Thursday, April 23, 2009

अर्चना

रनबीर लिफ़्ट से निकल कर अपने ऑफ़िस की ओर बढ़ चला। धीमे-धीमे क़दमों के साथ ऑफ़िस की तरफ़ जाते हुये, उसे कई लोगों ने विश किया। उसने किसी का जवाब दिया-- किसी का नहीं, चुपचाप अपने दफ़्तर का दरवाज़ा खोला और टेबल पर जाकर बैठ गया। उसके चेहरे से गम्भीरता साफ़ झलक रही थी। कुछ करने के लिये वह उठने ही लगा था कि, अचानक उसके चेहरे के सामने किसी ने घड़ी करते हुये कहा,
"ये ऑफ़िस आने का वक्त है क्या...?"
वह अचकचा गया। मालिक था वह अपनी कम्पनी का। कोई उससे इस क़िस्म का सवाल करे-- इतनी हिमाकत, उसने क्रोध में नज़रें उठा कर सामने देखा।
सामने पच्चीस-छब्बीस साल की ख़ूबसूरत नवयुवती खड़ी थी। रनबीर को अपनी ओर देखते ही फिर बोली,
"जी हाँ.... बोलिये न.... यह कोई ऑफ़िस आने का समय है...? दोपहर का एक बज रहा है और आप हैं कि, अब पधार रहे हैं। थोड़ी ही देर में सबके जाने का टाईम हो जायेगा, सब चले जायेंगे तब आप यहाँ क्या करेंगे?"
"जी.... वो..... मगर....." रनबीर इस अनपेक्षित स्थिति के लिये तैयार नहीं था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह लड़की कौन है। वह उससे पूछने ही वाला था, कि वह पहले ही बोल पड़ी,
"आप सोच रहे होंगे कि मैं कौन हूँ...? है न, तो ज़्यादा दिमाग़ पर ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है, मैं स्वयं ही बता देती हूँ.... माईसेल्फ़ अर्चना रस्तोगी, और मैं आपकी नई सेक्रेटरी हूँ।" अर्चना ने अपना हाथ बढ़ाते हुये कहा
"मगर.... मगर...." रनबीर ने उसके बढ़े हाथ पर कोई ध्यान न दिया।
"और हाँ.... कुछ दिन से आपके बिना ही, ये ऑफ़िस चला रही थी, आज आप आ गये हैं तो सब कुछ जान लेंगे। राईट....?"
"मगर यहाँ तो सुनीता हुआ करती थी।" रनबीर जल्दी में बोला, " वह कहाँ है?"
"उसके पति का दूसरे शहर तबादला हो गया, सो उसे काम छोड़ कर जाना पड़ा और उसकी जगह हमारी अप्वाईंटमेंट हो गई, और कुछ....?"
"ओह....हाँ... वो मलहोत्रा कहाँ है?"
