Saturday, January 30, 2010

जिधर भी मैं देखूँ

जिधर भी मैं देखूँ दिखाई वही दे
जहाँ भी सुनूँ मैं सुनाई वही दे

नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
ज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे

तसव्वुर में कितना भी चाहें किसी को
दिलों को मुहब्बत जुदाई वही दे

उठाये हैं हमने तो ख़ंज़र पे ख़ंज़र
अमन पर वही दे, भलाई वही दे

यहाँ से कभी कोई जाना न चाहे
मगर हर किसी को बिदाई वही दे

क़लम चाहे कितना सलीका दिखाये
क़लम को मगर रोशनाई वही दे

युं निर्मल के करने से होता नहीं है
ग़ज़ल या नज़म या रुबाई वही दे

6 comments:

  1. "क़लम चाहे कितना भी सलीका दिखाये
    क़लम को मगर रोशनाई वही दे"
    अखंड सच - बहुत खूब

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  2. नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
    ज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे

    -यही सच्चा प्रेम है, बहुत खूब!!

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  3. क़लम चाहे कितना भी सलीका दिखाये
    क़लम को मगर रोशनाई वही दे

    युं निर्मल के करने से कुछ भी होता नहीं
    ग़ज़ल या नज़म या रुबाई वही दे

    Bahut hi lajawaab sher hain ... ye sach hai kuch bhi karne ki taakat vo hi deta hai ....

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  4. बेहद अच्छी रचना निर्मल जी,भावपक्ष का प्रबल प्रभाव कलात्मक कमनीय
    प्रस्तुति, अप्रतिम बन पड़ी है। (कलम चाहे कितना भी सलीका दिखाये)पंक्ति में (भी )रखे बिना भी छन्दगत प्रवाह निर्विघ्न है,तथा(युँ निर्मल के करने से कुछ भी होता नहीं)में कुछ शब्दों को यति गति अनुसार सुसंगत स्थानपर रख देने तथा (भी )को हटा देने से पंक्ति गतिवती हो सकती हैं

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  5. नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
    ज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे


    Excellent!

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