Tuesday, October 19, 2010

वरदान

दे हमें वरदान दाता मन में सबके प्यार हो
इस जहाँ में हर तरफ़ फिर प्यार का संसार हो

फिर न उजड़े कोई ग़ुलशन घर न सूना हो कोई
फिर न तरसे दिल किसी का, हो न तन्हा फिर कोई
ज़िन्दगी में सबकी हरदम बस तेरा आधार हो

ना जले आँचल कभी फिर, ना बहे काजल कभी
दोस्त बनके हम रहें बस, ना बने दुश्मन कभी
जो मिले साया तेरा तो सबका बेड़ा पार हो

तोड़े से भी टूटेंगे ना चाहे जो चालें चले
हम रहेंगे उसके हरदम जो मुहब्बत से मिले
ले लिया जब नाम तेरा दूर सब तक़रार हो

कर दे दाता हम पे रहमत जग बने जन्नत यही
प्यार का मौसम रहे बस, मान ले मन्नत यही
और ना कुछ चाहिये फिर बस तेरा दीदार हो

2 comments:

  1. yahi vardaan mujhe bhi chahiye...
    bahut khoob...

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  2. निर्मल सिद्धु जी! आपने यह सिद्ध कर दिखाया है कि आप एक प्रगतिशील कवि है,साहित्य के एक सजग प्रहरी की भाँति साधनारत हैं आपकी रचना में हिंदी की हुलास के साथ साथ उर्दु की एक खास मिठास कवि या शायरों के मिजाज में शक्कर सी घोल देती है।इस वरदान कविता में ’दाता’के साथ आपका कुछ विशेष ही लगाव झलकता है।पंजाब में ’दाता’ पुल्लिंग और ’दाती’स्त्रीलिंग को अभिव्यक्त करने के लिए परमात्मा अर्थ में प्रयुक्त किए जातें हैं। इसलिए अन्तिम पंक्ति में मालिक की बजाय दाता भी सुष्ठु(सुन्दर) प्रयोग है।
    "कर दे दाता हम पे रहमत जग बने जन्नत यही|"

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