सुबह-सवेरे नहा धोकर मैं ज्योंहि अपने आफिस में पहुँचा तो कुछ लिखने को मन हुआ। लिखने का मेरा दफ़्तर मेरे घर पर ही स्थित है। हर तरह की सुविधा से सम्पूर्ण होने पर भी लिखने के मामले में मैं ज़रा दकियानूसी हूँ। कहने का मतलब है कि पहले मैं कलम से कागज़ पर लिखता हूँ पश्चात उसे कम्प्यूटर पर टाईप करता हूँ। हाथ से लिखकर मुझे अत्यधिक संतुष्टि मिलती है। एक बात और मैं ज़्यादातर सुबह-सुबह ही लिखने को तरजीह देता हूँ। इसके कई कारण हैं। एक तो मन सुबह-सुबह काफ़ी हद तक एकाग्र होता है जिससे नयापन तेज़ी से सूझता है। दूसरा बाहरी हस्तक्षेप का अंदेशा भी बहुत कम होता है। उत्तम लेखिनी के लिये सुबह का समय मुझे बहुत उपयुक्त लगता है।
ख़ैर, काफ़ी सोच विचार के बाद अपने पुराने लिखे कागज़ों को एकत्रित कर एक ओर रखा और नये कागज़ सामने रखकर ज्योंहि कलम उठाकर उससे लिखने का प्रयास किया तो कलम अटकने लगी। उसके अटकने का कारण मुझे समझ में न आया। काफ़ी प्रयत्न करने पर भी जब वह टस से मस न हुई तो मैं खिन्न हो उठा और चलने के लिये कलम पर अधिक से अधिक दबाव डालने लगा। मेरा अत्यधिक दबाव देखकर यकायक कलम तड़प उठी और क्रोध से तमतमाते हुये मुझ पर उबल पड़ी।
"आख़िर क्या चाहते हो तुम मुझसे?" वह बिफरी ,"क्यों सताते रहते हो इस तरह मुझे आ आकर। हर सुबह मेरी गर्दन पकड़ कर अपनी मनमानी करना शुरू कर देते हो, आख़िर क्यों"
"ओह...हो.. ये क्या हो गया है आज तुम्हें" मैं बोला " क्यों इस तरह भड़क रही हो, मैने तुम्हे पहले कभी इस तरह अपने कर्तव्य से आंखे चुराते हुये नही देखा"
"कर्तव्य ? कौन से कर्तव्य की बात करते हो तुम" वह भड़क उठी "अगर तुम इमानदारी से सत्य लिखने को कर्तव्य मानते हो तो यह तुमने भी देखा है कि जब भी मैं ऐसा करने का प्रयास करती हूँ तो मेरे पैरों में बेड़ियां डालने की मुहिम शुरू हो जाती है और फिर ज्योंहि मेरे क़दम थमने लगते हैं तुम आकर फिर कर्तव्यपरायणता की दुहाई देने लग जाते हो।"
"यह तो तुम भी जानती हो प्रिये" मैने उसे समझाते हुये कहा, "जब भी दुनिया में कोई सत्य को अपनाता है और ईमान की राह पर चलने का प्रण करता है तो उसकी राह में अड़चनें तो आती ही हैं। फिर यह भी तो उचित नही कि सच्चाई से मुंह मोड़ो और जो होता है उसे होने दो"
"जो होता है उसे होने दो" उसने मेरी बात को व्यंग से दुहराते हुये कहा, "क्या तुम नही जानते कि इस दौर में ऐसा ही चाहा जाता है। हां में हां मिलाने की परिपाटी चली हुई है। राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है कि हर कोई चाहता है बस उसके गुण्गान किये जाओ। चमचागीरी और चापलूसी का ढंग अपनाये जाओ। उनके स्याह-सफ़ेद और घपले-घोटाले का हुबहू समर्थन किये जाओ और अगर ऐसा न कर सको तो अंजाम भुगतने के लिये तैयार हो जाओ।"
"तुम्हे इतनी नाकारत्मक सोच नही रखनी चाहिये" मैं लगभग खीजते हुये बोला, "बल्कि तुम्हे तो हमेशा रचनात्मक धर्म निभाते हुये लिखने से कभी मुंह नही मोड़ना चाहिये।"
"क्या लिखूं मैं?" वह भी खीजते हुये बोली, "क्या दुनिया में ऐसा कुछ हो रहा है जिसे लिखना चाहिये या जो कुछ हो रहा है वह लिखने के लायक है। एक तरफ़ तो तुम्हारे भाई बन्द लगातार तरक्क़ी की मंज़िलें तय करते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ वो इन्सानी क़द्रो क़ीमत के मामले में रसातल में जा रहें हैं। उनका ख़ून सफ़ेद हो चुका है। रिश्तों में दरारें हैं तो प्रेम की जगह नफ़रत ने ले ली है। धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और मुहब्ब्त को मतलबपरस्ती ने घेर रखा है। इतना कुछ तुम्हारी दुनिया में हो रहा है और तुम मुझसे कहते हो कि मैं लिखूं। बताओ क्या लिखूं मैं?"
