आज देखा जो उसे तो देखता ही रह गया
अश्क़ मिज़गां पे मेरी इक तैरता ही रह गया
गिर रहीं थीं दिल पे मेरे, सैंकड़ों ही बिजलियां
जिस्म सारा हो के बेबस कांपता ही रह गया
भूल उसको मैं न पाया आज भी सब याद है
धड़कनों में वो पुराना खौलता ही रह गया
यूं हवा में उड़ रही थी ज़ुल्फ़ उसकी बेख़बर
सांप सीने पर मेरे इक लोटता ही रह गया
बेवफ़ा वो हो गया था छोड़ मुझको राह में
अब न जाने क्यों मुझे वो जांचता ही रह गया
रुक नहीं पाती कभी, ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी
प्यार का ये खेल कैसा, सोचता ही रह गया
Saturday, May 30, 2009
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waah siddhu saheb aapke naam ki tarah aapki ghazal bhi nirmal aur nishkalank hai...
ReplyDeletekhaskar zulfen dekh kar seene pe saanp ka lotna toh gazab dha gaya...
MUBARAQ HO..
badhai ho
jai ho
यूं हवा में उड़ रही थी ज़ुल्फ़ उसकी बेख़बर
ReplyDeleteसांप सीने पर मेरे इक लोटता ही रह गया
-वाह!! बेहतरीन..सभी शेर उम्दा हैं. मजा आया.
Bhaut Acche Nirmal Ji,
ReplyDeleteBahut sunder gazal bani hai..par mere jaise Urdu na jaan ne walon ke liye "Mizgan" ka arth agar gazal ke neeche likh de to arth ki khoobsoorti ko pakdne ka maza bhi rahega.
badhai!!
Shailja
धन्यवाद शैलजा जी,
ReplyDeleteआपकी नसीहत का आयन्दा से ध्यान रखेंगे। इसी तरह से सलाह देती रहा कीजिये। आप सबों की राय मेरी अमुल्य निधि है। एक बार फिर शुक्रिया।