"मलहोत्रा सर अपने ऑफ़िस में हैं। उन्होंने बताया था कि आज आप आने वाले हैं, और जब आप आ जायें तो आपको ये बता दिया जाये, कि आप उनके दफ़्तर में जाकर उनसे मिल सकते हैं।" अर्चना ने बड़ी हलीमी से उत्तर दिया।
इस अप्रत्याशित स्थिति से रनबीर बौखलाया तो था पर अब, काफ़ी हद तक वह संभल चुका था। वह मलहोत्रा के ऑफ़िस की ओर चल पड़ा। वह समझ चुका था कि इस अर्चना रस्तोगी को मलहोत्रा ने अप्वाईंट किया होगा परन्तु उसने उससे, इस बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया था। बीमारी की वजह से वह कई हफ़्तों से दफ़्तर नहीं आ सका था। दफ़्तर में होने वाली हर कारगुज़ारी की रिपोर्ट मलहोत्रा उसे दिया करता था मगर उसने अर्चना वाली बात उसे क्यों नहीं बताई? आख़िरकार, मलहोत्रा उसका बिज़निस पार्टनर था। हर तरह के लाभ-हानि के दोनों समान भागीदार थे, फिर उसने अर्चना वाली बात उससे क्यों छुपाई-- यह बात उसके पल्ले नहीं पड़ रही थी। यही सोचते-सोचते वह मलहोत्रा के दफ़्तर तक जा पहुँचा।
मलहोत्रा अपने ऑफ़िस में किसी पार्टी के साथ विचार-विमर्श में मशरूफ़ था। उसने रनबीर को देखा, और एक कोने में पड़े सोफ़े पर बैठ जाने का इशारा किया। रनबीर ख़ामोशी से सोफ़े पर जा बैठा और उनकी गुफ़्तगू सुनने का प्रयास करने लगा, परन्तु उसका मस्तिष्क तो कहीं और ही घूम रहा था।
रनबीर और मलहोत्रा को ‘हिमालया ग्रुप ऑफ़ इण्डस्ट्रीज़’ नामक इस कम्पनी को चलाते हुये क़रीब तीस साल हो चुके थे। बहुत थोड़ी-सी लागत से शुरू की गई कम्पनी अब एक विशाल एम्पायर में तब्दील हो चुकी थी। दोनों दोस्तों ने जब इस कारोबार का उदघाटन किया था तो उन्हें स्वप्न में भी ग़ुमान नहीं था कि इस कारोबार और उनकी दोस्ती में ऐसा पक्का तालमेल बैठेगा कि जिसकी मिसाल ढूँढने से नहीं मिलेगी। समय ने, चलते-चलते दोनों को बुढ़ापे की दहलीज़ पर तो ला खड़ा किया,मगर उनकी दोस्ती और कारोबार में कोई अन्तर न आया। रनबीर अपने दोस्त मलहोत्रा की सूझ-बूझ और दूर-अंदेशी का क़ायल था। पार्टियों से डील करने में उसका कोई सानी नहीं था। बड़े-बड़े लोगों से मेल-जोल बढ़ा कर अपनी कम्पनी का काम निकालने में वह माहिर था। इसके विपरीत रनबीर कुछ धीर-गम्भीर व्यक्तित्व का मालिक था और अपने इसी स्वभाव और क़ाबलियत के कारण वह कम्पनी का सारा काम पूरी तन्मयता और दक्षता से चलाता था।
"हाँ तो जनाब.... मिल गई फ़ुरसत बीमारी से...?" मलहोत्रा ने रनबीर की ओर आते हुये कहा। पार्टी जा चुकी थी और अब वहाँ उन दोनों के सिवा कोई नहीं था।
" हूँ.... मगर ये अर्चना का क्या किस्सा है...तुमने बताया नहीं?" रनबीर ने पूछा
"कैसे बताता? पिछले साल भर से तुम अपनी मानसिक परेशानियों की वजह से कम्पनी के काम में ध्यान नहीं दे पा रहे थे, मैं...’
"मगर तुम तो मेरा सारा दुख समझते हो, फिर भी ऐसा कह रहे हो?"
"हाँ... मैं जानता हूँ कि पूजा का ग़म तुम्हें अंदर-ही-अंदर खाये जा रहा है मगर मेरे दोस्त, ऐसा कब-तक चलेगा... संभालो अपने आपको मेरे भाई..." मलहोत्रा ने भावुकता से कहा।
"मैं कोशिश तो कर रहा हूँ न!" रनबीर ने कहा
"मैं जानता हूँ, ये अच्छी बात है, परन्तु काम भी तो चलाना पड़ता है, जब तुम नहीं आ पा रहे थे, तो अंदर और बाहर का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा था, ऊपर से तुम्हारी सेक्रेटरी सुनीता भी काम छोड़ गई तो थक-हार-कर मुझे अर्चना को अप्वाईंट करना पड़ा।"
"वो तो ठीक है, पर तुम्हें कोई और नहीं मिली इस अर्चना के अलावा...."
