इस
ब्रहमाण्ड का
हर जीव
हिस्सेदार है,
क़ायनात के
पूर्ण फैलाव का
हर कोई
हक़दार है,
हाथ की रेखायें
चाहे कुछ भी
कहती हों,
क़दमों तले
ज़मीन
चाहे खिसकती
या फिसलती हो,
वक़्त का तकाज़ा है
कि मुझको
मेरे हिस्से का
आस्मान चाहिये,
फूलों खिला हो
या काँटों भरा
मुझको बस
अपना
ग़ुलिस्तान चाहिये...
Thursday, December 3, 2009
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