Sunday, March 15, 2009

अरमान

"अरे, सुधीर बाबू... आप यहाँ..., व्हाट ए प्लीजेन्ट सरप्राईज़" सरोज ने जैसे ही सुधीर को देखा तो मारे ख़ुशी के बोल पड़ी। वह फ़ार्मेसी से दवायें लेकर निकल रही थी और सुधीर अंदर दाख़िल हो रहा था।
"ओह, सरोज... कैसी हो तुम?" सुधीर के मुँह से निकला।
"ठीक हूँ...आपका क्या हाल है? एक ही शहर में रहते हुये भी, हम वर्षों से मिले नहीं और आज अचानक... यह भी विचित्र संयोग है न..."
"हाँ भई... ज़िन्दगी की भाग-दौड़ ही ऐसी हो गई है कि कुछ देर के लिये साथ मिलता है फिर दूरी हो जाती है। रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं। बाई द वे, तुम सुनाओ, तुम्हारा क्या हाल है?" सुधीर ने दोबारा पूछा।
"कहा न कि ठीक हूँ... आप यहाँ कहाँ?"
"मैने अपनी कुछ दवायें लेनी थीं, इसीलिये मैं इधर आया था"
"मैं भी अपनी दवाओं के ही सिलसिले में यहाँ आई थी... ख़ैर, आपने कॉफ़ी पीने की आदत छोड़ दी या अभी भी पीते हैं?"
"कभी-कभार पी लेता हूँ... वैसे अब सेहत ज़्यादा कैफ़ीन की इजाज़त नहीं देती है।"
"चलिये फिर... आप अपनी दवायें ले लें... मैं यहीं इंतज़ार करती हूँ, फिर कॉफ़ी-शॉप में चलकर कॉफ़ी पीते हैं... क्यों ठीक है न?"
"ठीक है, तुम रुको... मैं अभी आया।"
सुधीर ने दवायें लीं और धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ सरोज के क़रीब आया। सरोज ने जब उसे ध्यान से देखा तो वह हैरान रह गई। सुधीर क़ाफ़ी ढल चुका था। उसकी चाल बता रही थी कि अब वह पहले वाला सुधीर नहीं रह गया। सिर में गंज, चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों पे चश्मा और चाल में लड़खड़ाहट, सारी बातें सुधीर के बुढ़ापे की गवाही दे रही थीं।
दोनों साथ-साथ चलते हुये कॉफ़ी-शॉप पर पहुँच गये।
"सिर्फ़ कॉफ़ी ही लोगी या कुछ और भी खाने को..." सुधीर ने पूछा।
"कुछ और भी चलेगा..." सरोज ने तेज़ी से कहा, वह इतने दिनों बाद सुधीर को पाकर उसके साथ कुछ समय बिताना चाह रही थी। सुधीर ने उसे कहीं बैठने को कहा और स्वयं कॉफ़ी लेने चल पड़ा।
मॉल के फ़ूड-कोर्ट में काफ़ी चहल-पहल थी। बाद-दोपहर का समय था। स्कूलों की छुट्टी हो चुकी थी। तमाम छात्र-छात्राओं ने मॉल में काफ़ी गहमा-गहमी कर रखी थी। सरोज ने इधर-उधर देखा और एक कोने में लगे टेबल पर जाकर बैठ गई। अब वह ध्यान से सुधीर की ओर देखने लगी।
सुधीर कॉफ़ी-शॉप के सामने लगी लाईन में खड़ा हो गया। सरोज से मिलकर वह भी स्वयं को प्रसन्नचित्त महसूस कर रहा था और सरोज, वह तो उसी के बारे में सोचे जा रही थी।
सुधीर और सरोज एक ही फ़र्म के लिये काम करते थे। क़रीब दस साल तक दोनों ने एक साथ काम किया था। जब सरोज ने वहाँ ज्वाईन किया था तब सुधीर वहाँ मैनेजर के पद पर नियुक्त था। शुरू से ही दोनों में एक ताल-मेल सा बैठ गया था। अथवा, यूं कहें कि उनके विचार आपस में मेल खाते थे तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी।
एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट करने वाली इस फ़र्म में सुधीर ने अपने बल पर ही उन्नति की थी। एक हैड-क्लर्क से लेकर मैनेजर तक का सफ़र आसान नहीं था। इसमें उसकी दिन-रात की मेहनत शामिल थी। फ़र्म वाले उससे बेहद ख़ुश थे। दो पुत्रों और पत्नी के साथ वह शहर के मध्य एक आलीशान फ़्लैट में रहता था। अपने जीवन के वह पचास वर्ष पूरे कर चुका था जब सरोज उसके जीवन में आई थी।
"मैडम जी, कॉफ़ी हाज़िर है..." सुधीर ट्रे लिये सामने खड़ा था।
ट्रे में खाने का सामान भी काफ़ी था। दोनों आहिस्ता-आहिस्ता स्नैक्स खाते हुये कॉफ़ी की चुस्कियां लेने लगे। दोनों में से किसी को भी जल्दी नहीं थी। मनचाहा साथ हो तो समय को पकड़ कर रखने को मन करता है। सुधीर और सरोज अपने-अपने तरीके से अतीत में झांकने का प्रयास कर रहे थे।
उस समय सरोज पैंतीस साल की भरपूर नवयौवना थी। शादी हो चुकी थी और दो बच्चों की माँ थी। पति की तबादले वाली नौकरी की वजह से एक शहर से दूसरे शहर आना-जाना लगा रहता था। इस नये शहर में आकर जब सरोज ने नौकरी की तलाश शुरू की तो सुधीर वाली फ़र्म में जगह मिलने पर उसे बड़ी ख़ुशी हुई। फिर ज्वॉईन करते ही सुधीर जैसा मनचाहा दोस्त मिल गया तो वह स्वयं को और भी भाग्यशाली समझने लगी।
"अशोक कैसा है?" सुधीर ने कॉफ़ी का घूँट भरते हुये पूछा।
"ठीक ही होगा" सरोज ने अनमने से स्वर में कहा। अशोक, सरोज के पति का नाम था।
"ठीक ही होगा का क्या मतलब?"
"अब हम साथ नहीं रहते, हमारा तलाक़ हुये एक अरसा हो चुका है।" कहते हुये सरोज ने कॉफ़ी का मग उठा कर होंठों से लगा लिया।
"ओह... आई एम सॉरी"
"इसमें अफ़सोस की कोई बात नहीं... इट्स ओ. के."
"और बच्चे?"
"दोनों की शादी हो चुकी है। बेटी आस्ट्रेलिया चली गई है और बेटा भारत में होने के बावजूद भी दूसरे शहर में रहता है।"
सरोज के पति में शिक्षित होने के बावजूद एक ऐब था। वह शराब का बहुत आदी था। उसका यह नित्य का शौक़ बन चुका था। यह तो सर्वविदित है कि जिस घर में शराब का प्रवेश होता है, वहाँ से सुख-शान्ति की विदाई हो जाती है। ऐसा ही सरोज के साथ हुआ था। घर की अशान्ति से वह बेहद परेशान रहती थी। अशोक की दारू की आदत ने सरोज के जीवन में ज़हर घोल रखा था। वह सरोज की ज़रा भी परवाह नहीं करता था। यहाँ तक कि नशे की लोर में सरोज पर हाथ भी उठा बैठता था। बच्चों से सरोज को बेहद लगाव था। उन्हीं की वजह से वह सब कुछ सहे जा रही थी। उसने बहुत कोशिश की कि अशोक की यह बुरी लत छूट जाये पर कोई लाभ न हुआ। वह शराब के ही कारण अपना काम भी सही तरीक़े से नहीं कर पाता था। सरोज बहुत बिखरी-बिखरी सी रहा करती थी। इन्हीं मानसिक परेशानियों में घिरे-घिरे वह सुधीर की ओर झुकने लगी थी।
"तो तुम आजकल क्या करती हो? मेरा मतलब है कि स्वयं को व्यस्त रखने का क्या साधन अपना रखा है, जहाँ तक मैं जानता हूँ तुम ख़ाली कभी नहीं रह सकती।" सुधीर ने स्नैक्स खाते हुये पूछा