"ओ कम ऑन रनबीर.... इसने बिज़निस मैनेजमेंट का कोर्स किया है और थोड़ा-बहुत तजुर्बा भी है मुझे ये कम्पनी के लिये हर तरह से उपयुक्त लगी, सो इसे मैंने रख लिया। कुछ दिन काम देखा, तो वह भी अच्छा लगा... क्यों? क्या तुम्हें अच्छी नहीं लगी...?" मलहोत्रा ने रनबीर की आँखों में झांका।
"अभी कुछ कह नहीं सकता.... परन्तु बातें बहुत करती है....।" रनबीर को अपने साथ अर्चना का किया व्यवहार स्मरण हो आया।
"मगर, ऑफ़िस का तमाम स्टॉफ़ अर्चना से बेहद ख़ुश है। कुछ ही हफ़्तों में इसने अपनी क़ाबलियत और व्यवहार से सबका मन जीत लिया है। तुम्हारे ग़म की वजह से ऑफ़िस वाले भी बुझे-बुझे से रहते थे। अर्चना के आने से, माहौल कुछ बदला है। मैं चाहता था कि तुम जब आओ तो तुम्हें कुछ अच्छा वातावरण मिले। ख़ैर, मुझे तो वह अच्छी लगी, आशा है, तुम्हें भी अच्छी लगने लगेगी।"
"वेल... देखेंगे... अब क्या प्रोग्राम है?"
"मैं तो लंच के लिये बाहर निकलने वाला था, अब तुम आ गये हो तो तुम भी साथ चलो... बहुत दिन बाद साथ बैठेंगे.... ठीक है न!"
"हाँ... हाँ... चलो.."
मलहोत्रा ने सही कहा था। कम्पनी का माहौल अब काफ़ी बदल चुका था। पिछले साल भर से रनबीर कुछ व्यक्तिगत-कारणवश ऑफ़िस से लगभग दूर ही रहा था। अगर कभी आता भी था तो चिड़चिड़ा और ग़ुस्से से भरा हुआ। ऑफ़िस के लोग उसके इस व्यवहार से परेशान तो थे ही, मगर उसके ग़म से दुखी भी थे। कोई उसकी कही बात का बुरा नहीं मानता था लेकिन ऐसे माहौल का असर काम पर अवश्य पड़ रहा था। पूजा के दुख ने रनबीर को झकझोर कर रख दिया था। अब जीवन उसके लिये ज़रा भी रुचिकर नहीं रह गया था।
"क्या ख़्याल है...? आज शाम मेरे घर चलते हैं। सावित्री भी तुम्हें याद कर रही थी रात का खाना वहीं खायेंगे।" मलहोत्रा ने खाना खाते हुये रनबीर से पूछा।
"आज नहीं ...फिर कभी... भाभी से कहना, मैं जल्दी ही उधर चक्कर लगाऊँगा। अभी तो मैं खाने के बाद सीधा घर ही जाऊंगा...।"
"और घर जाकर , शराब लेकर बैठ जाओगे, क्यों है न?"
"नहीं यार.... अब तो बहुत कम कर दी है।"
"कोई कम-वम नहीं की है, मुझे सब पता है। माना कि, तुम्हारे साथ बड़ा गम्भीर हादसा हुआ है, हम-सब तुम्हारे ग़म में साथ हैं पर यार, दुख से उबरने के लिये प्रयत्न तो तुझे ही करना पड़ेगा न!"
"ओ. के.... ओ. के.... नो लैक्चर प्लीज़.... अच्छा मैं चलता हूँ...." कहते हुये रनबीर उठ खड़ा हुआ।
"कल ऑफ़िस आओगे न?"
"हाँ यार.... आ जाऊँगा...."
इतना कह टैक्सी ले रनबीर घर चल पड़ा। मलहोत्रा का अनुमान बिल्कुल सही था। घर पहुँच कर रनबीर ने बोतल निकाली, और पीने बैठ गया। वह रात देर तक पीता रहा। इन्सान ग़म की गहराईयों से निकलने के लिये शराब का सहारा लेता है, मगर किसी गम्भीर ग़म से उबरना, क्या इतना आसान है?
