मुक्त गगन की
उड़ान को
निहारता पंछी
पराधीनता को
हर घड़ी
नकारता पंछी,
समय को प्रयास
कर पीछे
धकेलता पंछी
आस्तित्व को अपने
निखारता पंछी,
बहुत ही बेसब्र
अब तो
हो चुका है वो
इंतज़ार में पड़ा
बेरंग हो
चुका है वो,
सहनशीलता से
अब न कोई
वास्ता रहा
प्यास जन्मों की लिये
ख़ुश्क हो
चुका है वो,
कड़ी धूप में
देर से नीर को
तलाशता पंछी...
बेचैनियों का
सिलसिला
वो बन गया
ख़्वाहिशों की
सूखी डाल पर ही
तन गया,
तप्त देह में समेटे
जग क्र सारे
ज़लज़ले
मौसमों की मार का
प्रमाण एक
बन गया,
पथ की दुर्लभता
को तक विह्वल हो
पुकारता पंछी...
मन मेरा तो चाहता
मदद उसकी
करूं मैं
तोड़ बेड़ियां समस्त
संग उसके ही
चलूं मैं,
देह-रस गर मेरा
छूट जाये देह से
कहीं
नाम-रस फिर सदा
उसके होंठों पर
धरूं मैं,
बात मेरी जब है सुनता
परों को
संवारता पंछी
मुक्त गगन की
उड़ान को
निहारता पंछी...
Friday, August 5, 2011
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देह-रस गर मेरा
ReplyDeleteछूट जाये देह से
कहीं
नाम-रस फिर सदा
उसके होंठों पर
धरूं मैं,
बस यही हो जाये तो पंछी मुक्त हो जाये।