Friday, February 27, 2009

अस्थि कलश (भाग २ )

धीरे-धीरे विक्की को सब समझ में आने लगा। उसके सारे दोस्त ट्र्कों के जरिये किस तरह का धंधा करते हैं, वह समझने लगा। कनेडा और अमेरिका के दरम्यान ट्रकों के जरिये ड्रग्स की स्मगलिंग का एक बहुत बड़ा जाल फैला हुआ था। माल इधर से उधर आता-जाता था। ज्यों-ज्यों यह सारी कलई खुलती गई, विक्की के रौंगटे खड़े होते गये। वह पैसा ज़रूर चाहता था मगर इस तरह के पैसे में उसकी कोई रुचि नही थी। लवली की सारी अमीरी का राज़ अब उसके सामने था। उसे शर्म आने लगी कि वह उन लोगों के लिये काम कर रहा है जो उसके दोस्त हैं और अब इस काले धंधे का एक हिस्सा बन चुके हैं। इस बात को लेकर कई बार उसकी लवली, बल्ली और हैप्पी से बहस भी हो जाती थी। आख़िरकार एक दिन इस बहस ने उग्र रूप धारण कर लिया।
"देख विक्की, तू हमें बार-बार समझाने का अपना यह तरीक़ा बदल दे क्योंकि इससे कुछ भी होने-हवाने वाला नहीं है और हम कोई अकेले ही इस धंधे में नहीं हैं। दुनिया के लाखों लोग इस धंधे में लगे हुये हैं।" लवली ने ज़रा तेज़ स्वर में कहा।
"सिर्फ़ कुछ लोगों के इस धंधे में शामिल होने से यह धंधा पवित्र नही हो जाता है लवली," विक्की ने उसे समझाने वाले अंदाज़ में कहा, "चन्द लोग अगर कूयें में गिरे हों तो उनको कूयें से निकालने की बजाय क्या तुम भी कूयें में छलांग लगा दोगे?"
"इसके लिये हम तो उन्हें नहीं कहते," लवली उत्तेजित होने लगा, "हमारा काम तो सिर्फ़ यह है कि माल ले जाकर उसकी डिलीवरी दें और अपना किराया लें, इसके आगे क्या होता है उससे हमें कोई सरोकार नहीं है।"
"कभी यह भी सोचो लवली, कि इस धंधे के कारण जिनको ड्रग्स की लत पड़ जाती है उनका क्या हाल होता है। उनके माँ-बाप पर क्या बीतती है।" विक्की फिर बोला, " मैंने सुना है कि यहाँ स्कूलों-कॉलेजों में छोटी उम्र के लड़के-लड़कियों को फ़्री ड्रग्स देकर उन्हें इसका आदी बनाया जाता है। आदी होने के बाद वे बिचारे इसे पाने लिये कोई सा भी अपराध कर बैठते हैं।"
"मैंने तुमसे कहा न इसमें हमारा कोई दोष नही है।" लवली गर्माहट में बोल रहा था, "माल आगे कहाँ जाता है, कौन खाता-पीता है उससे हमें क्या लेना-देना है।"
"लेना-देना है लवली... लेना-देना है..." विक्की भी तैश में बोला, "नशा समाज को खोखला कर देता है। ज़रा सोचो, एक-एक करके अगर सब-के-सब इसी तरह नशे में डूब गये तो देश और समाज का क्या बनेगा, पूरी मानव-जाति का क्या बनेगा। आने वाली नस्लें कैसी होंगी। जिन ऊँचाईयों पर हम जाना चाहते हैं क्या वह संभव हो पायेगा।"
"तुम अपनी ये दलीलें किसी और को देना, हमें इस तरह के मश्वरे की कोई ज़रूरत नहीं है।" लवली क्रोध में था।
"अच्छा लवली एक बात बताओ," विक्की भी ज़िद पकड़े था, "भगवान न करे,कल को यदि तुम्हारा अपना बेटा नशे में धुत होकर अपनी जान गंवा बैठे तो तुम पर क्या बीतेगी और क्या तुम शालू का रिश्ता किसी ऐसे लड़के के साथ करोगे जो नशेड़ी और नकारा हो?"
"बस.... बहुत हो गया..." लवली लगभग चीख़ते हुये बोला, "आज से तेरे-मेरे रास्ते अलग हैं। अगर तुम हमारे साथ मिलकर नही चल सकते तो तुम अलग होकर जैसा चाहो वैसा करो।"
"ठीक है... मुझे कोई ऐतराज नहीं, लेकिन मैं फिर कहूँगा कि सुधर जाओ, छोड़ दो ये काले धंधे, इसमें पैसा ज़रूर है पर मन की शान्ति नही है। मन की शान्ति तो अपनी मेहनत से कमाये पैसे में ही होती है।"
"तुम अपना भाषण अपने पास रखो और चलते बनो।" हैप्पी भी बोल पड़ा।
"मैं तो जा रहा हूँ पर तुम सब याद रखना, जैसा बोया जाता है वैसा ही काटा जाता है। रिंकू और बिट्टू को ही लो, एक दिन किस तरह तुम्हारे साथ मिल कर यही धंधा करते थे और आज देख लो, ज़रा सी बात पर किस तरह तुम्हारे दुश्मन बने घूम रहे हैं। तुम दोनों एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो चुके हो। यही मिला है तुम्हें इस धंधे से और...."
"कहा न कि तुम अपना भाषण बन्द करो और दफ़ा हो जाओ। हमें जो करना है, हम जानते हैं। रिंकू-बिट्टू से भी निपटना हमें आता है।" बल्ली भी ग़ुस्से से उबल पड़ा।
इसके बाद विक्की उनसे अलग होकर किसी और कंपनी में ट्र्क चलाने लगा। लवली वगैरह से अब उसकी मुलाक़ात कम होती थी। उड़ती-उड़ती ख़बरों से ही उनके बारे में विक्की को पता चलता था। लवली ग्रुप के साथ रिंकू ग्रुप की दुश्मनी बढ़ती गई। आपस में उनकी कई बार झड़पें भी हो चुकी थीं। एक बार लवली चोटें लगने की वजह से अस्पताल में भी भर्ती हुआ। जब विक्की को पता चला तो वह उसे देखने गया। वहाँ उसने लवली को फिर से समझाने की कोशिश की मगर कोई फ़ायदा न हुआ।
एक दिन विक्की अपने कमरे में बैठा था कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो देखा कि शालू अपने माता-पिता के साथ खड़ी है। सत सिरी आकाल के बाद,
"तुम तो अब कभी उधर आते नहीं इसलिये हमें ही आना पड़ा।" शालू के पिता एक मिठाई का डिब्बा और एक कार्ड मेज़ पर रखते हुये बोले।
"आप तो जानते ही हैं अंकल, कि इस कनेडा में समय की कितनी किल्लत है, इन्सान चाह कर भी बहुत सारे काम नहीं कर पाता है।" फिर मिठाई के डिब्बे की ओर इशारा करते हुये बोला, "यह... यह किस ख़ुशी में?"
"शालू की शादी पक्क़ी हो गई है और अगले ही इतवार की शादी है।"
"हाँ... और तुम वहाँ एक हफ़्ता पहले ही पहुँच रहे हो.... यानि कि कल" शालू बोल उठी, "क्या तुम मेरी शादी की तैयारी में हाथ नहीं बंटाओगे?"
"ज़रूर... ज़रूर... मगर इतनी जल्दी सब कुछ हो गया मुझे कुछ पता नहीं चला।"
"हम तो कबके तैयार थे" शालू की माँ ने कहा, "बस, लड़का मिलने की देर थी सो हमने और देर करनी उचित नहीं समझी।"
"यह तो बहुत अच्छा हुआ...खुशी की बात है... आप सबको बधाई हो...मैं कल ही आ जाऊँगा।" विक्की ख़ुश होते हुये बोला।
कुछ भी हो, इतना कुछ हो जाने के बाद भी विक्की शालू से स्नेह रखता था। वह दूसरे ही दिन लवली के घर पहुँच गया और शादी की तैयारी में लग गया। कई दिन निकल गये। कब दिन चढ़ता था और कब छुपता था, कुछ पता ही नहीं चलता था। बेटी की शादी जिस घर में हो उस घर वालों को होश कहाँ रहती है। विक्की भी जी जान से तैयारी में जुटा था।
इसी तरह शुक्रवार का दिन आ गया, रविवार को शादी थी। लेडी-संगीत का आयोजन रखा गया था। उसी की तैयारी में सुबह से सब लगे थे। घर के गैराज को खोल दिया गया था। लवली, विक्की, हैप्पी, बल्ली और कई रिश्तेदार गैराज में ही बैठे अपने शुग़ल में मशरूफ़ थे। हलवाई ने एक तरफ़ मिठाई बनाने का काम शुरू कर रखा था। शाम के क़रीब आठ बजे थे पर अभी भी उजाला काफ़ी फैला हुआ था। टोरंटो में गर्मी के दिनों में सूरज नौ बजे के बाद ही छुपता है। घर के अंदर से औरतों के गाने-बजाने की आवाज़ें आ रहीं थीं। लेडी-संगीत अपने पूरे ज़ोरों पर चल रहा था कि घर के सामने एक काले रंग की मर्सिडीज़ आकर रुकी। सबने सोचा कि शायद कोई रिश्तेदार आया होगा। शादी वाले घर में तो आना-जाना लगा ही रहता है। जब काफ़ी देर बीतने के बाद भी कोई कार से न उतरा तो बल्ली को कुछ शक हुआ। उसने लवली को चैक करने का इशारा किया। लवली कार की ओर बढ़ा तो वह अचानक ठिठक गया। कार का काला शीशा धीरे-धीरे नीचे हुआ तो लवली ने रिंकू का चेहरा देख लिया था। वह पलट कर गैराज के अंदर की ओर भागा। विक्की ने भी रिंकू को देख लिया था। वह समझ गया कि लवली अपनी पिस्तौल लेने अंदर की ओर भागा है। वह नहीं चाहता था कि विवाह में कोई पंगा खड़ा हो। इसलिये रिंकू और बिट्टू को समझाने के लिये वह कार की तरफ़ बढ़ा।बल्ली और हैप्पी भी उसके पीछे लपके, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। धाँय-धाँय.... की आवाज़ के साथ रिंकू के पिस्तौल से निकली गोलियां विक्की के शरीर में धँस चुकी थीं। वह लहरा कर वहीं सड़क पर ढेर हो गया। रिंकू और बिट्टू ने गाड़ी स्टार्ट की और भाग लिये। लवली बाहर आया तो विक्की की हालत देख कर सकते में आ गया। बल्ली और हैप्पी गनें उठाये कार के पीछे भागे परन्तु सब बेकार हुआ। हत्यारे तो कबके सुरक्षित भाग चुके थे।
लवली सकते की हालत में ही विक्की की मृतक देह के पास बैठा रहा। बल्ली और हैप्पी ने वापस आकर उसे संभाला। घर में कोहराम मच गया। सारी गली में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर में पुलिस एंबुलेंस सब आ पहुँचे और विक्की की देह को उठा कर अस्पताल पहुँचा दिया गया।
भारत में उस वक्त सुबह थी। बलदेव अपने कमरे में था जब इस दुर्घटना का फोन आया। रज्जी चाय का गिलास लेकर उसे देने कमरे में आई, तब तक बलदेव फोन उठा कर कान से लगा चुका था। अगले ही पल उसके चेहरे की उड़ती रंगत देख कर रज्जी समझ गई कि कुछ अनहोनी हो चुकी है। दुखभरी बेहोशी में बलदेव ने ज्योंहि उसे बताया कि क्या हुआ है, वह स्वयं को संभाल न पाई और अपनी छाती पकड़ कर बैठ गई। उसका दिल डूबता चला गया।
इकलौती औलाद परदेस में जाकर वहां गैंगवार की भेंट चढ़ जाये तो इससे अधिक दुख की बात और क्या हो सकती है। अपना भविष्य संवारने गया बेटा अब कभी वापस नहीं आयेगा, यह सोच कर बलदेव का दिल बैठ गया। बेटे के विवाह के सपने देखने वाली माँ, रज्जी को दिल के ताबड़तोड़ कई अटैक हुये। उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया। कुछ दिन बाद रज्जी की देख भाल का ज़िम्मा लेकर गाँव वालों ने बलदेव को अपने पुत्र के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये टोरंटो रवाना कर दिया।
"सर... सर... क्या आप मि. बलदेव हैं?"
अचानक बलदेव की तन्द्रा भंग हुई। सामने के. एल. एम. की नीले सूट वाली एक रिसेप्सनिष्ट खड़ी थी। वह कोई भारतीय युवती लग रही थी।
"सर... क्या आप ही मि. बलदेव हैं...?" वह पूछे जा रही थी।
"क्या...?" बलदेव अभी तक अतीत की यादों में खोया हुआ था। पहले तो उसे कुछ समझ न आया फिर संभल कर बोला, "हाँ... हाँ... यस... यस... मैं बलदेव..."
उसने अपना बैग उठाया और काऊंटर पर जा पहुँचा।
"एनिथिंग टू चैक, सर" युवती ने पूछा।
"नो, नथिंग टू चैक" वह बोला
अपना बोर्डिंग पास लेकर वह धीमे-धीमे सिक्योरिटी के गेट की ओर बढ़ने लगा। अंदर जाकर वह इधर-उधर देख ही रहा था कि एक स्क्रीनिंग ऑफ़िसर ने आवाज़ दी,
"हैलो सर... दिस वे प्लीज़..."
उसने चुपचाप उसके पास जाकर अपना बैग उसकी टेबल पर रखा। सेक्योरिटी वाले ने बोर्डिंग पास चैक करके ज्योंहि बैग ऐक्स-रे मशीन में डालना चाहा तो उसके मुँह से निकला,
"नो... नो... नो ऐक्स-रे प्लीज़,"
"कैन यू टेल मी सर... व्हाई नॉट?"
बलदेव ने ख़ामोशी से विक्की की मृत्यु का प्रमाण-पत्र उसके हवाले कर दिया। सर्टिफ़िकेट देख कर सेक्योरिटी वाला भी गम्भीर हो गया। बैग में विक्की की अस्थियों वाला कलश था।
"ओह... आई एम सॉरी सर...हू वाज़ ही?" सिक्योरिटी वाला पूछ बैठा।
"सन... ही वाज़ माई ओनली सन..."
बलदेव की आँखों से आँसू बह चले। टोरंटो की धरती पर उसने न जाने कितने आँसू बहाये थे। वह जबसे यहाँ आया था, आँसुओं के अलावा उसे और कुछ नहीं मिला था। आज जाते-जाते भी वह आँसुओं के अलावा इसे और कुछ नहीं दे पा रहा था। सिक्योरिटी वाले ने आदर सहित अस्थियों वाला कलश उठाया और बिना ऐक्स-रे किये, दूसरी तरफ़ से बलदेव को पकड़ाते हुये बोला,
" सर, आई ऐम रियली वैरी सॉरी... आई कैन अन्डरस्टैण्ड हाऊ डिफ़ीकल्ट इट इज़ फ़ॉर यू..."
बलदेव ने बैग उठाया और अपने गेट की ओर बढ़ने लगा, जहाँ शाम के धुंधलके में नीला सा जहाज़ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। ड्यूटी फ़्री के सामने से गुज़रते हुये उसके ज़ेहन में रज्जी का चेहरा घूम रहा था। वह कैसे संभालेगा उसे। फिर उसे रज्जी की बात याद आई कि मौत और रिज़्क बन्दे के पास नहीं आते बल्कि बन्दा इनके पास स्वयं जाता है। फिर अचानक उसे अपने पिता के कहे बोल याद आये कि
"सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नहीं जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं।"
बलदेव को लवली की याद आई। आते-आते उसने सुना था कि लवली अब सुधर चला है। उसे लगा कि विक्की के बोये बीज अब लवली में फूटने लगें हैं।
( समाप्त)