दूसरी सुबह, रनबीर जब ऑफ़िस पहुँचा तो फिर दोपहर हो चुकी थी। वह जैसे ही टेबल पर बैठा, तो सामने लगे फ़ाईलों का ढेर देख चौंक उठा।
"यह क्या......" उसके मुंह से निकला,
"यह आपका पेंडिग पड़ा हुआ काम है जो आपने समाप्त नहीं किया था, और अब आपने यह करना है..." सामने अर्चना खड़ी मुस्कुरा रही थी।
"मेरी मेज़ पर फ़ाईलों का ढेर लगाने की तुम्हें किसने इजाज़त दी?" वह भड़क उठा
"यह आपका ही काम है और आपको ही करना चाहिये, किसी और की टेबल पर...."
"शट-अप..." वह ग़ुस्से में उबल पड़ा, "यह फ़ाईलें उठाओ और निकल जाओ यहाँ से..."
"एक बात तो बताईये, आप काम से इतना घबराते क्यों हैं? मेरी मानिये, इतना आलस अच्छा नहीं होता....और...."
"आई से यू शट-अप..." वह एकदम से चीख़ते हुये उठ खड़ा हुआ, "तुम बाहर जाती हो कि नहीं...?"
अर्चना ने चुपचाप फ़ाईलें उठाई और बाहर निकलने ही लगी थी कि, वह फिर ज़ोर से बोला,
"और सुनो..... अपनी नसीहतें अपने पास ही रखा करो.... जितनी तुम्हारी उम्र नहीं है उससे कहीं ज़्यादा इस कम्पनी की उम्र है। आयन्दा से, अपने दायरे में रहने की आदत डाल लो.... समझी.... वर्ना...."
अर्चना ने आँखों में तैरते आँसुओं को छुपाया और ख़ामोशी से बाहर निकल गई।
उसके जाते ही रनबीर धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। उसकी सांस फूल रही थी। उसने ज़ेब से गोलियों की शीशी निकाली, एक-दो गोलियां मुंह में डालीं और आँखे बन्द कर लीं।
मलहोत्रा उस वक्त बाहर किसी पार्टी से मिलने गया हुआ था। क़रीब तीन बजे जब वह वापस आया तो उसे सारी बात का पता चला। उसे बहुत दुख हुआ। वह जानता था कि रनबीर दिल का बुरा नहीं है। उसे बस अपने ग़म से उबरने के लिये वक्त चाहिये। उसने अर्चना को बुलाया और उसे बड़े प्यार से समझाया। वह तो नौकरी छोड़ कर जाने को तैयार थी परन्तु उसके समझाने पर रुक गई।
अर्चना को समझाने के बाद मलहोत्रा रनबीर के दफ़्तर में गया और उसे देखते ही क्रोध भरे स्वर में बोला,
"रनबीर ये सब क्या हो रहा है? आख़िर तुम्हें, अर्चना से क्या ऐलर्जी है? क्यों तुम उससे इतनी ख़ार खाते हो? और तो और, तुम अपनी कम्पनी की सारी मान-मर्यादा भूल गये हो!"
रनबीर कुछ न बोला, मलहोत्रा ने फिर आगे कहा,
"देखो रनबीर, इन्सान का एक अवगुण उसके बहुत सारे गुणों को निग़ल लेता है। तुम्हारे क्रोध और हक़ जताने की आदत से मैं तो भलीभांति परिचित हूँ, मगर कम-से-कम अर्चना के साथ इतनी ज़्यादती तो न करो!"
