दिन आज भी निकला है
दिन कल भी निकलेगा
उम्मीद का सूरज जाने कब
किस ओर से निकलेगा
इन्तज़ार की घड़ियां गिन
गिन नज़र गई पथराई
जिसकी ख़ातिर जीने
निकले वही नज़र न आई,
उस मंज़िल का पता न
जाने किसकी ज़ुबां से निकलेगा
भटक-भटक के दुनिया देखी
अटक-अटक चली जीवन गाड़ी
सहम-सहम के दिन हैं बीते
तड़प-तड़प के रातें काटी
चाँद ही जाने वो किस रोज़
हमारी छत पर निकलेगा
जीवन मंथन करते-करते
हम हुये थकन से चूर
यूं ही चलते-चलते हम
आ पहुँचे हैं कितनी दूर
अपने भाग्य का मोती जाने
किस गहराई से निकलेगा
कहाँ से आये किधर है जाना
नहीं पता न कोई ठिकाना
किससे हम फ़रियाद करें कि
किसे है पाना किसे है खोना
उसके घर जाने का रस्ता पता
नहीं किस तरफ़ से निकलेगा
दिन आज भी निकला है
दिन कल भी निकलेगा...
Monday, October 17, 2011
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