"बेटा और बहू दोनों ने सेहत की वजह से मुझे काम करने से मना कर रखा है। वही गुज़ारे लायक पैसे भेज देते हैं। दिन भर घर में होती हूँ। कभी-कभी लाईब्रेरी या बाज़ार में घूमने निकल जाती हूँ।" वह फिर ठहर कर बोली, "सुधीर बाबू, ज़िन्दगी के तनाव ने रोगों की शक़्ल में कुछ तुहफ़े दिये हैं जिनमें हाई-ब्लड प्रैशर, डाईबेटीज़ और डिप्रैशन प्रमुख हैं, उन्हीं के साथ गुज़ारा कर रही हूँ। सोचती हूँ, कि बुढ़ापे में रोग अवश्य होने चाहिये, कम-से-कम तन्हा आदमी उनमें व्यस्त तो रहता है।"
"गम्भीर बातों को सहजता से लेने की तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं।" सुधीर ने उसकी आँखों में झांकते हुये कहा।
कभी सुधीर भी ऐसा ही था। वह और सरोज दफ़्तर में हल्का-फुल्का माहौल बनाये रखते। चुटकले सुनाने में सुधीर का कोई मुक़ाबला नहीं था। मैनेजर होने के बावजूद भी उसका अपने सहयोगियों के प्रति रवैया मित्रतापूर्ण था। जबसे सरोज आई थी, वह और भी ख़ुश रहने लगा था। वह उम्र में सरोज से क़ाफी बड़ा था पर उन दोनों को इसका अहसास कभी नहीं होता था। सरोज घर की परेशानियों को दफ़्तर के माहौल में आकर भूल जाती थी। सुधीर उसके लिये किसी मसीहे से कम नहीं था। वह भी उसे ख़ुश करने की ख़ातिर कभी-कभी ‘मैडम जी’ कह कर बुलाता था। उसे ज़रा सा भी उदास देखता तो झट कोई हल्की बात करके उसे हंसा देता था। इस तरह वे दोनों एक-दूसरे के क़रीब आते जा रहे थे।
"आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया? आपकी रिटायरमेंट की ज़िन्दगी कैसी कट रही है?" सरोज ने कॉफ़ी की चुस्की लेते हुये पूछा।
"क्या बताऊँ, कुछ बताने लायक है ही नहीं। दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है। दोनों क़रीब-क़रीब ही रहते हैं, मगर जुदा-जुदा मकानों में। उर्मिला को गुज़रे दो साल हो चुके हैं।"
"ओह... आई एम सॉरी... आप फिर कहाँ रहते हैं?"
"कभी एक बेटे के घर तो कभी दूसरे बेटे के घर आता-जाता रहता हूँ। दो पोते और एक पोती है, बस उन्हीं को संभालता रहता हूँ। जिस बेटे को ज़रूरत होती है फोन कर देता है, मैं उसके घर पहुँच जाता हूँ।" सुधीर ने ज़रा गम्भीरता से कहा।
"मगर... क्या आप ख़ुश हैं इस तरह की ज़िन्दगी से?"
’मुझे नहीं पता..." सुधीर की आवाज़ में दर्द उभरा, "दुख को सहते-सहते हम उसके इतने आदी हो जाते हैं कि एक सीमा के बाद, दुख दुख नहीं सुख मालूम होने लगता है।"
"आप ठीक कहते हैं, अशोक को सही रास्ते पर लाने का मैंने भरसक प्रयास किया परन्तु वह अन्त तक नहीं सुधरा। मैं हार गई और तब मैंने उसे ही छोड़ देने का हौसला किया और बच्चे लेकर अलग हो गई। आज जब बच्चों को नई ज़िन्दगी मिल गई है तो इससे ख़ुशी महसूस होती है।" सरोज ने अपनी बात बताई।
"ख़ुश होना और ख़ुशी महसूस करना दो अलग-अलग पहलू होते हैं सरोज..."