"तुम नहीं जानते मलहोत्रा, वह बहुत ज़्यादा हॉवी होने की कोशिश करती है। ऐसा लगने लगता है कि वह यहां की मालकिन हो, और हम सब नौकर-चाकर।"
"नहीं.... ऐसी बात नहीं है रनबीर, तुमने उन फ़ाईलों को तो खोल कर देखा ही नहीं, कई महीने का तुम्हारा अधूरा काम, उसने पिछले कुछ ही दिनों में पूरा किया है। इस काम के लिये उसने समय की कोई परवाह नहीं की, और आज जब सारा काम समाप्त करके फ़ाईलें तुम्हारे दस्तख़त के लिये टेबल पर रखीं, तो शाबाशी देने की बजाय तुमने उसके साथ जो सुलूक किया उससे उसे कितना दुख हुआ होगा, इसका अंदाज़ा है तुम्हें....?"
"क्या....?" रनबीर के मुंह से निकला,
"हाँ.... जहाँ तुम्हें उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिये था, वहाँ तुमने उसका अपमान कर दिया। वह तो काम छोड़ कर जा रही थी, मैंने ही समझा-बुझा कर रोक लिया है। अब ये तुम्हारे हाथ में है। तुम उसे रखना चाहते हो तो रखो, निकालना चाहते हो तो निकाल दो, मैं कोई दख़ल नहीं दूंगा...।" मल्होत्रा रनबीर से पूरी तरह ख़फ़ा था।
"ओह... आई ऐम सॉरी...." रनबीर का लेहज़ा नर्म हो गया।
"सॉरी मु्झे नहीं.... अर्चना से कहो तो बेहतर है।"
कहने के साथ ही मल्होत्रा उठा और अपने दफ़्तर की ओर बढ़ गया।
रनबीर बहुत देर तक ख़ामोश बैठा रहा। वह इसी उधेड़बुन में था, कि अर्चना को बुलाये तो किस तरह। अपने व्यवहार पर उसे शर्मिन्दगी तो थी ही, परन्तु उसका अहम भी आड़े आ रहा था। अन्तत: उसने अर्चना को बुला भेजा।
"यस सर.... आपने मुझे बुलाया?" अर्चना अंदर आकर पूरे मान और गम्भीरता से बोली,
"हाँ... वो फ़ाईलें दोबारा लाओ,"
कहते हुये रनबीर ने ज्योंहि सर उठा कर सामने अर्चना को देखा, तो देखता ही रह गया। उसकी पलकें रोने की वजह से सूजी हुई थीं। चेहरे से उदासी झलक रही थी। रनबीर को उसमें पूजा की छवि तैरती नज़र आई। ऐसा उसे क्यों लगा -- वह ख़ुद नहीं समझ पाया।
अर्चना बाहर गई और फ़ाईलें दोबारा लाकर टेबल पर रख दीं।
"बैठो...." रनबीर बोला, उसकी समझ में नहीं आ रहा था, कि बात कैसे शुरू करे?
"बात दरअसल यह है......" फ़ाईलों पर नज़र दौड़ाते हुये उसने कहना शुरू किया, " कि मैं.... मैं... तुमसे वो सब नहीं कहना चाहता था जो मैं कह बैठा, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिये था.... आई ऐम सॉरी....."
"कोई बात नहीं सर, ग़लती मेरी ही थी कि, मैं यह भूल गई थी कि मैं एक नौकर हूँ और आप एक मालिक....।"
"अब कह दिया न सॉरी.....और कितनी बार कहना पड़ेगा," रनबीर फिर कुछ उत्तेजित हुआ\
"मैंने भी तो कह दिया न, कि कोई बात नहीं...." अर्चना के चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी, "आप सारी फ़ाईलों पर साईन कीजिये, मुझे और भी काम करने हैं।"
अर्चना फ़ाईलें लेकर बाहर गई, तो रनबीर ने स्वयं को काफी हल्का महसूस किया। वह उठ कर मल्होत्रा के दफ़्तर गया और उससे बोला,
"मलहोत्रा, शाम हो चली है, कॉफ़ी पीने चलें?"
