Wednesday, February 4, 2009

आईने के रूबरू

आईने के रूबरू जब मेरे यार होता हूँ
ख़ुद से फिर बड़ा शर्मसार होता हूँ

वक्त की इबारत मुझसे पढ़ी नही जाती है
जितना भी जी चाहे मैं तलबगार होता हूँ

जो दिखता है वो मुझसे मेल नही खाता है
जो मेल खाता है उससे मैं नागवार होता हूँ

चंद लकीरें माज़ी की कुछ रंग हैं किस्मत के
देख देख सबको फिर बेक़रार होता हूँ

रह गया है टूट के ज़िन्दगी का आईना
जिसके टुकड़ों से सदा मैं दाग़दार होता हूँ

मुझसे अलग नही है निर्मल की ज़िन्दगी
फिर न जाने क्यूं मैं ही गुनाहगार होता हूँ

2 comments:

  1. वक्त की इबारत मुझसे पढ़ी नही जाती है
    जितना भी जी चाहे मैं तलबगार होता हूँ


    --क्या बात है.मजा आ गया. बधाई.

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  2. bahoot badiya likha hai aapne, pasand aaya. ise mai ratlam, jhabua(M.P.) Dahod(gujarat) se prakashit danik prasaran men prakashit karane ja raho hoon.

    kripaya, apka postal address mere mail par bhejen, jisasen aapko prati pahoochayi ja saken

    thanks
    pan_vya@yahoo.co.in

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