वक्त की
दोधारी तलवार तले
मन का परकटा पंछी
दम तोड़ने को है,
ज्यों
मांस का एक
बेजान लोथड़ा
तराजू पे निरीह पड़ा
बिकने को है,
यहाँ
हर किसी ने
देखी है शक़्ल
हर किसी ने
आँकी है अक़्ल,
शायद ही कोई
उतर पाया हो
मन के भीतर
शायद ही किसी को
भाया हो
ये प्यारा नगर,
यूं तो
आसान भी नहीं होती
दिल की इबारत
वही पढ़ पाता है इसे
जिसपे हो कोई इनायत,
मगर अब तो
वही क़िस्सा वही बात
दोहराने को है
सफ़र हो चला तमाम सब
गाड़ी का पहिया अब
थम जाने को है...
Monday, November 14, 2011
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दिल की इबारत
ReplyDeleteवही पढ़ पाता है इसे
जिसपे हो कोई इनायत,
मगर अब तो
वही क़िस्सा वही बात
दोहराने को है
सफ़र हो चला तमाम सब
मन के भावों को बखूबी लिखा है