जिधर भी मैं देखूँ दिखाई वही दे
जहाँ भी सुनूँ मैं सुनाई वही दे
नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
ज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे
तसव्वुर में कितना भी चाहें किसी को
दिलों को मुहब्बत जुदाई वही दे
उठाये हैं हमने तो ख़ंज़र पे ख़ंज़र
अमन पर वही दे, भलाई वही दे
यहाँ से कभी कोई जाना न चाहे
मगर हर किसी को बिदाई वही दे
क़लम चाहे कितना सलीका दिखाये
क़लम को मगर रोशनाई वही दे
युं निर्मल के करने से होता नहीं है
ग़ज़ल या नज़म या रुबाई वही दे
Saturday, January 30, 2010
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"क़लम चाहे कितना भी सलीका दिखाये
ReplyDeleteक़लम को मगर रोशनाई वही दे"
अखंड सच - बहुत खूब
नज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
ReplyDeleteज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे
-यही सच्चा प्रेम है, बहुत खूब!!
क़लम चाहे कितना भी सलीका दिखाये
ReplyDeleteक़लम को मगर रोशनाई वही दे
युं निर्मल के करने से कुछ भी होता नहीं
ग़ज़ल या नज़म या रुबाई वही दे
Bahut hi lajawaab sher hain ... ye sach hai kuch bhi karne ki taakat vo hi deta hai ....
बेहद अच्छी रचना निर्मल जी,भावपक्ष का प्रबल प्रभाव कलात्मक कमनीय
ReplyDeleteप्रस्तुति, अप्रतिम बन पड़ी है। (कलम चाहे कितना भी सलीका दिखाये)पंक्ति में (भी )रखे बिना भी छन्दगत प्रवाह निर्विघ्न है,तथा(युँ निर्मल के करने से कुछ भी होता नहीं)में कुछ शब्दों को यति गति अनुसार सुसंगत स्थानपर रख देने तथा (भी )को हटा देने से पंक्ति गतिवती हो सकती हैं
sundar rachana...Badhai!
ReplyDeleteनज़र वैसे मुझको वो आता नहीं है
ReplyDeleteज़रूरत हो जब रहनुमाई वही दे
Excellent!