"नही... नही...हालात इतने भी बुरे नही हैं।" मैंने फिर कहा, "तुम्हे भला कौन रोक सकता है कुछ भी कहने से। तुम मानवता की एक निरपक्ष, निडर, कर्मठ और आज़ाद योद्धा हो।"
"आज़ाद...? आज़ाद हूं मैं?" वह फिर भड़्की, "किस आज़ादी की बात करते हो? मेरी आज़ादी देखना चाहते हो तो जाओ तालीबानों, तानाशाहों, और पूंजीपतियों की दुनिया में, जहाँ मेरी बहनों के हाथ सिर्फ़ इसलिये काट दिये जाते हैं कि मुझे हाथ में लेकर वो अपना जीवन न सवांर सकें, आज़ादी की खुली हवा में सांस न ले सकें। वहाँ जाकर तुम्हें पता चलेगा कि मैं कितनी स्वतंत्र हूँ। वहाँ जब भी मैं चलती हूँ तलवार मेरी गर्दन पर होती है। वो जैसा चाहते हैं मुझे नचाते हैं और तुम कहते हो कि मैं आज़ाद हूँ।"
"मैं मानता हूँ कि विश्व के कुछ हिस्सों में तुमपर ज़ुल्म होता है।" मैंने दबी आवाज़ में कहा, "तुम्हारी चाल को तलवार की धार दिखा कर बदला जाता है परन्तु इस ग़ुलाम मानसिकता के बाहर तो आना ही होगा। भय त्यागना ही होगा वर्ना लोगों का भला क्योंकर हो पायेगा।"
"किन लोगों के भले की बात करते हो वो जो आज तक नही सुधरे।" वह एक बार फिर चिहुंकी, "जिन लोगों की बात तुम करते हो उनको सुधारने के लिये मैं ईमानदारी के साथ सदियों तक दौड़ी हूँ। क्या कुछ न लिखा मैंने तुम्हारे कहने पर। सुन्दर से सुन्दर शब्दों में पिरोकर तुम्हारे विचारों को मैंने इन लोगों के सामने रखा है।कभी रहबरों के साथ, कभी शायरों कवियों और लेखकों के साथ मिलकर इन्हें राह बताई मगर ये आज तक न सुधरे। आज भी वही अंधविश्वास, वही अनपढ़ता, वही ज़ाहिलपन फैला है जो सदियों पहले फैला था। अपने आपको शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी मैंने गंवार और मजहबी जुनून से भरे देखा है। इन्सानियत को यूं मरते देखकर मेरे दिल की जो हालत होती है उसे तुम क्या जानो।" वह एकदम रोआंसी हो उठी।
"देखो दिल छोटा न करो "मैंने उसे दिलासा देते हुये कहा, "कभी पाँच उंगलियां भी बराबर होती हैं भला, परन्तु हर उंगली के महत्व से भी इन्कार तो नही किया जा सकता है। तुम अपना काम किये जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो। वैसे भी, ईश्वर ने ही तो तुम्हारा ये कर्तव्य निश्चित किया है कि जब तक दुनिया में इल्म का पूर्ण प्रकाश न फैल जाये, एक एक इन्सान शिक्षत और समझदार न हो जाये तुम्हे तो चलते ही जाना है क्योंकि चलना ही तेरी नियति है, चलना ही तेरा नियम है और चलना ही तेरा धर्म है।"
क़लम को अब कोई जवाब न सूझा। हालांकि उसके चेहरे पर अभी भी असंतुष्टि के भाव थे पर वह बोली कुछ नही।
"और सुनो" मैंने आगे कहा, "जीवन सिर्फ़ अपने लिये नही होता। अगर तुम्हारी तरह शेक्सपियर, गेटे, टाल्स्टाय, प्रेमचन्द, बच्चन, निराला और गुप्त भी सोचते तो साहित्य जगत युं न मालामाल होता और मानवता कबकी समाप्त हो चुकी होती। और रही बात आज़ादी की तो आज़ादी कोई बाहर ढूंढने की चीज़ नही, वह तुम्हारे अपने अंदर होती है। तुम्हारे मन, विचार कितने शुद्ध और स्वतंत्र हैं उसी का महत्व होता है। अंत में वही बात फिर एक बार मैं कहूंगा कि कर्म करते जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो।"