"हाँ... आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। इस तरह की ख़ुशी के साथ-साथ एक ख़ालीपन भी खटकता है जिसकी तह से दर्द की एक टीस बराबर उठती रहती है। आपको शायद याद हो मैंने तो अशोक को कभी का छोड़ दिया होता अगर आपने मुझे न रोका होता।"
कॉफ़ी का मग खाली हो चुका था। बातों-बातों में कॉफ़ी कब समाप्त हुई पता नहीं चला।
"क्या ख़्याल है, एक-एक कप और हो जाये।" सुधीर ने सरोज से पूछा।
सरोज ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो वह फिर कॉफ़ी लेने चला गया।
सरोज सही कह रही थी। सुधीर बेशक सरोज को मन-ही-मन चाहता था परन्तु वह अपना और उसका घर बरबाद नहीं करना चाहता था। उसने हज़ारों दफ़े रुपये-पैसे से सरोज की मदद की होगी, सरोज को अनगिनत उपहार दिये होंगे मगर बदले में उसने कभी उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाने की कभी कोशिश नहीं की।
लेकिन, इतने पर भी उनका साथ ज़्यादा नहीं चल सका था। क्योंकि आहिस्ता-आहिस्ता दफ़्तर में सुधीर और सरोज को लेकर बातें होने लगीं। कोई उनके परिवार वालों से हमदर्दी जताता कोई उनकी उम्र के उलाहने देता। सुधीर के व्यवहार के कारण कोई खुल के कुछ नहीं कहता था, लेकिन बात का सफ़र दूर तक का होता है। चलते-चलते बात अशोक तक पहुँच गई जिसने घर में कोहराम मचा दिया। सरोज तो पहले ही अशोक के व्यवहार से बहुत दुखी थी, तंग आकर अशोक का घर छोड़ कर वह सुधीर के पास आ गई मगर सुधीर ने उसे समझा-बुझा कर वापस अशोक के पास भेज दिया था। सुधीर अगर चाहता तो ज़रा सा सहारा देकर सरोज को उसके पति से तोड़ सकता था, मगर उसने ऐसा नहीं किया।
"क़ॉफ़ी नम्बर दो हाज़िर है, मैडम जी..." सुधीर ने क़ॉफ़ी मेज़ पर रखते हुये कहा।
"आप अपने लिये फिर लार्ज कॉफ़ी ले आये, कुछ अपनी सेहत का भी ख़्याल है आपको कि नहीं?"
सुधीर के चेहरे पर दर्द झलका, शायद किसी ने बहुत दिन बाद उसकी सेहत की चिन्ता व्यक्त की हो।
"आपने बताया नहीं कि आप कौन सी दवायें लेने फ़ार्मेसी में गये थे..." सरोज ने कॉफ़ी का घूँट भरा और पूछा।
"मैडम जी... ये जो अपना दिल है न... यह कुछ अधिक ही धड़कने लग गया था। इधर-उधर ताका-झांकी बहुत करने लग गया था। जब बहुत उछलने लगा तो डाक्टरों ने इसे बड़ी मेहनत से क़ाबू किया और दवाओं की बंदिशों में जकड़ दिया।" सुधीर ने शायराना लेहज़े में कहा।
"आप सही तरीके से नहीं बता सकते क्या...?" सरोज तुनक उठी।
"ज़रूर ज़रूर... एक बार बाई-पास सर्जरी हो चुकी है, घुटने का ऑप्रेशन भी हो चुका है। नज़र कमज़ोर हो चुकी है, रक्तचाप भी रहने लगा है, कहने का मतलब है कि जिस बिमारी का नाम लो मौजूद मिलेगी।" सुधीर ने उदास होते हुये कहा, "इसलिये हर माह फ़ार्मेसी के दरवाज़े पर मत्था टेकने जाना पड़ता है।"
