Sunday, April 17, 2011

दोपहर गर्मी की

दोपहर गर्मी की ये सुनसान सी वीरान सी है
चिलचिलाती धूप ये पिघले हुये अरमान सी है

चल पड़ी लू हर तरफ़ बेनूर शक़्लें हो चलीं सब
दूर तक ख़ामोशियां हैं फिर ये क्यों नादान सी है

किस तरह मौसम ने बदली चाल अपनी ये न पूछो
सर्द झोंकों की तमन्ना हो गई बेजान सी है

तप रहे हम इस तरह कि अब ना कोई आरज़ू है
बिन तेरे ये ज़िन्दगी बेकार इक सामान सी है

प्यास होंठों की बुझे ना दिल में हलचल हर घड़ी है
ले चलो मुझको कहीं अब ये जगह अन्जान सी है

ये तो चलते ही रहेंगे सिलसिले रंजो अलम के
ग़म न कर निर्मल कि ये कुछ देर के मेहमान सी है

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर गज़ल ..


    ये तो चलते ही रहेंगे सिलसिले रंजो अलम के
    ग़म न कर निर्मल कि ये कुछ देर के मेहमान सी है

    बस यह रंज मेहमान ही बने रहें ...

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  2. शानदार ख्याल

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  3. 'तप रहे हम इस तरह कि अब न कोई आरज़ू है
    बिन तेरे ये जिंदगी, बेकार इक सामान सी है '
    ................................................................
    उम्दा शेर .....अच्छी ग़ज़ल

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  4. तप रहे हम इस तरह कि अब ना कोई आरज़ू है
    बिन तेरे ये ज़िन्दगी बेकार इक सामान सी है

    प्यास होंठों की बुझे ना दिल में हलचल हर घड़ी है
    ले चलो मुझको कहीं अब ये जगह अन्जान सी है

    dil ke kareeb se nikalti ye gazal ander tak khud ko dohra gayi. bahut acchhi gazel.

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