"श्योर... श्योर.... चलो," मल्होत्रा ने जब उसके चेहरे पर ख़ुशी देखी, तो उसे बहुत अच्छा लगा। उसने रनबीर से पूछा, " तुम कहो तो, अर्चना को भी साथ ले लें?"
"जैसी तेरी इच्छा..."
कहते हुये जब रनबीर अपने दफ़्तर की ओर जा रहा था, तो उसने देखा कि अर्चना ख़ुशी-ख़ुशी इधर-उधर आ-जा रही है। उसकी चंचलता वापस आ चुकी थी। रनबीर को बहुत तसल्ली महसूस हुई।
कॉफ़ी पीते-पीते रनबीर और अर्चना के बीच की बची-खुची कड़ुवाहट लगभग समाप्त हो चुकी थी। तीनों ने शाम का भरपूर आनन्द लिया। रात को वापस घर जाते हुये, रनबीर स्वयं को बड़ा शान्त और आनन्दित महसूस कर रहा था। आज बहुत दिनों के बाद उसने घर जाकर, सिर्फ़ एक-दो पैग ही लगाये और सोने चला गया।
इस तरह रनबीर का अस्त-व्यस्त जीवन व्यवस्थित होने लगा। अर्चना ने ऑफ़िस से घर तक का माहौल बदल कर रख दिया। मलहोत्रा और उसकी पत्नी, अर्चना से बेहद ख़ुश थे। उनके घर पर, हर दूसरे-तीसरे दिन कभी खाने पर, तो कभी कॉफ़ी के लिये बैठकें होने लगीं। अर्चना के प्रति, रनबीर के दिल में एक क़िस्म का मोह जाग उठा। जीवन के प्रति उसका रवैया फिर से आशावादी हो चला। अब उसके जीवन में कम्पनी, मलहोत्रा परिवार और अर्चना बस, इसके अलावा और कुछ नहीं था।
समय चलता रहा। दिन महीनों में परिवर्तित होते रहे। क़रीब सात- आठ महीने गुज़रने के बाद एक दिन अचानक, रनबीर के दफ़्तर में आकर अर्चना बोली,
"आज शाम, आप घर पर ही रहना, मैं आ रही हूँ, साथ ही मल्होत्रा सर भी आ रहे हैं। एक महत्वपूर्ण विषय पर आपसे बात करनी है।"
"महत्वपूर्ण विषय...? अभी ही कर लो... शाम तक कौन इंतज़ार करे?" रनबीर ने कहा।
"नहीं..... नहीं..... वह बात यहाँ करने वाली नहीं... शाम को ही करेंगे.... और हाँ ध्यान रहे... नो ड्रिंक्स टिल वी कम... ओ. के.?"
"ओ. के. बाबा... अब तो ख़ुश... अब चलो यहाँ से, मुझे और भी काम करने हैं।"
संध्या समय रनबीर घर पहुँच कर उनका इंतज़ार करने लगा। क़्ररीब सात बजे मलहोत्रा अपनी पत्नी समेत पहुँच गया। तीनों बैठ कर बातें करने लगे। रनबीर ने मलहोत्रा से जब पूछा, कि अर्चना किस विषय पर बात करना चाहती है, तो उसने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की। मलहोत्रा ने भी रनबीर को आजमाने के लिये व्हिस्की लेने का आग्रह किया तो रनबीर ने-- पहले अर्चना को आने दो--कह कर मना कर दिया।
साढ़े सात बज रहे थे जब अर्चना ने कमरे में प्रवेश किया। उसके साथ एक नौजवान भी था। रनबीर थोड़ा चौंका, क्योंकि उसने उस युवक को पहले कभी नहीं देखा था।
"सॉरी, हमें आने में ज़रा देर हो गई।" अर्चना आते ही बोली, "कुछ हम लेट चले थे, कुछ रास्ते में ट्रैफ़िक ने लेट कर दिया..."