Tuesday, February 17, 2009

चल कहीं, दूर तू चल

चल कहीं, दूर तू चल
साथ नही, तन्हा तू चल

मुड़कर देख पीछे
आगे रख निगाह, चल

आस्मां ज़मीं सब हैं साथ
है वक़्त मेहरबान, चल

गहरा है अंधेरा अगर
उठा हाथ में मशाल, चल

फिर आयेगा ये पल
अब कर विचार, चल

जो भी तुझको चाहिये
सब है तेरे पास, चल

शौक़ है गर मंज़िलों का
आस का ले चिराग़, चल

रास्ते में मुश्किलें खड़ीं
घबरा मेरे यार, चल

कौन है जो हारा कभी
हर क़दम इम्तिहान, चल

कहाँ जाने मौत मिले
किसका है इंतज़ार, चल

है चमकता वो सिफ़र
क्यों है तू उदास, चल

अब छोड़ निर्मल को यहीं
तू हो न परेशान, चल

Saturday, February 14, 2009

चलते-चलते

अजब जहां का हाल हो गया चलते-चलते
जाने ये क्या हाल हो गया चलते-चलते

न छोड़ ही सकते, न ही छोड़ी जाती दुनिया
एक सुनहरा जाल हो गया चलते-चलते

कभी ख़त्म न होते ग़म के रातो दिन
जीवन एक सवाल हो गया चलते-चलते

किसमें ढूँढे, कहाँ से पायें महक वफ़ा के फूलों की
ये जी का इक जंजाल हो गया चलते-चलते

