कोई नाराज़ है हमसे कि हम कुछ लिखते नहीं
कहाँ से लायें हम अल्फ़ाज़, जब वो मिलते नहीं
दर्द की गर ज़ुबां होती तो देते हम उनको बता
बतायें हम मगर कैसे, ज़ख़्म जो दिखते नहीं
जो पी सकते तो पी जाते, पिघलते इस ग़म को हम
कोशिश तो की बहुत हमने, अश्क़ पर छुपते नहीं
शिकायत तो वो करते हैं, ये हक़ है उनको मगर
गिला जो हमको उनसे है, उसको वो सुनते नहीं
कभी जब याद आता है वो गुज़रा मौसम हमें
तो दिल की वादियों में ज़लज़ले फिर रुकते नहीं
बहुत आसान है इल्ज़ाम औरों के सर देना
इश्क़ में सिलसिले नाराज़गी के चलते नहीं
Tuesday, July 14, 2009
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बहुत ही खूबसूरत पर दर्द भारी दास्तान...
ReplyDeleteदर्द की गर ज़ुबां होती तो देते हम उनको बता
ReplyDeleteबतायें हम मगर कैसे, ज़ख़्म जो दिखते नहीं
वाह निर्मल जी। पूरी रचना अच्छी लगी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
जो पी सकते तो पी जाते, पिघलते इस ग़म को हम
ReplyDeleteकोशिश तो की बहुत हमने, अश्क़ पर छुपते नहीं
kya baat gehre jazbat sunder bayan huye hai.
superb
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