अब मुझे वह कुछ संतुष्ट व निरुत्तर नज़र आने लगी थी।
ख़ैर, काफ़ी सोच विचार के बाद अपने पुराने लिखे कागज़ों को एकत्रित कर एक ओर रखा और नये कागज़ सामने रखकर ज्योंहि कलम उठाकर उससे लिखने का प्रयास किया तो कलम अटकने लगी। उसके अटकने का कारण मुझे समझ में न आया। काफ़ी प्रयत्न करने पर भी जब वह टस से मस न हुई तो मैं खिन्न हो उठा और चलने के लिये कलम पर अधिक से अधिक दबाव डालने लगा। मेरा अत्यधिक दबाव देखकर यकायक कलम तड़प उठी और क्रोध से तमतमाते हुये मुझ पर उबल पड़ी।
"आख़िर क्या चाहते हो तुम मुझसे?" वह बिफरी ,"क्यों सताते रहते हो इस तरह मुझे आ आकर। हर सुबह मेरी गर्दन पकड़ कर अपनी मनमानी करना शुरू कर देते हो, आख़िर क्यों"
"ओह...हो.. ये क्या हो गया है आज तुम्हें" मैं बोला " क्यों इस तरह भड़क रही हो, मैने तुम्हे पहले कभी इस तरह अपने कर्तव्य से आंखे चुराते हुये नही देखा"
"कर्तव्य ? कौन से कर्तव्य की बात करते हो तुम" वह भड़क उठी "अगर तुम इमानदारी से सत्य लिखने को कर्तव्य मानते हो तो यह तुमने भी देखा है कि जब भी मैं ऐसा करने का प्रयास करती हूँ तो मेरे पैरों में बेड़ियां डालने की मुहिम शुरू हो जाती है और फिर ज्योंहि मेरे क़दम थमने लगते हैं तुम आकर फिर कर्तव्यपरायणता की दुहाई देने लग जाते हो।"
"यह तो तुम भी जानती हो प्रिये" मैने उसे समझाते हुये कहा, "जब भी दुनिया में कोई सत्य को अपनाता है और ईमान की राह पर चलने का प्रण करता है तो उसकी राह में अड़चनें तो आती ही हैं। फिर यह भी तो उचित नही कि सच्चाई से मुंह मोड़ो और जो होता है उसे होने दो"
"जो होता है उसे होने दो" उसने मेरी बात को व्यंग से दुहराते हुये कहा, "क्या तुम नही जानते कि इस दौर में ऐसा ही चाहा जाता है। हां में हां मिलाने की परिपाटी चली हुई है। राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है कि हर कोई चाहता है बस उसके गुण्गान किये जाओ। चमचागीरी और चापलूसी का ढंग अपनाये जाओ। उनके स्याह-सफ़ेद और घपले-घोटाले का हुबहू समर्थन किये जाओ और अगर ऐसा न कर सको तो अंजाम भुगतने के लिये तैयार हो जाओ।"
"तुम्हे इतनी नाकारत्मक सोच नही रखनी चाहिये" मैं लगभग खीजते हुये बोला, "बल्कि तुम्हे तो हमेशा रचनात्मक धर्म निभाते हुये लिखने से कभी मुंह नही मोड़ना चाहिये।"
"क्या लिखूं मैं?" वह भी खीजते हुये बोली, "क्या दुनिया में ऐसा कुछ हो रहा है जिसे लिखना चाहिये या जो कुछ हो रहा है वह लिखने के लायक है। एक तरफ़ तो तुम्हारे भाई बन्द लगातार तरक्क़ी की मंज़िलें तय करते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ वो इन्सानी क़द्रो क़ीमत के मामले में रसातल में जा रहें हैं। उनका ख़ून सफ़ेद हो चुका है। रिश्तों में दरारें हैं तो प्रेम की जगह नफ़रत ने ले ली है। धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और मुहब्ब्त को मतलबपरस्ती ने घेर रखा है। इतना कुछ तुम्हारी दुनिया में हो रहा है और तुम मुझसे कहते हो कि मैं लिखूं। बताओ क्या लिखूं मैं?"
