Saturday, January 9, 2010

ख़ुदा जाने

ख़ुदा जाने हमसे हुई क्या ख़तायें
जो ऐसी हमें मिल रही हैं सज़ायें

बहुत हमने चाहा बहुत कर के देखा
मगर पा सके हम न उनकी वफ़ायें

नहीं कोई देखा ज़माने में अपना
ग़मे दास्तां अब ये किसको बतायें

नहीं जानते हम इशारों को उनके
ये कुछ और है या हैं उनकी अदायें

पता ही नहीं अब वो रहते कहाँ हैं
पता गर चले जा के उनको मनायें

कभी जब मिलेंगे तो पूछेंगे उनसे
ये दिल हर घड़ी क्यों दे उनको सदायें

कि हर शाख़ का रुख़ बदलने लगा है
नई से नई चल रही जो हवायें

ये निर्मल भी जाने कहाँ गुम हो जाता
वो सुनता नहीं चाहे जितना बुलायें

2 comments:

  1. बहुत उम्दा, लिखते रहें ।

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  2. नहीं जानते हम इशारों को उनके
    ये कुछ और है या हैं उनकी अदायें

    पता ही नहीं अब वो रहते कहाँ हैं
    पता गर चले जा के उनको मनायें

    वाह निर्मल साहब, आप तो सीधे सीधे अहसासों को डुबो कर लिखते हैं. अच्छा लगा यहाँ आकर.

    - सुलभ

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