Tuesday, October 20, 2009

ओ मेरे वैरागी-मन

ओ मेरे वैरागी मन

भूल गया तू हँसना-गाना
विसर गया सब आना-जाना
किस चिन्ता में रहता डूबा
कैसा है ये बावरापन
ओ मेरे वैरागी-मन

पीढ़ी से पीढ़ी तक भटका
इधर कभी तो उधर है अटका
उस पार कभी तू जा न सका
बीच अधर ही रहा तू लटका

कर न सका तू वश में उसको
श्रद्धा के दे चन्द सुमन
ओ मेरे वैरागी-मन

लिप्त रहा बस अपनेपन में
निर्लिप्त हुआ न किसी भी क्षण में
लेकर अपने कर में माला
झांका केवल दूसरे मन में

रही कामना लेने की ही
फिर भी रहा तू निर्धन
ओ मेरे वैरागी-मन

यह कैसा वैराग रचाया
जिसको समझ कभी न पाया
क्यों न बना तू निश्छल दरिया
क्यों न प्रेममार्ग अपनाया

बाँट दे अपने प्रेम की ख़ुशबू
बन के अब भी मस्त पवन
ओ मेरे वैरागी-मन

2 comments:

  1. चित्रण है वैरागी मन का निर्मल हृदय प्रयास।
    वर्तमान के संग रचना में छुपा हुआ इतिहास।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. बहुत सुन्दर रचना है बधाई स्वीकारे।

    यह कैसा वैराग रचाया
    जिसको समझ कभी न पाया
    क्यों न बना तू निश्छल दरिया
    क्यों न प्रेममार्ग अपनाया

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