"नही... नही...हालात इतने भी बुरे नही हैं।" मैंने फिर कहा, "तुम्हे भला कौन रोक सकता है कुछ भी कहने से। तुम मानवता की एक निरपक्ष, निडर, कर्मठ और आज़ाद योद्धा हो।"
"आज़ाद...? आज़ाद हूं मैं?" वह फिर भड़्की, "किस आज़ादी की बात करते हो? मेरी आज़ादी देखना चाहते हो तो जाओ तालीबानों, तानाशाहों, और पूंजीपतियों की दुनिया में, जहाँ मेरी बहनों के हाथ सिर्फ़ इसलिये काट दिये जाते हैं कि मुझे हाथ में लेकर वो अपना जीवन न सवांर सकें, आज़ादी की खुली हवा में सांस न ले सकें। वहाँ जाकर तुम्हें पता चलेगा कि मैं कितनी स्वतंत्र हूँ। वहाँ जब भी मैं चलती हूँ तलवार मेरी गर्दन पर होती है। वो जैसा चाहते हैं मुझे नचाते हैं और तुम कहते हो कि मैं आज़ाद हूँ।"
"मैं मानता हूँ कि विश्व के कुछ हिस्सों में तुमपर ज़ुल्म होता है।" मैंने दबी आवाज़ में कहा, "तुम्हारी चाल को तलवार की धार दिखा कर बदला जाता है परन्तु इस ग़ुलाम मानसिकता के बाहर तो आना ही होगा। भय त्यागना ही होगा वर्ना लोगों का भला क्योंकर हो पायेगा।"
"किन लोगों के भले की बात करते हो वो जो आज तक नही सुधरे।" वह एक बार फिर चिहुंकी, "जिन लोगों की बात तुम करते हो उनको सुधारने के लिये मैं ईमानदारी के साथ सदियों तक दौड़ी हूँ। क्या कुछ न लिखा मैंने तुम्हारे कहने पर। सुन्दर से सुन्दर शब्दों में पिरोकर तुम्हारे विचारों को मैंने इन लोगों के सामने रखा है।कभी रहबरों के साथ, कभी शायरों कवियों और लेखकों के साथ मिलकर इन्हें राह बताई मगर ये आज तक न सुधरे। आज भी वही अंधविश्वास, वही अनपढ़ता, वही ज़ाहिलपन फैला है जो सदियों पहले फैला था। अपने आपको शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी मैंने गंवार और मजहबी जुनून से भरे देखा है। इन्सानियत को यूं मरते देखकर मेरे दिल की जो हालत होती है उसे तुम क्या जानो।" वह एकदम रोआंसी हो उठी।
"देखो दिल छोटा न करो "मैंने उसे दिलासा देते हुये कहा, "कभी पाँच उंगलियां भी बराबर होती हैं भला, परन्तु हर उंगली के महत्व से भी इन्कार तो नही किया जा सकता है। तुम अपना काम किये जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो। वैसे भी, ईश्वर ने ही तो तुम्हारा ये कर्तव्य निश्चित किया है कि जब तक दुनिया में इल्म का पूर्ण प्रकाश न फैल जाये, एक एक इन्सान शिक्षत और समझदार न हो जाये तुम्हे तो चलते ही जाना है क्योंकि चलना ही तेरी नियति है, चलना ही तेरा नियम है और चलना ही तेरा धर्म है।"
क़लम को अब कोई जवाब न सूझा। हालांकि उसके चेहरे पर अभी भी असंतुष्टि के भाव थे पर वह बोली कुछ नही।
"और सुनो" मैंने आगे कहा, "जीवन सिर्फ़ अपने लिये नही होता। अगर तुम्हारी तरह शेक्सपियर, गेटे, टाल्स्टाय, प्रेमचन्द, बच्चन, निराला और गुप्त भी सोचते तो साहित्य जगत युं न मालामाल होता और मानवता कबकी समाप्त हो चुकी होती। और रही बात आज़ादी की तो आज़ादी कोई बाहर ढूंढने की चीज़ नही, वह तुम्हारे अपने अंदर होती है। तुम्हारे मन, विचार कितने शुद्ध और स्वतंत्र हैं उसी का महत्व होता है। अंत में वही बात फिर एक बार मैं कहूंगा कि कर्म करते जाओ बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो।"
अब मुझे वह कुछ संतुष्ट व निरुत्तर नज़र आने लगी थी।
कलम से बातचीत के माध्यम से कितना सारा यथार्थ उजागर कर दिया आपने. बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत ही बदिया कलम के सत्य पर एक सतीक अभिव्यक्ति है बधाई
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