Sunday, April 5, 2009

अपना-बेगाना

"हैलो मि. सिंह... हाऊ आर यू डूईंग टू डे?"
"आई एम डूईंग गुड, हाऊ एबाऊट यू डायना?"
"आई एम फ़ाईन... ओ. के. मि. सिंह... सी यू लेटर... मैं ज़रा लेट हूँ... इसीलिये जल्दी है... अभी मुझे अपना कार्ड स्वाईप करना है, आपको तो पता ही है, कि आजकल कितनी सख़्ती है। पाँच मिनट लेट हो जाओ तो पन्द्रह मिनट के पैसे कट जाते हैं, ओ. के सी यू..."
एक ही सांस में इतनी सारी बातें कहकर, डायना तेज़ी से सेन्ट्रल-चेक-प्वाईन्ट के अंदर चली गई।
मैं चैक-प्वाईंट के बाहर लिक्विड-ऐंड-जेल की पोज़ीशन पर खड़ा था जहाँ, सफ़र में जाने वाले पैसेंजर से उसके पास मौजूद तरल-पदार्थ का विवरण पूछना पड़ता है और समस्त १०० मि. लि. से कम तरल-वस्तुओं को एक पारदर्शी प्लास्टिक के बैग में डालना पड़ता है ताकि अंदर के ऑफ़िसर्स को बैग-निरिक्षण में आसानी रहे। डायना तो अंदर चली गई पर मैं उसकी कही बात को सोचता रहा।
ठीक ही कह रही थी वह। पियरस-एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी में काम करने वालों के दिनों में अब भारी तब्दीली आ चुकी थी। कुछ समय पहले जहाँ काम करने में सब बहुत आनन्द महसूस करते थे वहाँ अब भारी तनाव के दिन गुज़ार रहे थे। कैट्सा (कैनेडियन एअर ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी अथोरिटी) की हाल में लागू की गई नयी नीतियों ने सबको परेशानियों में डाल रखा था।
वैसे भी, इन्सान जब अधिक आज़ादी से पाबन्दियों में क़ैद होने लगता है तो तड़फड़ाता भी बहुत है। यही हाल सारे सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स का था। जिन्होंने हवाई-अड्डे के ख़ूबसूरत माहौल में आवारागर्दी भोगी हो, अब एक जगह खड़े होकर काम करने को मुसीबत समझ रहे थे।
ख़ैर, अंदर जाकर डायना कार्ड स्वाईप करके प्वाईंट-लीडर के निर्देशानुसार एक मशीन की फ़्रन्ट-पोज़ीशन पर काम करने लगी। प्रत्येक मशीन पर क़रीब पाँच से छे ऑफ़िसर्स हमेशा काम करते हैं। यात्री सर्वप्रथम फ़्रन्ट-पोज़ीशन वाले ऑफ़िसर्स के पास आता है, जो उसके सारे कैरी-ऑन-बैग एक्स-रे मशीन में डलवाता है और उससे सारी धातु-निर्मित वस्तुयें, जैकेट्स, शूज़, सैल-फोन इत्यादि लेकर एक ट्रे में डाल कर, उसे भी एक्स-रे मशीन में धकेलता है ताकि उसे आगे मैटल-डिटेक्टर से गुज़रते हुये कोई परेशानी न हो। मेटल-डिटेक्टर के पार स्कैनर हाथ में लिये एक और ऑफ़िसर होता है जो मेटल-डिटेक्टर पार करके आने वाले पैसेंजर को स्कैन करने के लिये तैयार रहता है। एक ऑफ़िसर एक्स-रे मॉनिटर पर होता है जो समय-समय पर ना-समझ में आने वाली या मनाही वाली वस्तुओं के निरिक्षण के लिये आगे खड़े आफ़िसर को संकेत देता रहता है। प्रत्येक आधे घंटे के बाद स्थानांतरण की सुविधा है जिससे हर ऑफ़िसर की पोज़ीशन बदलती रहती है। इस तरह स्थान बदलते हुये डायना एक्स-रे मॉनिटर तक पहुँच चुकी थी जब वह घटना घटी।
