Tuesday, September 22, 2009

आई है वो

पुलाड़ के कंधों पे
चढ़ कर
समय की सीढ़ियां
उतर कर,
जीवन का व्योपार
करने,
मुस्कुराती
आई है
वो

मौलिकता अपनी
छोड़ कर
शरीर की हदों में
सिमट कर
कर्मों का भुगतान
करने,
गुनगुनाती
आई है
वो

अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष
बन
दॄश्य औ दॄष्टा
दोनों बन
पदार्थ व यथार्थ को
सम करने,
झिलमिलाती
आई है
वो

जगत की हलचल
से अपरिचित
प्रभु के रंग-गुण
से सुसज्जित
मिला निर्देश
पूरा करने,
चहचहाती
आई है
वो

प्रेम के हिंडोले
झूलती
बोली चेतना की
बोलती
चिन्तन की लड़ी
से जुड़ने,
जगमगाती
आई है
वो

चुनने के सब
अधिकार लिये
शक्तियों से भरे
भंडार लिये
विश्व में नया कुछ
कर गुज़रने,
खिलखिलाती
आई है
वो

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर गीत है. बधाई.

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  2. एक आशा/एक सुबह/एक नौजीवन/न जाने क्या क्या लायी है वो/एक सुन्दर अभिव्यक्ति वाली रचना/मन से बधाई!

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