दिन गुज़रते हैं हवाओं की तरह
लोग मिलते हैं घटाओं की तरह
फूल कागज़ का बनी ये ज़िन्दगी
दिल हैं जलते अब चिताओं की तरह
मुश्किलों ने है जो चेहरे पे जड़ा
दिख रहा है वो सज़ाओं की तरह
है नज़र ख़ामोश दिल को होश ना
ज़िन्दगी है चुप ख़लाओं की तरह
किससे बोलें किससे निस्बत हम करें
काश,हो कोई दवाओं की तरह
गर ज़रूरत ही नहीं निर्मल तेरी
क्यों हो चिपके तुम बलाओं की तरह
Wednesday, June 15, 2011
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