मैं तब तक बाहर लिक्विड-जेल वाली पोज़ीशन पर ही टिका था कि सुना--अंदर पेनीट्रेशन हुआ है और वह भी डायना वाली मशीन पर--ख़ुशी की बात यह थी कि डायना टैस्ट पास कर गई थी।
कैट्सा वाले हम सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स की परीक्षा लेने के लिये किसी भी पैसेंजर के बैग में नकली पिस्तौल, ग्रेनेड या कोई बम रख कर एक्स-रे मशीन पर भेज देते हैं। अगर हम उस वस्तु को सही तरीके से पहचान लेते हैं तो हमारी कार्य-दक्षता सिद्ध हो जाती है और हम टैस्ट पास कर जाते हैं, परन्तु यदि हम नहीं पहचान पाते तो हमें सस्पेंड किया जाता है और दोबारा ट्रेनिंग के लिये भेज दिया जाता है। इसे ही पेनीट्रेशन-टेस्ट अथवा इनफ़िल्ट्रेशन-टेस्ट कहा जाता है और इससे हर सिक्योरिटी ऑफ़िसर घबराता है। जब भी कोई ऑफ़िसर इस टेस्ट को पास करता है तो बाक़ी सबों को बेहद ख़ुशी होती है। उस दिन, डायना के पास होने पर तो मुझे विशेष रूप से ख़ुशी हुई थी।
डायना मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी। मुझे सिक्योरिटी में काम करते हुये क़रीब सात साल हो चुके थे पर डायना मेरी सिनीयर थी। मेरे ज्वाईन करने के बाद बहुत जल्द ही हमारी दोस्ती हो गई थी। हम दोनों आपस में अपना हर सुख-दुख सांझा करते थे। मुझे कैसी भी ज़रूरत क्यों न हो, डायना हर समय हाज़िर रहती थी। उसकी मुस्कुराहट से मुझे बड़ी तसल्ली मिलती थी। मैं भी उसके लिये सब-कुछ करने को तत्पर रहता था। मेरे घर भी उसका आना-जाना था। मेरी पत्नी से उसकी अधिक तो नहीं फिर भी थोड़ी बहुत बनती थी। हमारे हर दिन-त्योहार में वह शामिल होती थी।
बाद दोपहर जब डायना अपनी लंच-ब्रेक के लिये चैक-प्वाईंट से बाहर निकली तो मैं ख़ुशी से बोला,
"हे डायना.... कॉंग्रेच्यूलेशन... य़ू पास्ड द टेस्ट...आई एम वेरी हैप्पी..."
"थैंक यू मि. सिंह... इट वाज़ नॉट दैट डिफ़ीकल्ट..."
"हाँ, लेकिन जहाँ बाक़ी सारे पेनीट्रेशन से बहुत घबराते हैं वहाँ तुमको मैंने कभी विचलित होते हुये नहीं देखा। तुम पहले भी कई बार यह टैस्ट पास कर चुकी हो। बाई-द-वे क्या था बैग में?" मैंने पूछा
"केवल एक ग्रेनेड था जो बहुत सिम्पल था।"
"तुम्हारे लिये सिम्पल होगा पर दूसरों के लिये शायद कठिन होता।"
"हाँ मि. सिंह, यह भी ठीक है... सब भाग्य की बात है... ओ. के. मैं चलती हूँ... आप भी अपनी ब्रेक ले लीजिये, मैं लंच-रूम में आपकी वेट करती हूँ... बड़ी भूख लगी है.. ब्रेक का टाईम भी थोड़ा है..."
