Friday, January 22, 2010

ज़िन्दगी, इक तमाशा

मैं कोई
दौलतमन्द नहीं कि
तू मेरी
दौलत के लिये ही
मेरे क़रीब
आ सके,
मैं कोई
दानिशमन्द नहीं कि
तू मेरी
अक़्ल का दामन पकड़
मुझमें
समा सके,
मैं कोई बहुत
शक्तिशाली भी नहीं कि
तू मेरी
शक्ति का लोहा मान
मेरी क़िस्मत का
दर खोल दे,
मैं कोई
जादूगर भी नहीं कि
जिसका जादू
पूरी तन्मयता से
तेरे सर चढ़
बोल दे,
फ़नकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
पहुँचा हुआ कि
मेरा फ़न ही
कभी
खींच लाये तुझे,
अदाकार भी नहीं
मैं कोई बहुत
ऊँचे दर्जे का कि
मेरी कोई
लुभावनी अदा ही
घसीट लाये तुझे,

मैं तो फ़कत
मुसाफ़िर हूँ
उस राह का
जिसकी कोई
मंज़िल नहीं,
अंतहीन आकाश में
उड़ता हुआ एक
आवारा पंछी हूँ केवल
जिसका कोई लक्ष्य नहीं
कोई दिशा नहीं,

तो भी ये
बेमक़सद परवाज़ तो
ख़त्म हो ही
जायेगी इक दिन,
तेरे मेरे बीच की ये
कच्ची डोर भी
टूट ही जायेगी
एक न एक दिन,

मगर
तुझको पाने की
ख़्वाहिश
युं ही बीच राह
डगमगाती रहेगी,
तुम मिलोगे या नहीं
मिलोगे तो कब कहाँ
ये सोच
सोच की पगडंडियों पे
युं ही लड़खड़ाती रहेगी,

किसे दूँ
इल्ज़ाम इसका
अपनी दुर्बलता को
अपनी अग्यानता को
अपनी नीरसता को
अथवा
अपनी विवशता को
या शायद
किसी को भी नहीं,

औक़ात नहीं कि
तुझसे कुछ
पूछ सकूँ,
हैसियत भी नहीं कि
तुझ पर
कोई सवाल
दाग सकूँ,

फिर भी
एक अंतिम सवाल
कि जब तुम
ख़ुद ही
बनाते हो
ख़ुद ही
मिटाते हो
तो फिर ये सारे
तमाशे ज़िन्दगी के
हमसे क्यों
करवाते हो?
हमसे क्यों
करवाते हो?

2 comments:

  1. वाह!! विचारणीय!! क्या बात है! बधाई!

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  2. एक अंतिम सवाल
    कि जब तुम
    ख़ुद ही
    बनाते हो
    ख़ुद ही
    मिटाते हो
    तो फिर ये सारे
    तमाशे ज़िन्दगी के
    हमसे क्यों
    करवाते हो
    वाह बिलकुल वाज़िब सवाल है शुभकामानाये

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