Tuesday, November 16, 2010

इक आरज़ू मेरी

इक आरज़ू मेरी, तेरे दिल में समा न सकी
जाने ख़ुदा अब तू ही क्यों तुझको लुभा न सकी

कोई ख़ुदाई तो नहीं मांगी कभी मैंने तेरी
फिर भी तुझे मेरी तमन्ना नज़र आ न सकी

दुनिया में सब कहते करिश्मों का मसीहा तुझे
फिर ये करिश्मा क्यों तेरी कुदरत दिखा न सकी

मैं आज तक समझा नहीं क्या बात थी मुझमें जो
अपनी मुहब्बत तेरे दिल में वो जगा न सकी

लेकर ये ग़म चलते रहे हम ज़िन्दगी भर मगर
दुनिया कभी संग अपने हमको युं चला न सकी

निर्मल तेरे अहबाब जलते हैं मगर दूर से
उनको कभी तेरी मुहब्बत पास ला न सकी

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