इतना कहकर वह लंच-रूम की ओर बढ़ गई। अपनी ब्रेक के लिये, मेरी नज़रें प्वांईट-लीडर को तलाश करने लगीं। अपनी ब्रेक लेकर मैं लंच-रूम की ओर गया तो डायना लंच-रूम के सामने फ़ूड-कोर्ट में पीज़ा-पीज़ा की दुकान के सामने पीज़ा लिये बैठी थी। बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने डायना को घेर रखा था और वह अपने साथ हुये टेस्ट का विवरण दे रही थी। मैं उसकी ओर देखता रहा।
टर्मिनल तीन पर शायद ही कोई ऐसा कर्मचारी हो जो सिक्योरिटी में काम करने वाली डायना को न जानता हो। उसका मुस्कुराता व्यक्तित्व हर किसी को प्रिय था। पैंतालीस वर्षीय इस रोमानियन लेडी के साथ ऊपर के सारे ऑफ़िसर्स भी स्नेह रखते थे। मेरे तो ख़ास दोस्तों में उसका अव्वल नम्बर था। वह जब भी काम पर आती, प्रत्येक सहकर्मी का हाल पूछती--एअरपोर्ट पर होने वाली नित नई घटनाओं का ज़िक्र करती और हर ज़रूरतमन्द की मदद के लिये हमेशा तत्पर रहती।
अभी कुछ माह पहले की बात है जब हमारे साथ काम करने वाले अब्दुल को दिल का दौरा पड़ा था, किस तरह डायना ने सब के साथ मिल कर उसकी भरपूर सहायता करने की कोशिश की थी। ज्योंहि अब्दुल के बीमार होने और अस्पताल में भर्ती होने का समाचार टर्मिनल पर पहुँचा कि डायना सजग हो उठी। उसने दो-तीन ऑफ़िसर्स को साथ लिया और सारे टर्मिनल से चन्दा इकट्ठा किया साथ ही गेट-वेल-सून का बड़ा सा कार्ड ख़रीद कर उस पर सारे ऑफ़िसर्स के दस्तख़त लिये। फिर शाम को हम कई लोगों को साथ लेकर फूलों का बड़ा सा ग़ुलदस्ता लिये अस्पताल अब्दुल को देखने जा पहुँची। अब्दुल गदगद हो उठा था। उसकी आँखे भर आईं थी।
"मैं यह अहसान कैसे.....चुका...." उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
"शान्त रहो अब्दुल," मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुये कहा था, "अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, तुम्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है... बातें तो बाद में होती रहेंगी।"
"हाँ अब्दुल... मि. सिंह ठीक कहते हैं...," डायना बोली, "तुम केवल आराम करो, जब तुम अच्छी तरह तंदरुस्त होकर वापस काम पर आओगे तब जी भर के बातें करेंगे।"
फिर डायना ने गेट-वेल-सून वाला कार्ड अब्दुल के सामने लगे बोर्ड पर लगाया और अब्दुल की पत्नी को एकत्रित किये हुये पैसे दिये और हम सब को लिये बाहर आ गई। वह नहीं चाहती थी कि अब्दुल ज़्यादा बातें करे, जिससे उसकी तबियत में कोई परेशानी खड़ी हो।
हम सिक्योरिटी वालों में यह एक बहुत अच्छी बात है। हम आपस में एक-दूसरे से कितनी ही खार खाते हों, कितना ही जलते हों, एक-दूसरे के काम में कितनी ही टांग अड़ाते हों, परन्तु जब कोई अब्दुल जैसी मुसीबत का शिकार होता है तो सब एकजुट होकर उसकी सहायता करने का संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। जिससे जो भी बन पड़ता है, वो करता है। इस तरह के सामूहिक कार्यों में डायना की हमेशा प्रमुख भूमिका हुआ करती थी।