"कोई बात नहीं.... मगर..." कहते हुये रनबीर ने उस युवक की ओर सवालिया नज़रों से देखा।
"इनसे मिलिये... ये मि. विकास हैं और विकास...! ये मि. रनबीर, और ये मि. मलहोत्रा हैं जिनके बारे में मैंने तुम्हें बताया था। यूं कहने को तो ये मेरे एम्पलॉयर हैं मगर, इनके अलावा इस शहर में मेरा और कोई नहीं है।" अर्चना ने ज़रा गम्भीरता से कहा।
"पर.... ये है कौन...?" रनबीर से न रहा गया।
"ये मेरे मंगेतर हैं, और अगले ही हफ़्ते हम शादी कर रहे हैं..."
"क्या......? तुमने पहले क्यों नहीं बताया?" रनबीर बुरी तरह चौंका।
"कैसे बताती...? अभी पिछले ही हफ़्ते तो, ये अमेरिका से आया है...। देखो... ग़ुस्सा मत करना.... अब बता दिया न...!"
"अब क्या ख़ाक बता दिया.... सब कुछ होने के बाद बताया तो क्या बताया, शादी भी हो जाने देती तो ही बताती.... और न भी बताती तो क्या फ़र्क़ पड़ जाता..." रनबीर पूरी तरह बेक़ाबू सा हो उठा।
"कोई बात नहीं रनबीर, धीरज रखो....," मलहोत्रा ने आगे आ कर हस्तक्षेप करते हुये कहा, " तुम पहले अर्चना की बात शान्ति से सुन तो लो..."
"क्या सुन लो.....? तू भी इनके साथ मिला है क्या...? अगर तुझे इस बात का पहले से पता था, तो तूने मुझे क्यों नहीं बताया...?"
"अरे भई.... मुझे भी आज ही पता चला है, क्या करता, बच्चों के साथ तो समझौता करना ही पड़ता है। तू तो जानता ही है कि, मैंने पहले भी समझौते किये हैं... यार छोड़ न...! अब तो विरोध करने की हिम्मत भी नहीं रह गई है..."
मलहोत्रा सही था। उसने बहुत समझौते किये थे। उसके दोनों बच्चे उसकी मर्ज़ी के बिना, उससे दूर अमेरिका जाकर बस गये थे। इस बात को लेकर वह अंदर-ही-अंदर बहुत दुखी रहता था। पहले तो बच्चे अक्सर फोन करते रहते थे मगर अब तो कभी-कभार ही फोन आता था। रनबीर का घर तो वैसे ही उजड़ा हुआ था। कभी-कभी बाहर से मालामाल दिखने वाले लोग, अंदर से कितने खोखले होते हैं, इस बात का अंदाज़ा रनबीर और मलहोत्रा को देख कर आसानी से लगाया जा सकता था।
"तुम करो समझौता, मैं तो नहीं करूंगा.... अगर इस लड़की को इतना सलीका नहीं, कि अपने इतने बड़े फ़ैसले में हमें शामिल करना चाहिये तो बेशक... ये जाये जहन्नुम में..." रनबीर ने ऊँचे स्वर में कहा।
"अब तुम अर्चना के साथ भी वही सुलूक कर रहे हो, जो तुमने कभी पूजा के साथ किया था। मुझे कई बार ख़्याल आता है कि तुम्हारी ज़िद और क्रोध की वजह से ही पूजा की जान गई। तुम स्वयं हत्यारे हो अपनी बेटी के रनबीर...।" मल्होत्रा भी तैश में बोले जा रहा था।
"क्या बकते हो तुम.... मैंने तो केवल उसे किसी ग़ैर-धर्म वाले के साथ शादी करने से मना किया था..."
