Tuesday, November 23, 2010

बिखरा-बिखरा सा आलम

बिखरा-बिखरा सा आलम है सब, बिखरे-बिखरे से हम
उखड़े-उखड़े से सपने हैं अब, उखड़े-उखड़े से हम

न कोई सुनने वाला है, न कोई साथी है अपना
कोई क्या जाने रहते हैं क्यों, सहमे-सहमे से हम

दीवारों से होती हैं बातें, जब भी मिलता है मौक़ा
हैं दुनिया के सागर में वर्ना, क़तरे-क़तरे से हम

इस दिल में हरदम अब तो, लगता तन्हाई का मेला
खोई सी नज़रें, सूने से घर में, टुकड़े-टुकड़े से हम

दिल के सौदे में निर्मल, घाटा न होता मुनाफ़ा कोई
जीवन में फिर क्यों हर क़दम उलझे-उलझे से हम

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