क़रीब सत्रह-अठारह साल पहले डायना रोमानिया से प्रवास करके कनेडा आई थी। अपने पति जोसेफ़ के साथ मिल कर उसने इस देश में जी-तोड़ मेहनत की, जिसके फलस्वरूप एक छोटा सा घर उसने ले लिया था। एक ही बेटा था उसका जो अब शादी करके अलग रहने लगा था। अपने आरम्भिक दिनों में बेटे की वजह से वह फ़ैक्टरी में रात की शिफ़्ट किया करती थी। बाद में जब उसे एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी की जॉब मिल गई तो वह बहुत ख़ुश हुई थी क्योंकि एक तो यह जॉब शारीरिक रूप से आसान थी और दूसरी यह सुन्दर-स्वच्छ जगह पर साफ़-सुथरी और ज़िम्मेदारी वाली जॉब थी। पढ़े-लिखे लोगों के बीच काम करते हुये डायना ने शायद ही किसी को दुख पहुँचाया हो। वैसे भी, उसका ममतामयी चेहरा सबको बड़ा सुहाता था। परन्तु, ईश्वर के दरबार में जो चल रहा है-- उसे कोई पहले कैसे जान सकता है।
उन दिनों ऐच.बी.ऐस.(HBS) नामक एक नया डिपार्टमेन्ट बना था, जहाँ चेक-बैग्स को एक्स-रे करने की एक नई लाईन सैट की गई थी। नीचे बेसमेन्ट में १५-२० एक्स-रे की नई मशीने लगाई गई थीं जिन पर इतने ही ऑफ़िसर्स बैठ कर, सारे चैक-बैग्स का जहाज़ पर लादे जाने से पूर्व मॉनिटर पर निरिक्षण करते थे। यह सारी बैठने की पोज़ीशने थीं लेकिन यहाँ पर काम करने के लिये स्पेशल-कोर्स करके सर्टिफ़िकेट लेना पड़ता था जो कि कैट्सा ही मुहैया करवाती थी। मेरे और डायना के साथ और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने यह कोर्स पहले ही से किया हुआ था। सो, ऐच. बी. ऐस. के बनते ही हम सब की वहाँ पर डियूटी लगा दी गई। हम सब पाँचो दिन वहाँ बैठ कर काम करने लगे। हमारे दिन बड़े मज़े में कटने लगे, लेकिन कब तक?
चैक-लॉऊन्ज में सबों को खड़े होकर काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे लॉऊन्ज में काम करने वाले हम ऐच. बी. ऐस. में काम करने वालों से जलने लगे, जो उचित भी था। इस ईर्ष्या-अग्नि की आँच जब ऊपर के अफ़सरों तक पहुँची, तो उन्होंने और बहुत सारे लॉऊन्ज में काम करने वालों को ऐच. बी. ऐस. का कोर्स करवाना शुरू कर दिया। फलत: बहुत सारे लोग यह कोर्स करते गये और बैठने वाली पोज़ीशन में हस्त्क्षेप होता गया। हम क्यों नहीं बैठ कर काम कर सकते-- यह रवैया हर ऑफ़िसर्स का था। इस तरह डायना और मेरे साथ-साथ क़ाफ़ी सारे लोगों को ऐच. बी. ऐस. से निकाला गया, और बहुत से नये लोगों को डाला गया। आपस में खींचातानी रहने लगी। सब एक-दूसरे जलते थे, एक-दूसरे का शैड्यूल चैक करते थे और फिर एक-दूसरे से कुढ़ते थे। इस तरह के माहौल से डायना बहुत दुखी रहती थी। वह जब अत्यधिक परेशान होती तो मुझसे कहा करती,
"देखो न मि. सिंह.... कितना अच्छा माहौल हुआ करता था हमारे बीच.... अब सब, आपस में एक-दूसरे से इतना जलते हैं कि एक-दूसरे को देखना तक गंवारा नहीं करते। इससे तो अच्छा होता कि यह एच. बी. ऐस. बनता ही नहीं..."
"तुम ठीक कहती हो डायना.... हमारी आपस की लड़ाई के चलते कोई बड़ी बात नहीं कि यह बैठने वाली पोज़ीशन भी कहीं खड़े होने वाली न बन जाये, ख़ैर, छोड़ो इसको तुम बताओ, तुम डॉक्टर के पास चैक-अप के लिये कब जा रही हो?"
