Tuesday, July 14, 2009

कोई नाराज़ है हमसे

कोई नाराज़ है हमसे कि हम कुछ लिखते नहीं
कहाँ से लायें हम अल्फ़ाज़, जब वो मिलते नहीं

दर्द की गर ज़ुबां होती तो देते हम उनको बता
बतायें हम मगर कैसे, ज़ख़्म जो दिखते नहीं

जो पी सकते तो पी जाते, पिघलते इस ग़म को हम
कोशिश तो की बहुत हमने, अश्क़ पर छुपते नहीं

शिकायत तो वो करते हैं, ये हक़ है उनको मगर
गिला जो हमको उनसे है, उसको वो सुनते नहीं

कभी जब याद आता है वो गुज़रा मौसम हमें
तो दिल की वादियों में ज़लज़ले फिर रुकते नहीं

बहुत आसान है इल्ज़ाम औरों के सर देना
इश्क़ में सिलसिले नाराज़गी के चलते नहीं

4 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत पर दर्द भारी दास्तान...

    ReplyDelete
  2. दर्द की गर ज़ुबां होती तो देते हम उनको बता
    बतायें हम मगर कैसे, ज़ख़्म जो दिखते नहीं

    वाह निर्मल जी। पूरी रचना अच्छी लगी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    ReplyDelete
  3. जो पी सकते तो पी जाते, पिघलते इस ग़म को हम
    कोशिश तो की बहुत हमने, अश्क़ पर छुपते नहीं
    kya baat gehre jazbat sunder bayan huye hai.

    ReplyDelete