मैं उसे, वो मुझे आजमाता रहा
जब कभी सामने मेरे आता रहा
भेद उसका समझ आ न सके मुझे
इस तरह के खेल वो रचाता रहा
सेर था मैं अगर, वो सवा सेर था
हर दफ़ा वो मुझे ही नचाता रहा
साथ मेरे यही है हुआ हर घड़ी
ताउम्र भागता या भगाता रहा
मौक़े उसने दिये संभलने के बहुत
आँख मैं ज़िन्दगी से चुराता रहा
हारने जीतने का जो पूछा सबब
फ़ैसले से सदा भाग जाता रहा
ढूंढने जब उसे मैं निकला कभी
ख़ुद को जाने कहाँ वो छुपाता रहा
देखे जो दिल फ़कीरों के हमने कभी
वो वहीं बैठ कर मुस्कुराता रहा
जब कभी वो मिला बन के रहबरे ख़ुदा
मैं उसे जोड़ता या घटाता रहा
फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का बहुत है अजब
धूप या छांव से दिल दुखाता रहा
हो चले हाथ निर्मल के तो अब खड़े
ज़िन्दगी भर युं ही सर झुकाता रहा
Tuesday, June 2, 2009
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जब कभी वो मिला बन के रहबरे ख़ुदा
ReplyDeleteमैं उसे जोड़ता या घटाता रहा
वाह !
फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का बहुत है अजब
ReplyDeleteधूप या छांव से दिल दुखाता रहा
खूबसूरत पंक्तियाँ। वाह।
हाल कहता मुस्कुरा के पर कहानी और है।
जिन्दगी के फलसफे की तर्जुमानी और है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुन्दर गजल
ReplyDeleteवीनस केसरी
bahut der tak main yeh sochta raha ki kis she'r ko sarvotkrisht ka mukut pahnaaun................lekin janaab yahaan toh sabhi ek se badh kar ek hain ........poori ghazal hi laaaaaaajawab hai
ReplyDeleteBADHAI !
बहुत-बहुत धन्यवाद आप सबों की हौसला अफ़ज़ाई का। मेरे लिये आपकी टिप्पणियां आगे लिखने का स्त्रोत बन जाती हैं। इसी तरह मेरे साथ बने रहें और मैं चलता रहूँ। एक बार फिर धन्य्वाद।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ग़ज़ल है निर्मल जी!
ReplyDeleteसाथ मेरे यही है हुआ हर घड़ी
ताउम्र भागता या भगाता रहा
बिल्कुल सच कहा है -
सुमन कुमार घई