"आप भूल गये क्या? मैं पिछले हफ़्ते ही तो जा के आई हूँ, हाँ... टैस्ट की मेरी रिपोर्ट्स आनी अभी बाक़ी है अगले वीक तक वो भी आ जायेगी।"
"आई होप कि सब-कुछ ठीक होगा।"
"हाँ... वो तो होगा ही.... पर मुझे तो चिन्ता यहाँ की रहती है... आप देखना कुछ-न-कुछ तो होगा और जो होगा वो हमारे हक़ मे अच्छा नहीं होगा।"
"हाँ डायना..." मैं गम्भीरता से बोला, "आपस की इस खींचातानी से नुक़सान तो सबका ही होगा। यह तो तय है कि कुछ तो बदलाव आयेगा, हो सकता है हमारी यूनियन इसमें दख़लंदाज़ी करे।"
"नहीं... नहीं... शैड्यूल में हस्तक्षेप करना यूनियन के बस में नहीं है। और फिर, आपको तो पता ही है कि, यह यूनियन तो स्वयं डवांडोल हो रही है। पिछले कुछ अरसे से जिन लोगों को फ़ायर किया गया था, वो किसी नई यूनियन को लाने की अंदर-ही-अंदर जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं।" डायना नाख़ुश लेहजे में बोली।
यह सत्य भी था कि वर्तमान यूनियन से हम सभी असंतुष्ट थे। हम-सब उसे बदलने के पक्ष में थे और हमने उसे बदल भी डाला था। जिन चन्द लोगों को पिछले दो-तीन वर्षों में निकाला गया था, वो लोग अपनी नई यूनियन बनाकर वापस आना चाहते थे। हमारी हमदर्दी उनके साथ होने की वजह से नई यूनियन के आने का मार्ग साफ़ हो गया और चुनाव में पुरानी यूनियन की क़रारी हार हुई। तत्पश्चात, वही निकाले गये लोग फिर से टर्मिनल पर सक्रिय नज़र आने लगे।
डायना ने नई यूनियन को लाने में बड़ा परिश्रम किया था। डियूटी के अलावा भी उसने अपना अतिरिक्त समय देकर, यूनियन को चुनाव जीत कर स्थापित होने में भरपूर सहयोग दिया था। उसके सौहार्दपूर्ण रवैये ने, ऑफ़िसर्स के नज़रिये को बदलने में पूरी मदद की थी। डायना का मान सबके दिलों में और भी बढ़ गया था। सब उसे दिल-ही-दिल में बहुत दुआयें देते थे। मगर, विधाता के घर, सबकी दुआयें कहाँ क़ुबूल होती हैं।
उस दिन, जब मैं काम पर पहुँचा तो मैं कुछ लेट था। इसलिये क़रीब-क़रीब भागते हुये मैं ट्रांसबोर्डर लॉऊन्ज में पहुँचा, जहाँ कि मेरा काम करने का शैड्यूल था। कुछ देर काम करने के पश्चात मुझे यह अहसास हुआ कि लॉऊन्ज इतना बिज़ी नहीं है, फिर भी तमाम ऑफ़िसर्स पर एक चुप्पी-सी तारी है। मेरे ज़ोर देने पर, जब सब ने मुझे बताया तो मैं सन्न रह गया। बात डायना के बारे में थी। एक पल को मैं विश्वास न कर सका। डायना को कैंसर है-- यह सुन कर मेरा तो दिल ही दहल गया।
डायना मेरी बेस्ट-फ़्रैण्ड थी। उसके लिये मैं कुछ भी कर सकता था। वह भी किसी बात के लिये मुझे इन्कार नहीं करती थी। मुझे भी वह अपना ख़ास दोस्त समझती थी। हे भगवान, यह कैसा अन्याय कर रहा है तू मेरी दोस्त के साथ-- मेरे मन-मस्तिष्क में आँधियां चल रहीं थी।
लंच-ब्रेक होते ही मैं डायना की तलाश में भागा। वह मुझे लंच-रूम के बाहर फ़ूड-कोर्ट में ही मिल गई। मैंने उसे देखा तो हतप्रभ रह गया-- भय का नामो निशान नहीं, वही चेहरा वही मुस्कान।
"डायना..... डायना..... यह मैं क्या सुन रहा हूँ.....? यह सब झूठ है न....?" मैंने डायना से जल्दी-जल्दी पूछा।
"अरे छोड़िये न, मि. सिंह..... सच भी है तो क्या हुआ...?"
"तुम समझ नहीं रही हो डायना, यह बहुत गम्भीर बीमारी है, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं अपना दोस्त किसे बनाऊंगा?"