वह ग़लत नहीं था। आयु तो थी ही, परन्तु पत्नि के आकस्मिक से और बच्चों के अपनी ज़िन्दगी में ब्यस्त हो जाने के कारण वह बहुत अकेला पड़ गया था। हमारे बहुत से शारीरिक रोगों की जड़ें हमारे अपने खाने-पीने के ढंग और मानसिक संतुलन में छुपी होती हैं।
"एक और बात बताईये," सरोज ने बात बदली, "आपके पास शहर के बीचो-बीच एक भब्य फ़्लैट था उसका क्या हुआ?"
"बेटों ने अपनी-अपनी शादी के बाद दो अलग-अलग मकान लेने की सोची, तो उस वक्त उनकी पेशगी रक़म देने के लिये बाप की वही जायदाद काम आई।" सुधीर ने गम्भीर स्वर में कहा।
सरोज भी चुपचाप बैठी थी।
"वैसे एक बात कहूँ सरोज..." सुधीर कॉफ़ी समाप्त करते हुये फिर गम्भीरता से कहा।
"हाँ हाँ... कहिये न..."
"मैंने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं परन्तु जो दस वर्ष मैंने तुम्हारे साथ काम करते हुये गुज़ारे हैं वो मेरी ज़िन्दगी के बेहतरीन दिनों में से हैं। आज भी जब उनको याद करता हूँ तो रोमांचित हो उठता हूँ।
कॉफ़ी का मग रख कर सुधीर उठ खड़ा हुआ और सरोज से बोला।
"अच्छा मैडम जी, चलता हूँ, हाँ... अगर ईश्वर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे।"
इतना कह कर सुधीर मुड गया। सरोज को लगा कि वह सुधीर को रोक ले। एक बार वह सुधीर को छोड़ चुकी है, अब दोबारा यह ख़तरा मोल न ले। आजकल सुधीर बहुत अकेला रह गया है। उसका शरीर भी साथ नहीं दे पा रहा है। आज उसे एक साथी की आवश्यकता है जो उसका ध्यान रख सके। दूसरी तरफ़ वह स्वयं भी अकेली है और सुधीर को पसन्द भी करती है। जहाँ मन मिलें हों वहाँ दूसरी बातों की कोई अहमियत नहीं रह जाती है। वैसे भी, सुधीर के लाखों अहसान हैं उस पर, आज शायद वक्त आ गया है उन अहसानों का कुछ तो क़र्ज़ चुकाया जा सके। रही उम्र की बात तो अरमानों की नगरी में आयु का लेखा-जोखा नहीं होता, हर उम्र के अपने अरमान और ज़रूरत होती है जिनकी उचित पूर्ति कोई गुनाह नहीं है। अपने अरमान पूरा करने का आज उसे दोबारा अवसर मिला है तो वह इसे क्यों छोड़े। फिर उसे ख़्याल आया कि लोग क्या कहेंगे। सुधीर और उसकी आयु को उछाला जा सकता है। तभी उसके दिल से आवाज़ आई कि ऐसे लोग तो कभी किसी के सगे नहीं होते। कुछ ही क्षणों में सरोज कितनी ही बातें सोच गई। फिर वह तत्काल उठी और जाते हुये सुधीर के कंधे पर हाथ रख कर बोली,
"सुधीर बाबू...ईश्वर तो यही चाहता है कि अब हम कभी न बिछड़ें......

3 comments:

  1. आपके इस लिखे हुए में आपकी लेखनी की विशेषता साफ़ झलकती है ....काबिले तारीफ

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. निर्मल जी अच्छी कहानी है। महत्वपूर्ण विषय की बात उठाई है आपने।
    लेखन में सहजता झलकती है

    सुमन कुमार घई

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  3. Acchi kahani hai Nirmal ji, Vishay bahut samayik aur gambheer hai..

    Badhai!!

    Shailja

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