क़लम भी अब तो चलने से घबराती हरदम
स्याही का रंग लाल हो गया चलते-चलते

ख़ाली जाम है तेरे हिस्से निर्मल इस मयख़ाने में
कोई तो मालामाल हो गया चलते-चलते







Monday, February 9, 2009

आहुति

सूर्य देवता अस्त होने की तैयारी में थे। आसमान की पश्चिम दिशा में पूर्ण लालिमा विखरी हुई थी। पक्षियों के चहचहाने से सारा वातावरण संगीतमय हो रहा था। लोगबाग अपने कामों से घरों को लौट रहे थे। इस गोधूलि बेला में मलकपुर गाँव की गलियों में बहुत से बच्चे शोर मचाते हुये अपनी क्रीड़ा में मस्त थे। कभी-कभी किसी माँ के चीख़ने की आवाज़ आती थी, जो अपने बच्चों को चिल्ला-चिल्ला कर घर वापस आने को कह रही थी। ट्रैक्टरों से घरों को लौटना भी बड़ा सुहावना दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। ट्रैक्टर के पीछे बँधी ट्राली और उस पर लदे गन्ने और गन्नों के पीछे भागते उन्मादित बालक, यह तक़रीबन दिसम्बर माह की हर संध्या का दृश्य हुआ करता था। बालकों का ट्राली से गन्ना खींचना, ट्रैक्टर वाले का ट्रैक्टर रोक कर उन्हे भला-बुरा कहना भी एक नियम बन जाता था।
मलकपुर गाँव लुधियाने से आती मुख्य सड़क पर ही स्थित है। क़रीब चार से पाँच हज़ार की आबादी वाले इस दरम्याने से गाँव के बाहर मुख्य सड़क पर दस-बारह दुकानों का बाज़ार सा बना हुआ है, जिसे गाँव वाले अड्डे के नाम से सम्बोधित करते हैं। यहाँ, आती-जाती हरेक बस रुकती है। दुकानों में एक चाय की दुकान भी है जिस पर कभी-कभी ड्राईवर-कन्डक्टर चाय पीने के लिये बस रोक लेते हैं। सवारियाँ बस से उतर कर इधर उधर टहलती हैं। कुछ लोग चाय पीते हैं तो कुछ लोग घर से लाये हुये खाने का आनन्द लेते हैं। गांव के कुछ मनचले यहाँ दुकानों पर बैठ कर अपना वक्त भी गुज़ारते हैं। बेकार लोगों का यहाँ शुग़ल भी ख़ूब रहता है। यूँ तो मुख्य सड़क से कई कच्चे-पक्के रास्ते गाँव की ओर जाते हैं मगर अड्डे के पास से एक छोटी पर पक्की सड़क गाँव की ओर निकलती है, जो आगे जाकर एक तालाब के पास से होती हुई गाँव में जाकर दो हिस्सों में विभाजित होकर अलग-अलग दिशाओं से गाँव में जाती है। उत्तर दिशा की ओर मुड़ कर जो गली गाँव में जाती है, उसी गली में जो साधारण सा चौथा मकान दिखाई दे रहा है वह बलवन्त सिंह का मकान है।
बलवन्त सिंह एक मध्यवर्गीय किसान है जिसके पास पुरखों से मिली गुज़ारे लायक ज़मीन है। गाँव के अन्य लोगों की तरह उसकी भी जीविका का प्रमुख साधन खेती बाड़ी ही है। यूँ गाँव के बहुत सारे लोग बाहर विदेशों में भी जाकर बस चुके हैं जो यदा-कदा गाँव आकर अपनी विदेशी चमक-दमक की धौंस जमाते रहते हैं। ख़ैर, बलवन्त सिंह के परिवार में उसके अलावा उसकी पत्नी जीतो, दो लड़कियाँ रमनदीप और राजदीप तथा एक लड़का जगदेव उर्फ़ जग्गी है। बड़ी लड़की रमनदीप की शादी कनेडा में हो चुकी है और छोटे, राजदीप और जग्गी अभी पढ़ रहे हैं। बलवन्त की उम्र पचास साल के क़रीब है। अभी चार साल पहले ही रमनदीप की शादी बड़ी धूमधाम से हुई थी। शादी के वक्त उसकी उम्र मात्र उन्नीस साल की थी। बलवन्त ने अपनी पहुँच से आगे बढ़कर उसकी शादी की थी। उसे अपने बच्चों से बहुत लगाव था।
रमन का पति उस समय कनेडा से शादी के लिये पंजाब आया था। बाहर मुल्क़ से शादी के लिये पंजाब आना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण होता है। चाहे लड़की हो या लड़का इससे कोई फ़र्क नही पड़ता है। बस, बाहर से ज्योंहि कोई लड़का या लड़की शादी के लिये पंजाब पहुँचे नही कि रिश्तों की लाईन लगनी शुरू हो जाती है। लाईन जितनी लम्बी होती जाती है, आने वाले का महत्व भी उतना ही बढ़ता जाता है। आने वाले से रिश्ता जोड़ने में लोग इतनी जल्दबाज़ी करते हैं कि आने वाले की किसी किस्म की जाँच पड़ताल करने की कोई कोशिश नहीं करते। रिश्ता करने में स्थानीय लोगों में लगी होड़ देख कर आने वाले का मुँह भी खुलता चला जाता है। तब बात सिर्फ़ शादी की न रह कर बट्टे-सट्टे, एक बड़ी रक़म या व्यापार बन कर निपटती है।
हाँ, तो बलवन्त की बेटी रमनदीप का रिश्ता उसके एक नज़दीकी दोस्त ने ही करवाया था। उसे आज भी वह दिन याद है जब उसका दोस्त सुरजीत, जो स्वयं भी कनेडा रहता था, उसके पास रमन के लिये रिश्ता लेकर आया था।
"और सुना बलवन्त" चाय पानी के बाद सुरजीत बोला, "फिर क्या सोचा है तुमने रमन के भविष्य के बारे में?"
"सोचना क्या है, जो वाहेगुरू करेगा भली करेगा" बलवन्त बोला
"मेरे एक क़रीबी जानने वाले अपने लड़के की शादी के सिलसिले में गाँव आये हुये हैं। तू कहे तो मैं उनसे बात चलाऊँ। अपने ही इलाक़े के लोग हैं और हैं भी बड़े शरीफ़। हाँ, उन्हें शादी की ज़रा जल्दी है क्योंकि उन्होंने अगले महीने वापस जाना है", सुरजीत बोला।
"जैसी तेरी मर्ज़ी सुरजीत, पर वो लोग किस गाँव के हैं", बलवन्त ने पूछा।
"वो लोग सहारन माजरा के हैं।" सुरजीत ने कहा, "इसलिये अगर बात बनती है तो हमें सब कुछ जल्दी में करना पड़ेगा क्योंकि उन्होंने जल्दी वापस लौटना है, और हां एक बात और भी है..." सुरजीत थोड़ा झिझका..
"हाँ.. हाँ.. बोलो", बलवन्त ने उत्सुकता दिखाई।
"वो लोग दहेज में पच्चीस लाख कैश चाहते हैं और शादी का तमाम ख़र्च भी लड़की वालों के ही ज़िम्मे डालना चाहते हैं", सुरजीत ने धीमी आवाज़ में कहा।
"इतना सारा पैसा मैं कहाँ से लाऊँगा", बलवन्त परेशान हो उठा।
"लेकिन तुम अगर दूर तक सोचो तो ये रक़म बड़ी नहीं है" सुरजीत उसे समझाते हुये बोला, "कल को रमन कनेडा जाकर तुम्हे वहाँ बुलाती है तो तेरे साथ-साथ राजदीप और जगदेव भी तो जायेंगे। कनेडा जाकर तुम्हारे सारे परिवार का भविष्य जब सँवर जायेगा तब तुम्हे ये घाटे का सौदा नही लगेगा। तब तुम हमें सराहोगे।"
इस तरह बात चलते~-चलते सिरे चढ़ गई। बलवन्त को रमन की ससुराल वाले बड़े भले लगे। उसने रिश्ता कर दिया। लेन-देन की बात तय थी, पच्चीस लाख कैश और शादी का सारा ख़र्च बलवन्त पर आ पड़ा था। इससे उसकी माली हालत को झटका ज़रूर लगा था पर उसने इधर-उधर करके सँभाल लिया था। उसकी नज़रों में उसके दूसरे बच्चों का भविष्य भी नाच रहा था। उनके बारे में सोच कर वह चुप हो गया था और थोड़ी सी ज़मीन गिरवी रखकर उसने रिश्ते को अंजाम दे डाला था।
यह चार साल पहले की बात थी। रमन जल्दी ही कनेडा चली गई थी। बलवन्त ने घर पर फोन लगवा लिया था ताकि वह रमन से जब चाहे बात कर सके। उसे अपने बच्चों से अथाह प्रेम था, ख़ास करके रमन से। रमन सबसे बड़ी थी। पर अभी वह उन्नीस साल की हुई ही थी कि उसका विवाह हो गया। रमन ने बलवन्त के घर का बहुत सारा काम सँभाला हुआ था। उसके रहते बलवन्त को कभी घर की चिन्ता नही रहती थी। लिखाई-पढ़ाई वाले सारे काम वह बड़ी निपुणता से कर लेती थी। रसोई में अपनी माँ का भी हाथ बँटाती रहती थी। पढ़ने में भी वह होशियार थी। कई बार बलवन्त और जीतो ऐसी बेटी पाकर अपने भाग्य को सराहा करते थे। क़रीब दो साल पहले रमन के बेटा पैदा हुआ तो दोनों बहुत ख़ुश हुये। बलवन्त ने अपने तमाम मित्रों को ख़ूब शराब पिलाई और मिठाई बाँटी। उस रात वह अपनी बेटी से घंटों बातें करता रहा था। बड़े प्यार बेटे का नाम अमर रखा गया। जब बेटा डेढ़ साल का हो गया तो उसे पंजाब बलवन्त के पास भेज दिया गया ताकि रमन काम पर दोबारा जा सके। बलवन्त अपने नाती के साथ बहुत प्रसन्न रहता था। वह उसके साथ बहुत खेलता। काम पर जाने से पहले और काम से आने के बाद उसे अमर के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। वह उसमें रमन के ही नक़्श तलाशता रहता था। जब भी रमन का फोन आता उससे भी वह अमर के ही बारे में बातें करता था। कई बार जीतो उससे नाराज़ हो जाती थी कि वह क्यों बच्चे के साथ बच्चा हो जाता है।
इस तरह छे महीने और निकल गये। हाँ, इस दौरान कुछ नई बातें अवश्य हुईं जिसे सोच कर बलवन्त का मन शंकित हो उठता था। एक तो रमन ने फोन करना बहुत कम कर दिया था। इस बात का ज़िक्र वह जब भी रमन से करता तो वह काम का बहाना बता देती थी। दूसरी बात जो उसे ज़्यादा परेशान करती थी वह थी रमन की आवाज़ का सहमापन।वह जब भी बात करती डरे हुये उदास लहज़े में। यहाँ तक कि कनेडा में मलकपुर के और रहने वालों से भी न तो मिलती और न ही कभी फोन पर बात करती। इन सारी बातों को सोच कर बलवन्त का मन कई बार बहुत उखड़ जाता था। उसकी समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे। इतना तो वह समझ ही चुका था कि रमन की ससुराल वालों से बन नहीं रही है। उसे रमन से अत्यधिक प्यार था पर समय हर मर्ज़ की दवा होता है, यह सोच कर वह स्वयं को संतुलित रखने का प्रयास करता था।
ऐसी ही एक दिसम्बर की शाम को बलवन्त काम से वापस आया और ट्रैक्टर के साथ गन्नों से लदी ट्राली को बरामदे में लगाकर उतरा ही था कि उसे फोन की घंटी सुनाई दी जो लगातार बजे जा रही थी। वह बुड़बुड़ाने लगा -
"पता नही कहाँ चले जाते हैं सब... फोन बज रहा है और किसी को परवाह ही नहीं है...जीतो...ओ जीतो...कहाँ मर गई तू...", वह अपनी पत्नी को कोसता हुआ अंदर कमरे में आया और फोन उठा कर अपने कान से लगा कर हैलो कहा।
"हैलो... हाँ जी...हम कनेडा से बोल रहे हैं", एक अपरिचित सी आवाज़ आई, "हमने बलवन्त सिंह जी से बात करनी है, क्या वो घर पर हैं?"
"हाँ जी हाँ... मैं बलवन्त सिंह बोल रहा हूँ... क्या बात है", कहते हुये बलवन्त का कलेजा धड़क उठा, कुछ अनिष्ट होने वाला है, उसकी छठी इन्द्रिय सजग हो उठी।
"आपके लिये एक अशुभ समाचार है। आपकी बेटी रमनदीप का अचानक देहान्त हो गया है और हम आपको.....", इसके आगे वह सुन नहीं सका, उस पर बेहोशी छा गई और वह अचानक धम्म से कुर्सी पर गिर पड़ा। फोन उसके हाथ से कबका छूट चुका था।
जीतो अमर को उठाये पड़ोस के घर से वापस आई तो घर में अँधेरा देख कर उसका भी माथा ठनका। ट्रैक्टर ट्राली समेत खड़ा था। अभी-अभी तो आये थे अचानक कहाँ चले गये, सोचते हुये जैसे ही अंदर के कमरे में गई तो बलवन्त की हालत देख कर सकते में आ गई।
"क्या... ये क्या हुआ आपको...क्या हो गया है... क्या बात हुई है...आख़िर आप कुछ बोलते क्यों नही...", जीतो घबराहट में क्या कुछ बोल रही थी, उसे कुछ पता नहीं था। बलवन्त सुन्न हो चुका था।वह सूनी आँखों से दीवार की तरफ़ देखे जा रहा था। जीतो ने बच्चे को बिस्तरे पर बिठाया और बलवन्त को झिंझोड़ कर लगभग चीख़ते हुये पूछा -
"तुम कुछ बताते क्यों नही कि क्या हुआ?"
अब बलवन्त को ज़रा होश आया कि ये क्या हो गया।
"अपनी रमन हमें छोड़ कर चली गई", वह चीख़ कर रोते हुये बोला।
"चली गई... कहाँ चली गई...?" वह भी सकते में आ गई।
"वह गुज़र गई, उसकी मौत हो चुकी है...", वह सुबकने लगा।
अब जीतो की बारी थी। उसकी चीख़ निकली और वह बेहोश हो गई।
थोड़ी देर में कोहराम मच गया। राजदीप और जग्गी भी आ गये। आस पड़ोस सारा इकट्ठा हो गया। फोन वापस अपनी जगह रखा गया तो थोड़ी देर बाद ही कनेडा से दोबारा फोन आ गया कि रमन मरी नहीं बल्कि मारी गई है। उसकी ससुराल वालों को ही उसके क़त्ल के मामले में गिरफ़्तार किया गया है।
रमन का क़त्ल हो गया है और उसके क़त्ल के इल्ज़ाम में उसकी ससुराल वालों को चार्ज किया गया है, यह ख़बर आग की तरह सारे मलकपुर में फैल गई। बलवन्त का घर बहुत सारे लोगों से भर गया। फोन की घंटी बार-बार बजने लगी। गाँव के सरपंच दलजीत सिंह स्वयं फोन के क़रीब बैठे थे और हर फोन का जवाब दे रहे थे। सारा गाँव सन्नाटे में आ चुका था। हर ज़ुबान पर रमन के क़त्ल की बात थी। अँधेरा गहरा हुआ जा रहा था, किसी को खाना बनाने की या खाना खाने की सुध-बुध नहीं थी और न ही किसी का मन कर रहा था।
फोन की घंटी फिर बजी, सरपंच साहब ने फोन उठाया। फोन कनेडा से ही आया था।
"हैलो...सत सिरी आकाल जी... दरअसल हम कनेडा से ‘पंजाब डेली’ अख़बार की तरफ़ से बोल रहे हैं। क्या बलवन्त सिंह जी से बात हो सकती है?" आवाज़ आई।
"जी नहीं... वो इस वक़्त बात करने की स्थिति में नहीं हैं, आप शायद जानते ही होंगे कि उनकी पुत्री...।"
"हाँ जी हाँ... हमें पता है और हम पूरी तरह से बलवन्त जी के ग़म में शरीक हैं, आप कौन साहब बोल रहे हैं?" आवाज़ फिर आई।
"जी मैं, इस गाँव का सरपंच दलजीत सिंह बोल रहा हूँ", सरपंच ने कहा।
"ओह..., सरपंच साहब, यह बहुत बुरा हुआ है। हमारी कम्यूनिटी के लिये यह बहुत ही शर्म की बात है। रमन जैसी कितनी ही लड़कियों के साथ अन्याय होता है। हमारी हज़ार कोशिशों के बावजूद भी इस तरह के घिनौने अपराध हो जाते हैं जिससे हमारा समाज और देश दोनों कलंकित होते हैं और हमारा मन भी शर्मसार हो जाता है। ख़ैर, यह वक़्त ऐसी बातों का नही है। बलवन्त सिंह जी से कहियेगा कि, हम कनेडावासी उनके दुख में बराबर के भागीदार हैं। हमारे माननीय मल्ली साहब की कोशिशों के सदका बलवन्त जी और उनके पूरे परिवार के कागज़ तैयार हैं, बस आप एक फ़ैक्स नम्बर दे दें उम्मीद है सुबह तक पहुँच जायेंगे। हम चाहते हैं कि वो जल्द यहाँ आ जायें ताकि अपनी बेटी के अन्तिम संस्कार में शामिल हो सकें।"
"ठीक है...", सरपंच ने भरे गले से कहा, "आपका बहुत बहुत धन्यवाद।"
"हम आपसे कल फोन करके बलवन्त जी के प्रोग्राम का पता कर लेंगे", आवाज़ आई। "ठीक है जी...",
सरपंच ने ज्योंही फोन रखना चाहा कि आवाज़ फिर आई-
"एक बात और है सरपंच साहब, सरदार मल्ली ने रिक्वेस्ट करके एक अतरिक्त वीज़ा भी भेजा है। अगर बलवन्त जी चाहें तो अपने किसी निजी मित्र या किसी रिश्तेदार को भी इस वीज़े के तहत ला सकते हैं।"
"ठीक है जी... आपलोग इस परिवार के लिये इतना कुछ कर रहे हैं, आपकी बड़ी मेहरबानी है...", सरपंच बोले।
"मेहरबानी की कोई बात नहीं सरपंच साहब, दरअसल हम यहाँ विदेश में रहकर भी अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आते। कभी-कभी हमारा लालच हमसे ऐसे घिनौने अपराध करवा देता है जिससे केवल हमारा ही नहीं, हमारे समाज और देश का भी सिर शर्म से झुक जाता है। हमारी कौम के माथे पर यह बदनुमा दाग़ जिनके कारण लगा है, उन्हें उनके किये की सज़ा अवश्य मिलनी चाहिये, बस यही हम चाहते हैं। ख़ैर, आपसे सुबह फिर बात करूँगा, सत श्री आकाल", और फोन कट गया।
बलवन्त के जीवनकाल में शायद ही ऐसी कोई भयावह रात रही हो जैसी कि आज की रात थी। तमाम रात न किसी ने पूछा न किसी ने खाया पीया। जीतो के दौरे रुक ही नहीं रहे थे। राजदीप और जग्गी का भी रो-रो कर बुरा हाल था। जैसे कि हर गाँव के लोग होते हैं, मलकपुर के लोग भी बहुत अच्छे हैं। सारी रात बलवन्त के घर पे बहुत सारे लोग बारी-बारी से आते रहे, और अपना दुख में शामिल रहने का कर्तव्य निभाते रहे। रमन की ससुराल वालों को बहुत कोसा जा रहा था। कोई कहता था कि इस तरह के रिश्ते हमें नहीं करने चाहिये, कोई कहता था कि रमन के ससुराल वालों को फ़ाँसी पे लटका देना चाहिये। इस तरह की अनेकों बातें हो रहीं थी कि सूरज देवता ने अपनी प्रथम किरणों को पृथ्वी पर भेजा।
प्रकृति का नियम कभी नहीं रुकता है। सुबह हो चुकी थी। यह और बात है कि मलकपुर में इतनी उदास सुबह पहले कभी नहीं देखी गई थी। अड्डे से लेकर गाँव की गलियों तक एक ही बात थी जो हर दिल में शूल की तरह चुभ रही थी। कुछ लोग क्रोध में भरे रमन के ससुराल वालों को गालियाँ भी दिये जा रहे थे। इसी सारे रोने-धोने के बीच सरपंच दलजीत सिंह ने अपने कुछ साथियों के समेत बलवन्त के घर में प्रवेश किया।
सरपंच साहब बलवन्त के क़रीब जा बैठे। दालान में सफ़ेद चादर बिछी हुई थी। उस पर बलवन्त निढाल सा बैठा था। उसकी तो सारी दुनिया उजड़ चुकी थी। अपनी बेटी को याद कर-कर वह ज़ोर-ज़ोर से रो उठता था। बच्चों की तरह उसे रोते देख सबका मन पसीज उठा, सरपंच ने उसे अपने गले लगाया। पानी मँगवा कर उसे पानी पिलाया गया। तब सरपंच ने उसे कनेडा जाने के कागज़ थमाते हुये कहा,
"बलवन्त, ये तेरे वीज़े के कागज़ हैं। तुझे कनेडा रमन के अंतिम संस्कार में शामिल होने जाना है..।"
"नहीं... दलजीत, मैं नहीं जा सकूँगा... मैं कौन सा मुँह लेकर वहाँ जाऊँगा... मैं तो बड़ी शान से वहाँ जाने वाला था... अब मैं कैसे...", इतना कह वह फिर रो पड़ा।
"नही बलवन्त, जाना तो पड़ेगा ही, हमने यहाँ से तो अकेले ही रमन को कनेडा विदा कर दिया था जो शायद हमारी भूल थी, परन्तु अब... अब अपनी बेटी को हम उसकी अंतिम यात्रा में अकेली नही छोड़ेंगे... हम ज़रूर जायेंगे...", कहते हुये सरपंच भी रो पड़े।
सारा इंतज़ाम किया गया। अगले ही दिन की टिकटें बुक की गईं। बलवन्त, जीतो, राजदीप और सरपंच, चारों रमन के अंतिम दर्शनों के लिये निकल पड़े। रमन के बेटे अमर को न ले जाया गया क्योंकि इस तरह के महौल में उसकी देखभाल सही न होने की वजह से वह बीमार हो गया था। जग्गी के बहुत ज़रूरी पेपर होने वाले थे। इस अनहोनी घटना ने सारे परिवार को हिला कर रख दिया था।
टोरंटो एयरपोर्ट पर उन्हें लेने के लिये बहुत सारे लोग पहुँचे हुये थे। बलवन्त का साला अवतार जो कैलगरी में रहता था, अपने परिवार समेत आया हुआ था। मलकपुर के जो लोग टोरंटो में रहते थे, उनमें से बहुत सारे आये थे। ‘पंजाब डेली’ के सम्पादक बलवीर जी और कुछ दूसरे अख़बार वाले तथा कुछ टी वी चैनल वाले भी थे। कहते हैं कि हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, अच्छा और बुरा। ऐसा ही कुछ मीडिया के साथ है। राई का पहाड़ बनाना या बात को तूल देना इन्हे ख़ूब आता है। यह अच्छी बात है कि ख़बर अच्छी हो या बुरी, जनमानस तक पहुँचाना इनका कर्तव्य है परन्तु ख़बर देने के मामले में ये एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में इस क़दर अन्धे हो जाते हैं कि ख़बरों का कीचड़ इन पर या इनके समाज पर गिरे, इससे इन्हे कोई फ़र्क़ नही पड़ता है। अपनी इमेज को ऊँचा उठाने के मद में ये लोग दूसरों के दुख-दर्द को रौंदते हुये बड़े आराम से उनके ऊपर से गुज़र जाते हैं।
ख़ैर, बलवीर साहब आगे आये और सारे क़ाफ़िले को लेकर बेनसेशिया फ़्यूनरल होम की तरफ़ चल पड़े जहाँ रमन का शरीर दर्शनों के लिये रखा हुआ था। वहाँ जाकर माहौल फिर एक बार दुखदायी हो उठा। बलवन्त, जीतो, राजदीप, अवतार, सरपंच सबका रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। बलवन्त के बहुत सारे रिश्तेदार जो वहाँ पहले से ही मौजूद थे, उसके क़रीब आये। सबने अपना शोक प्रकट किया और रमन के ससुराल वालों को जी भर के लताड़ा। रमन के अंतिम संस्कार के लिये दो दिन बाद रविवार का दिन निश्चित किया गया। बलवन्त अपने साले के घर चले गये। दो दिन आने जाने वालों का ताँता लगा रहा। अपने ग़म में इतने लोगों को शरीक पाकर बलवन्त के दिल को थोड़ी तसल्ली भी मिली। परदेस में अपने लोगों का ही तो आसरा होता है। दो दिन रमन के स्वभाव की बातें होती रहीं और उसकी ससुराल के रवैये की।
"बहुत शान्त स्वभाव की लड़की थी बेचारी", कोई कहता, "मैंने उसे ऊँचा बोलते हुये कभी नही सुना।"
"जब भी मिलती थी बड़े प्यार से मिलती थी, मेरे तो परिवार के एक-एक सदस्य का हाल पूछती थी।" कोई कहता, "मुझे तो अभी भी उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा हुबहू याद है।"
"किन कमीनों के पल्ले बाँध दी हमने अपनी गऊ जैसी बच्ची, वाहेगुरू उनका सत्यानाश करे", कोई महिला बोल उठती।
"सत्यानाश तो होगा ही, यह कोई भारत नहीं है जो पैसे देकर छूट जायेंगे। यह कनेडा है, यहाँ तो अपने किये को भुगतना ही पड़ता है", कोई दूसरी बोल उठती।
इस तरह दो दिन गुज़रे। कहते हैं, सुख के पल तो हवा की तरह उड़ जाते हैं पर दुख की घड़ियाँ गुज़ारे भी नहीं गुज़रती। जैसे-तैसे करके रविवार आया, सुबह क़रीब आठ बजे तमाम लोग फ़्यूनरल होम पहुँचे। अंतिम अर्दास की गई। पश्चात बड़ी सी काली गाड़ी में रमन के शरीर को डाल कर मिडोवेल सिमेट्री में अंतिम संस्कार के लिये ले जाया गया। वहाँ रमन की ससुराल के भी कुछ लोग आये हुये थे। उनसे कुछ लोगों की झड़प भी हुई। रमन के घर वालों ने उनके चले जाने की माँग की। उनके चले जाने के बाद ही अंतिम संस्कार की रस्में पूरी की गई। बलवन्त को लगा कि आज उसने फिर अपनी बेटी की दोबारा आहुति दी है। एक बार उस समय, जब उसने कनेडा के लालच में रमन का विवाह तय किया था और एक बार आज। दोनों ही बार उसने रमन को खोया था।
गुरूद्वारे में कीर्तन चल रहा था। अंतिम संस्कार के पश्चात गुरूद्वारे में भोग का आयोजन था। बहुत सारे लोग वहाँ जमा थे। कम्यूनिटी के प्रमुख नुमायन्दे और सार्वजनिक तौर पर चुने हुये कई नेता भी वहाँ मौजूद थे। लोगों की भीड़ में दूर पीछे ‘पंजाब डेली’ के बलवीर और सरपंच दलजीत सिंह अपनी बातों में मशरूफ़ थे।
"आप क्या सोचते हैं बलवीरजी इस तरह की घटनाओं के बारे में", सरपंच ने पूछा।
"मैं इसे एक सामाजिक बुराई के तौर पर लेता हूँ", बलवीर ने कहा, "वह बुराई जो हत्या जैसे घृणित काम पर जाकर समाप्त होती है। समाप्त नहीं, बल्कि एक नये जुर्म का मार्गदर्शन भी करती है। वह लालच जो कभी मिटता नहीं, हर बार एक नया रूप लेकर हमारे सामने आता है और हमें घेर कर हमसे ऐसे काम करवाता है कि मानवता हाहाकार कर उठती है।"
"आप ठीक कहते हैं परन्तु इस बिमारी से छुटकारा कैसे पाया जाये। इसका इलाज क्या होना चाहिये? आज यही अकेली घटना नहीं है जिससे हम शर्मिन्दा हैं, अगर पीछे नज़र दौड़ाई जाये तो इससे मिलती-जुलती अनेकों घटनायें हो चुकी हैं जो हमें लज्जित करती हैं और इससे आगे ऐसी घटनायें नहीं होंगी, उसकी भी कोई गारन्टी नहीं है। कब तक हम अपने लालच के लिये अपने ही बच्चों की आहुति देते रहेंगे।" सरपंच ने दुखी हृदय से कहा, "आख़िर कोई तो इलाज होना ही चाहिये।"
"मैं सोचता हूँ कि सबसे पहले तो विदेश आने का मोह त्यागना चाहिये", बलवीर बोले।
"आपके कहने का मतलब यह है कि भारत से लोग विदेशों की धरती पर आना छोड़ दें, लेकिन यह क्योंकर हो सकता है बलवीर साहब। य़ह तो आप जानते ही हैं कि सदियाँ बीत चुकी हैं जबसे हम विदेशों में आ रहे हैं और सफलतापूर्वक रह रहे हैं। यहाँ आना कोई मोह नहीं है बल्कि एक जज़्बा है आगे बढ़ने का। एक जुनून है, शौक़ है आस्मां को छूने का। इसके लिये जो रास्ते हम चुनते हैं उनमें से सही और ग़लत दोनों होते हैं। बस, जब ग़लत रास्ता अख़्तियार किया जाता है तो उसका अंजाम ग़लत हो जाता है", सरपंच ज़रा तैश में आते हुये बोले।
"आपकी बात से मैं सहमत हूँ परन्तु बाहर जाने के लिये सारी सीमायें तोड़ कर कुछ भी कर गुज़रने को मैं पागलपन ही समझता हूँ", बलवीर ने कहा।
"यह पागलपन तो आपने भी किया है", सरपंच फिर तैश में बोले, "अब आप यहाँ आकर पूरी तरह सैटल हो गये हैं, अपनी ही कम्यूनिटी से कमाते हैं, अपने ही लोगों की ख़बरें छापते हैं और भारत में रहने वाले अपने भाईयों को कहते हैं कि यहाँ मत आओ। अगर अपने लोग यहाँ न हों तो आपका अख़बार क्या ये गोरे-काले पढ़ेंगे? लोग तो यहाँ आना नहीं छोड़ेंगे वो तो आयेंगे ही और शादियाँ भी होंगी, मगर सवाल यह है कि इस बुरी समस्या से कैसे निपटा जाये?"
"मैं समझता हूँ कि एक सामूहिक जागरुकता की आवश्यकता है।" बलवीर ठहरे अंदाज़ में बोले, "यह समस्या दहेज की भी समस्या है, यह समस्या लालच की भी समस्या है। सिर्फ़ एक पक्ष का ही दोष नहीं होता है। ताली दोनों हाथों से बजती है। कनेडा से कोई पचास या साठ साल का बूढ़ा भी पंजाब जाता है तो लोग अपनी बीस-बीस साल की बेटियाँ ले कर उसके पीछे पड़ जाते हैं। रिश्ता करने के लिये सबमें होड़ लग जाती है कि कहीं कोई दूसरा रिश्ता न कर जाये और वो पिछ्ड़ न जायें। अपने लोग यहाँ आयें, ये अच्छी बात है, परन्तु सही और ईमानदारी के रास्ते पर चलकर आयें तो बेहतर है। यहाँ के लोगों को भी अपना लालच त्यागना होगा। बहू के प्रति सास के रवैये में भी तब्दीली की ज़रूरत है। किसी की बेटी को यूँ विदेश में अपने माँ-बाप से कोसों दूर लाकर पैसों के लिये उसे क़त्ल कर देना एक जघन्य अपराध है। ऐसी मानसिकता से हमें निकलना होगा।"
"आप सही कहते हैं। इसमें हमारा-आपका और तमाम कम्यूनिटी के नुमायन्दों का अहम रोल हो जाता है। हम सब मिलजुल कर ही एक नई सोच को जन्म दे सकते हैं ताकि भविष्य में ऐसी होने वाली आहूतियों पर रोक लग सके", सरपंच ने कहा और तभी

चंगिआईयाँ बुरिआईयाँ वाचे धरम हदूरि
करमी आपो आपणी के नेड़े के दूरि
जिन्नी नाम धिआया गये मसकति घालि
नानक ते मुख उज्जले केती छुट्टी नालि

के साथ अर्दास आरम्भ हुई, सब खड़े हो गये। ग्रन्थीजी ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में रमन की आत्मा की शान्ति के लिये अर्दास की। उपरान्त वाक लिया गया। उसके बाद कम्यूनिटी के कई नुमायन्दों ने बारी-बारी से इस सामाजिक बुराई की निन्दा की और इससे निदान की कई तजवीज़ें रखी गईं। श्रीमान मल्ली साहब ने कड़े शब्दों में इस हत्या की निन्दा करते हुये कहा कि इस किस्म का यह क़त्ल कोई पहला या आख़िरी क़त्ल नहीं है फिर भी हमारी मानसिकता में अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है क्योंकि हम कभी अतीत से सीखते ही नहीं और विदेश की धरती पर अपने परिवार वालों को सैट करने की चाह में कई बार गम्भीर अपराध करने से भी बाज नहीं आते। भारत में बेरोज़गारी की समस्या, नौजवानों का अंधकारमय भविष्य, भुखमरी, किसानों का लगातार क़र्ज़े तले दबे रहना और उनका ख़ुदकुशी करने के लिये बाध्य होना आदि सब भी इस तरह के अपराध के कारण हो सकते हैं। आज भी भारत में किसी को रोज़गार की चिन्ता है तो किसी को बेटी के ब्याह की चिन्ता है। कोई ज़मीन बेच रहा है तो कोई अपना घर गिरवी रख रहा है। इस सारे निज़ाम को बदलने की ज़रूरत है और इस काम के लिये भारत के ही नही यहाँ के लोगों की भी बराबर की ज़िम्मेदारी है वर्ना पता नहीं और कितनी ही रमनदीपें अपनी आहुति देती रहेंगी। अन्त में मैं यहाँ आये सब लोगों का धन्यवाद करता हूँ और सबसे गुज़ारिश करता हूँ कि बलवन्त सिंहजी की सहायता के लिये आगे आयें और उनके लिये खोले गये फ़ंड में अपना योगदान डाल कर उनके ग़म में शरीक होने का फ़र्ज़ अदा करें। आपसब की कोशिशों के सदका अब तक चालीस हज़ार डालर जमा हो चुके हैं। जितनी भी राशि जमा होगी बलवन्त सिंहजी की भारत वापसी से पहले उन्हे सौंप दी जायेगी। आज शाम को रमनदीप की क़त्लगाह पर एक कैण्डल लाईट विज़ल रखा गया है मेरी सबसे प्रार्थना है कि वहाँ आयें और रमनदीप की आत्मिक शान्ति के लिये एक बार और अर्दास करें। वाहेगुरू जी का ख़ालसा, वाहेगुरू जी की फ़तेह।"
इसके बाद भोग लिया गया और सब धीरे-धीरे दुखी मन से विदा होने लगे। बलवन्त भी सरपंच और अवतार के साथ थके हारे क़दमों से बाहर निकल कर जूते घर में अपने जोड़े पहनने लगा।
जूते पहन कर बलवन्त दरवाज़े से बाहर निकला तो दिन ढल चुका था। अभी चार ही बजे थे पर अँधेरा फैलने लगा था। सामने हर तरफ़ बर्फ़ के ढेर लगे थे। बर्फ़ की सफ़ेदी तो दूर-दूर तक फैली हुई थी, पर सूरज का कहीं नाम-ओ-निशान नहीं था। वैसे भी, इस देश में मौसम का कोई भरोसा नहीं है। क्या पता, कल भी सूरज निकलेगा या नहीं, यह सोच कर बलवन्त एक गहरी उदासी में डूब गया। वह सामने देख ही रहा था कि राजदीप हल्के क़दमों से उसके पास आई और अपना सिर उसकी बाजू से टिकाकर सुबकने लगी। अचानक बलवन्त को लगा कि कहीं, कुछ तो अभी शेष है जिसके लिये यूँ हताश होना उचित नहीं है। उसने अपनी आह को सीने में दबाया और अपनी बेटी को अपने आगोश में भींचे हुये गुरूद्वारे की सीढ़ियाँ उतरने लगा।