"इतना मोह न पालें मि. सिंह... हम सब हवा के झोंके की तरह हैं, आते हैं चले जाते हैं.... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... बी ब्रेव टू फ़ेस एनिथिंग मि. सिंह....।"
"नहीं डायना यह तो ईश्वर की सरासर नाइन्साफ़ी है..."
"यही तो ज़िन्दगी है मि. सिंह.... बहुत जल्दी मैं केमोथेरापी के लिये जा रही हूँ शायद कोई चमत्कार हो जाये..."
"होगा ज़रूर होगा..." मैंने पूरे विश्वास के साथ कहा।
" खैर छोड़ें, आईये खाना खायें.... आपकी भी यह पहली ब्रेक है..."
वह मुझे ज़बरदस्ती फ़ूड-कोर्ट में ले गई परन्तु मुझसे कुछ खाया न गया।
मैं सारी रात सो न सका। डायना का मुस्कुराता चेहरा हर पल दिमाग़ में छाया रहा। कभी कोई ख़्याल, तो कभी कोई ख़्याल। कनेडा जैसे देश में जहाँ आपके अपने देश के लोगों का ख़ून सफ़ेद हो जाता है, वहाँ कई बार ग़ैर मुल्क़ के लोग आपके इतने क़रीब आ जाते हैं, कि उनकी दोस्ती पर फ़ख़्र करने को मन करता है।
सिक्योरिटी में काम करते हुये मुझे सात साल हो चुके थे। इस दौरान मेरा, ज़िन्दगी के तरह-तरह के रंगों से पाला पड़ा था। एअर-पोर्ट पर विश्व के भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को मिला कर सिक्योरिटी की टीम बनाई गई है। यूं तो यह बहुत अच्छी बात है, कि जैसे भिन्न-भिन्न फूलों को लेकर तैयार किया गया गुलदस्ता अति मनमोहक और सुन्दर होता है मगर समय के चलते-चलते हर कम्यूनिटी में ग्रुपिज़्म जन्म ले लेता है-- वही बात यहाँ हुई है। हर किसी का अपना दल बन गया है। मज़ाक़ के तौर पर सबने एक दूजे के नाम भी रख छोड़े हैं, जैसे कि इंडियन-माफ़िया, पाकी गैंग, अरबी-ख़ज़ूरें और चायाना-टाऊन आदि। यहाँ ७० प्रतिशत औरतों ने ही जॉब्स पर क़ब्ज़ा कर रखा है जिनमें कामचोर और काहिलों की कमी नहीं है। प्वाईंट-लीडर भी अकसर, मर्दों को दरकिनार कर जब औरतों की हिमायत करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। कुछ तो ऐसे हैं, जो अपने प्रिय लोगों का ही पक्ष लेते हैं और उन्हीं का साथ देते हैं। ऐसे में डायना एक स्वच्छ और ताज़ा हवा की तरह टर्मिनल पर विचरती थी जिसके साथ हुई कुदरती नाईन्साफ़ी को मन नहीं मान रहा था।
मैं तमाम रात करवटें बदलता रहा। सुबह हृदय पर भारी बोझ लिये उठा। काम पर जाने का मन नहीं कर रहा था परन्तु डायना को देखने की तमन्ना लिये चला ही गया। सेन्ट्र्ल-चेक-प्वाईंट से गुज़रते हुये ज्योंहि डायना से सामना हुआ, उसका निस्तेज चेहरा देख ठिठक गया। मुझसे कुछ भी बोला न गया।
वैसे, बीमारी कोई भी शरीर को लग जाये यह अच्छी बात नहीं होती, परन्तु कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनका नाम इस क़दर ख़ौफ़नाक होता है कि सुनते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल भयभीत हो उठता है और चेहरा उदास हो जाता है। कैंसर भी उनमें से एक है।
"अरे... मि. सिंह.... कहाँ खो गये!" डायना ने मेरे चेहरे के आगे चुटकी बजाई।
"कुछ नहीं.... मैं चलता हूँ..... ब्रेक में मिलते हैं।" कह कर अपने आँसू छुपाता हुआ मैं अंदर चला गया।
कई बार देखने में आता है, कि ईश्वर में पूर्ण आस्था रखने वालों के साथ कभी अच्छा नहीं होता है। नेक और ईमानदार राह पर चलने वालों को ही जीवन में कड़ी परीक्षा से गुज़रना पड़ता है, जबकि ग़ैरज़िम्मेदार और बेईमान लोगों को अक्सर आरामदेह जीवन जीते हुये देखा जाता है। ऐसा क्यों-- इसका उत्तर ज़रा कठिन है।
कुछ समय पश्चात डायना को केमोथेरेपी के लिये अस्प्ताल में भर्ती कर लिया गया। उसका काम पर आना तो पहले ही कम हो चुका था। मैं, अब्दुल , पटेल, और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स लगातार उसे देखने अस्पताल जाते रहे।
अपने किसी अज़ीज़ को तिल-तिल कर मरते देखना कितना कठिन होता है--किस-किस तरह की यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है-- यह मैं प्रत्येक दिन, प्रत्येक पल महसूस कर रहा था मगर जोसेफ़, डायना का पति, न जाने किस मिट्टी से बना था?
