फोन की घंटी बजी, उसने फोन उठाकर कान से लगाया ही था कि हैलो के बाद मशीन फिर से अपनी रटी रटाई आवाज़ में वही संदेश दुहराने लगी। वह परेशान हो उठा। उसकी समझ में नही आ रहा था कि वह इस समस्या से कैसे निपटे। इस तरह के फोन आने का रोज़ का ही सिलसिला हो गया था बल्कि दिन में तरह तरह के नम्बरों से कई-कई बार ऐसे ही फोन आते थे। कई बार तो थक हार कर वह इस तरह के फोन उठाता ही नही था पर कई बार वह उठाकर फंस जाता था।
करीब पांच साल पहले वह कनाडा आया था। जब वह आया था तो वह बड़े जोश व ख़रोश से भरपूर था। ढेरों ही स्वप्न उसकी आंखों में बसे थे। अपने और अपने परिवार का भविष्य संवारने की उम्मीदें वह अपने मन में संजोये था। परन्तु यहाँ आकर उसे बेहद तलाश करने के बावजूद भी अपनी लाईन का काम नही मिला। वह थोड़ा हताश ज़रूर हुआ फिर भी उसने हिम्मत न हारी और मेहनत करनी आरम्भ की। उसे अपनी लाईन का काम न भी मिला तो भी उसने जो भी काम मिला, करना शुरू किया। डेढ़ साल के अन्दर ही उसने अपने परिवार को भी अपने पास बुला लिया, परन्तु यहीं से उसकी परेशानियों का भी दौर शुरू हुआ। पत्नी ने काम तो किया परन्तु दो बच्चों की पढ़ाई का बोझ भी बढ़ गया था। किसी तरह हिम्मत करके एक छोटा सा घर ले लिया गया पर उससे भी खर्चे और बढ़ गये थे। पीछे भारत में उसके माता पिता व एक कुंवारी बहन रह रहे थे। बहन की शादी का बोझ भी उस पर आ पड़ा। पिताजी को कई बार पैसे भेजने पड़े। इसी दौरान दुनिया में मंदी का दौर शुरू हो चला जिससे उसकी नौकरी जाती रही। धीरे धीरे जब उसकी सारी जमा पूंजी समाप्त हुई तो उसने अपनी क्रेडिट लाईन का इस्तेमाल करना शुरू किया परन्तु वह भी जल्द ही समाप्त हो गई। इस तरह क़र्ज़ का अजगर दिनोंदिन क्रेडिट लाईन, क्रेडिट कार्ड सब कुछ निग़लता चला गया। बच्चे छोटे होने की वजह से साथ नही दे पा रहे थे। पत्नी भी इन परेशानियों के कारण चिड़चिड़ी सी रहने लगी थी। क़र्ज़ के बोझ तले दबे दबे जब भी उसको इसकी वसूली के फोन आते तो वह परेशान हो उठता था। फोन का सिलसिला रुकने का नाम ही नही लेता था। जो नौकरी उसे फिर से मिली थी उससे दो जून की रोटी ही पूरी हो पाती थी। ऐसे में वह क़र्ज़ वापस करे भी तो कैसे!
फोन वापस अपनी जगह रखकर चिन्ता के सागर में डूबा हुआ वह सोफ़े में धँस गया। अपने जीवन में पैसा उधार लेने से उसने हमेशा ग़ुरेज़ किया था और यदि कभी लिया भी था तो धन्यवाद सहित वापस कर दिया था। भारत में अपनी बैंक की नौकरी के दौरान उसने कभी पैसे की कमी महसूस नही की। कर्ज़ को वह बहुत बड़ी लानत मानता था। उधार लेकर वापस न करने को वह बड़ी बेइज्ज़ती समझता था। परन्तु अब वह क्या करे? कोई चारा नही, कर्ज़ के अजगर का मुंह किस तरह भरे। सब कुछ देकर भी वह इस दलदल से निकल नही पायेगा, यह वह अच्छी तरह जानता है। स्वयं को दीवालिया घोषित करने के अलावा और वह करे भी तो क्या करे? इसी उधेड़बुन में डूबते उतराते वह फिरसे फोन के पास आया और बैंकरप्सी में मदद करने वाले अहमद मलिक का नम्बर डायल करने लगा।
हिन्दी चिट्ठा-जगत में आपका हार्दिक स्वागत है
ReplyDeleteब्लोगिंग की दुनिया में आपका स्वागत है. मेरी कामना है की आपके शब्दों को नई ऊंचाइयां और नए व गहरे अर्थ मिलें और विद्वज्जगत में उनका सम्मान हो.
ReplyDeleteकभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर एक नज़र डालने का कष्ट करें.
http://www.hindi-nikash.blogspot.com
सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर.
आपका स्वागत है। उम्मीद है आपके लेख और रचनाएं पढने को मिलती रहेंगी।
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