Wednesday, April 14, 2010

कभी हो सके तो

ख़ुदाया, अगर हूँ इबादत के क़ाबिल
तो मिलती नहीं क्यों कभी मुझको मंज़िल

दुआओं में मेरी असर कुछ नहीं है
सिवा ग़म के होता नहीं कुछ भी हासिल

सलीका कभी बन्दगी का न आता
नहीं साथ कोई तो होती है मुश्किल

ये रहमो इनायत के चर्चे हैं घर-घर
कभी घर मेरे भी लगा दे तू महफ़िल

करिश्मे तुम्हारे सुनूं जब कभी मैं
मचल के कली दिल की जाती है खिल

युं जलवे तुम्हारे तो बिखरे हैं हर सू
मेरी ज़िन्दगी से अंधेरे हैं घुलमिल

मिला है न जाने तू कितनों को हमदम
कभी हो सके तो मुझे भी कहीं मिल

ये निर्मल को करनी हैं बातें बहुत सी
हो मुमकिन कभी प्यार से उसको तू मिल

1 comment:

  1. बेहतरीन.. भाई जी..आनन्द आया!

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