वह अब पहले वाला जोसेफ़ न रहा। बदल गया था वह। जब डायना को उसकी सब से अधिक आवश्यकता थी, तभी उसने उसका साथ छोड़ दिया। कुछ दिन तो वह अस्पताल डायना को देखने आता रहा मगर फिर वह नहीं आया। और जब मैंने सुना कि वह तमाम घर-बार बेच कर किसी और स्त्री के साथ रहने लग गया है तो मुझे उससे घिन हो आई। अब डायना के पास अस्पताल से जाने के लिये कोई घर भी नहीं बचा था। उसका बेटा भी अपना परिवार लेकर किसी दूसरे शहर चला गया था। मैंने उसे अपने घर की पेशकश दी तो मेरी पत्नी के ख़्याल से उसने स्वीकार नहीं किया। ऐसे में उसकी दूर की एक बहन काम आई। अस्पताल से डायना उसके घर चली गई।
केमोथेरेपी के पश्चात डायना के बाल झड़ गये। उसके मुखड़े का स्वरूप बदल गया। मैं और अब्दुल उसे बराबर देखने जाते रहे। उसका चेहरा कांतिहीन भले हो गया हो मगर उसकी मुस्कान ज्यों-की-त्यों क़ायम थी। उस मुलायम मुस्कुराहट के पीछे,शायद सब-कुछ स्वीकार कर लेने का भाव था। प्रकृति की हर देन को उसने बड़े सहज भाव से क़ुबूल कर लिया था। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
केमोथेरेपी भी महज़ एक डॉक्टरी कोशिश ही निकली। कहते हैं, कि ज़हर, ज़हर को मारता है, मगर यहाँ, ज़हर से ज़हर ने मिलकर डायना को मार डाला।
आज डायना हमारे बीच नहीं है। वह जा चुकी है। एक सच्चे हमदर्द के खोने का ग़म तो मुझे है, परन्तु उसके और मेरे बीच की अदृश्य डोर का अहसास आज भी क़ायम है। बेगाने देश की बेगानी महिला से मिला अपनापन, मेरे दिल की गहराईयों से शायद ही कभी मिटे। आज टर्मिनल पर, अपनों में अपनापन तलाशती मेरी आँखें, कभी-कभी इस क़दर मायूस हो जाती हैं, कि इनको सिवाय जल के और कुछ नहीं मिलता। डायना सबकी थी, पर उसका कोई न था। इन्सानियत उसमें कूट-कूट कर भरी थी। लॉऊन्ज में काम करते हुये आज भी, उसके होने का भ्रम पैदा होता है। उसकी बातें जब चलती हैं तो मुझे लगता है, कि वह यहीं-कहीं है और अपनी मधुर मुस्कान बिखेरते हुये कह रही है,
"मि. सिंह.... कैसे हैं.... मैंने आपसे कहा था न, कि हम-सब हवा के झोंके की तरह हैं.... आते हैं, चले जाते हैं..... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... इसलिये बी ब्रेव मि. सिंह.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.......

3 comments: