Tuesday, June 16, 2009

यूं चला कारवां ज़िन्दगी का

यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना
कि धूल में लिपटा रहा तन-बदन अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

क़दम-दर-क़दम, शहर-दर-शहर
ख़्वाब-दर-ख़्वाब, लहर-दर-लहर
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

सबकुछ मिला, फिर भी रहा ये गिला
जुस्तजू रही जिसकी वो कभी न मिला,
फ़लक़ पे उड़ती तमन्नाओं ने
ज़मीं पे न डाली नज़र
दिल में घुटती ख्वाहिशों को कभी
मिल सकी न कोई सहर,
ख़ूबसूरत किसी दिल में कभी
घर-बार न बन सका अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

चलते रहे,
नाकाम हसरतों की उठाये सलीब
न ही कोई दूर था हमसे
और न ही कोई बहुत क़रीब,
रुकती-रुकती सी अब
रुकने लगी है सांस
अब न ज़िन्दा है कोई उम्मीद
और न ही बची कोई आस,
रहा दर-बदर का मुहताज
ये प्यारा सा नसीबा अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

कोई कुछ क़दम आगे
तो कोई कुछ क़दम पीछे चला,
साथ-साथ तो मगर कोई-कोई ही चला
और दिल के बराबर तो कोई भी न चला,
अपने क़दमों की लड़खड़ाहट
अपनी ही करनी का नतीजा बनी
उलझनें रहीं इतनी कि ज़िन्दगी
हर गाम पे इक मरहला बनी,
जिसका न था जवाब
क्यों ज़ुबां से निकलता रहा
बार-बार वो सवाल अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना...

मतलब को समझा है इश्क़
लगाव को समझ बैठा प्रेम
मोह को बसाये रखा दिल में फ़कत
ग़ुरूर ही रहा सदा ज़िन्दगी का नेम,
जो बुना वो ही पहना
जो चुना वो ही पड़ा सहना
है मुश्किल बहुत मगर यूं
अपने ही घर में अजनबी सा रहना,
साथ यूं ही होता हो शायद सबके मगर
यहाँ तो यही हाल रहा सदा अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का अपना
कि धूल में लिपटा रहा तन-बदन अपना
यूं चला कारवां ज़िन्दगी का.....

4 comments:

  1. बहुत गहन अभिव्यक्ति!!

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  2. सिद्धु जी ये निराशा क्यों?

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  3. kaarvan yon hi chalta rahega.........
    ye deeya mohabbat ka jalta rahega ......

    badhaai !

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  4. जिसका न था जवाब
    क्यों ज़ुबां से निकलता रहा
    बार-बार वो सवाल अपना...

    बहुत ख़ूब!

    -अमिताभ सक्सेना

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