब
लड़खड़ाने लगे हम, धुँधली ये नज़र हुई

जो ये रफ़्तार देखी वक्त की तो युं लगा
ज़िन्दगी क्या हुई, समन्दर की लहर हुई

जब करी हमने कोशिश आगे कुछ निकलने की
हर घड़ी हमसे टकराई, हर शय ज़हर हुई

जुस्तुजू में ख़ुशी की इधर से उधर हुये
क्या गिला अब करें, अब तो अपनी उमर हुई

हौसला जब किया थामने का इसे कभी
ग़म बढ़ा इस क़दर ज़िन्दगी मुख़्तसर हुई

कट तो फिर भी गया ये मगर काट भी गया
अजनबी ही रहा हमसे कोई न मेहर हुई

वो जो गुज़रा तेरे साथ कुछ बस युं समझ लो
इक वही दास्तां ज़िन्दगी की अमर हुई

लिख न निर्मल सका गीत उम्दा कभी कोई
और न तो ठीक उससे ग़ज़ल की बहर हुई

1 comment:

  1. हौसला जब किया थामने का इसे कभी
    ग़म बढ़ा इस क़दर ज़िन्दगी मुख़्तसर हुई

    --बहुत उम्दा!! पूरी रचना पसंद आई.

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