Sunday, February 8, 2009

पनाह चाहिये

मंज़िल नही, राह चाहिये
आराम नही, आह चाहिये

नफ़रतों से ऊब चुके हम
मुहब्ब्तों की चाह चाहिये

साथ दे हर दौर में जो
बांह में वो बांह चाहिये

बादलों सुनो आज तुम
निरन्तर प्रेम प्रवाह चाहिये

सितारों तुम भी जान लो
रोशन हर निगाह चाहिये

प्यार ही प्यार हो जहाँ
दिल वो बेपरवाह चाहिये

किस नगर में है ठिकाना
तेरे घर की थाह चाहिये

मैं तो कबसे हूँ भटकता
मुझको अब पनाह चाहिये

है जो करना कुछ हयात में
जुनून बेपनाह चाहिये












4 comments:

  1. बहुत उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।

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  2. nafraton se ub chuke ham muhabton ki chah chahiye kya khoob kaha hai

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  3. sidhuji mere blogs par bhi najar dalen dhanyvaad
    www.veerbahuti.blogspot.com
    www.veeranchalgatha.blogspot.com

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