Wednesday, September 30, 2009

बिखरा पड़ा है

कल तक था जो
सिमटा-सिमटा
आज वो सब-कुछ
बिखरा पड़ा है,
लगता था जो
अपना-अपना
जग सारा वो
बिखरा पड़ा है,

सूरज से अब
किरनें रूठीं
दिखती चाँद में
नहीं चाँदनी
सावन से बरखा
है भागी
छोड़ गई गीतों
को रागिनी,
मगर विचारों के
सागर में
आज भी देखें
जोश बड़ा है,

घर शासक के
मिले न शासन
वहाँ तो रहता
अब दु:शासन
सभी उड़ाते हैं
बेपर की
कौन बचाये
देश का दामन,
मत भूलें वो
जन-मानस में
आज भी गांधी
ज़िन्दा खड़ा है,

फोन की घंटी
रेल का गर्जन
शाम-सवेरे
भागता यौवन
लैपटॉप है पास
में फिर भी
लायें कहाँ से
फ़ुरसत के क्षण
ऐसे में अब
कौन ये सोचे
जीवन प्यारा
शहद-घड़ा है

2 comments:

  1. सुंदर भाव हैं। आखिरी छंद सत्य के बहुत पास है.

    लैपटॉप है पास
    में फिर भी
    लायें कहाँ से
    फ़ुरसत के क्षण

    सादर
    शैलजा

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  2. सावन से बरखा
    है भागी
    छोड़ गई गीतों
    को रागिनी,
    मगर विचारों के
    सागर में
    आज भी देखें
    जोश बड़ा है,

    सुन्दर अभिव्यक्ति

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