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Sunday, February 8, 2009

पनाह चाहिये

मंज़िल नही, राह चाहिये
आराम नही, आह चाहिये

नफ़रतों से ऊब चुके हम
मुहब्ब्तों की चाह चाहिये

साथ दे हर दौर में जो
बांह में वो बांह चाहिये

बादलों सुनो आज तुम
निरन्तर प्रेम प्रवाह चाहिये

सितारों तुम भी जान लो
रोशन हर निगाह चाहिये

प्यार ही प्यार हो जहाँ
दिल वो बेपरवाह चाहिये

किस नगर में है ठिकाना
तेरे घर की थाह चाहिये

मैं तो कबसे हूँ भटकता
मुझको अब पनाह चाहिये

है जो करना कुछ हयात में
जुनून बेपनाह चाहिये












Wednesday, February 4, 2009

आईने के रूबरू

आईने के रूबरू जब मेरे यार होता हूँ
ख़ुद से फिर बड़ा शर्मसार होता हूँ

वक्त की इबारत मुझसे पढ़ी नही जाती है
जितना भी जी चाहे मैं तलबगार होता हूँ

जो दिखता है वो मुझसे मेल नही खाता है
जो मेल खाता है उससे मैं नागवार होता हूँ

चंद लकीरें माज़ी की कुछ रंग हैं किस्मत के
देख देख सबको फिर बेक़रार होता हूँ

रह गया है टूट के ज़िन्दगी का आईना
जिसके टुकड़ों से सदा मैं दाग़दार होता हूँ

मुझसे अलग नही है निर्मल की ज़िन्दगी
फिर न जाने क्यूं मैं ही गुनाहगार होता हूँ