यह सच था। रनबीर की बेटी पूजा किसी ग़ैर-धर्म वाले के साथ प्रीत लगा बैठी थी, जिसे रनबीर स्वीकार नहीं कर पाया। वह उसकी शादी किसी अपनी ज़ाति-धर्म में ही धूम-धाम से करना चाहता था। उसकी पत्नी बहुत पहले ही पूजा को उसकी गोद में छोड़ कर परलोक सिधार चुकी थी। उसके बाद रनबीर ने अपना सारा ध्यान और प्यार पूजा पर उंडेल दिया था। पूजा की ख़ातिर उसने दूसरी शादी नहीं की। अगर कहीं वह ग़लत था तो सिर्फ़ इस बात पर कि, पूजा पर वह हद से ज़्यादा अपना अधिकार समझने लग गया था। इसलिये जब पूजा ने जवानी की दहलीज़ पर पांव रखते ही किसी ग़ैर-धर्म वाले से शादी की इच्छा जाहिर की तो वह आपे से बाहर हो गया, और तड़ातड़ कई तमाचे पूजा की गालों पर रसीद किये और साथ ही बड़े कठोर शब्दों में शादी से एक-तरफा इन्कार कर दिया। पूजा नर्वस और रोहांसी होकर वहाँ से भाग निकली। रास्ते में कार चलाते वक्त वह इस क़दर बदहवास और घबराई हुई थी, कि कब उसकी कार सड़क के दूसरी ओर से आते हुये ट्रक से टकराई, उसे पता भी न चल सका।
पूजा को लाख कोशिशों के बावजूद बचाया न जा सका। रनबीर की पत्नी तो पहले ही उसे छोड़ कर जा चुकी थी, जब पूजा भी उसे छोड़ कर चली गई तो वह बिल्कुल ही तन्हा और मायूस हो गया। दुखों की मार से वह निराश रहने लगा। हताशा के इस दौर ने उसे शराब का आदी और चिडचिड़ा बना दिया। और जब उसे वर्षों-बाद अर्चना में पूजा की छवि दिखाई दी, तो उसी मोह के वशीभूत होकर वह अर्चना पर भी वैसा ही अधिकार समझ बैठा। कभी-कभी ज़िन्दगी के इम्तिहान भी बड़े अजीब होते हैं।
"तुमने मना नहीं, उस पर हद से ज़्यादा दबाव डाल दिया था, जिसे वह मासूम जान बर्दाश्त न कर सकी और अपनी जान गंवा बैठी।"
रनबीर कुछ न बोल पाया। मलहोत्रा ने आगे कहा,
"अब इस अर्चना की ओर देखो, इसने बहुत साल पहले दिल्ली में हुये दंगों में अपने मां-बाप को खो दिया था, मगर तुमने कभी इसे उदास और चिड़चिड़े रूप में देखा है? नहीं न, यह बेचारी भी तो दुखी है। हमें यह अपना समझती है, और खास कर तुममें अपने पिता की छवि पाती है तो तुम इस पर फिर अनुचित दबाव क्यों डाल रहे हो? यार रनबीर, समझा करो... जायदाद और इन्सान में बड़ा फ़र्क होता है।"
रनबीर फिर कुछ न बोला, चुपचाप उठ कर खिड़की के क़रीब चला गया। मलहोत्रा रुका नहीं, कहता ही रहा,
"रनबीर, आज अर्चना के रूप में भगवान ने जब तुम्हारी पूजा को वापस किया है तो तुम क्यों फिर वही कहानी दुहरा रहे हो? देखो मेरे दोस्त, बेटियां सारी ज़िन्दगी साथ रहने के लिये नहीं होती हैं। एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है और हमें सीने पर पत्थर रख कर उन्हें विदा करना पड़ता है। अच्छा है, यदि तुम पूजा को विदा नहीं कर सके, तो कम-से-कम अर्चना को तो बख़ुशी विदा करो...." इतना कह कर मलहोत्रा ख़ामोश होकर बैठ गया। यूं लगा कि, वह थक सा गया था।
रनबीर चुपचाप खिड़की के बाहर देखता रहा। एक तरफ़ बीती बातों ने उसके सीने में दर्द जगा रखा था, तो दूसरी तरफ़ अर्चना से बिछड़ने का ग़म भी उससे सहन नहीं हो पा रहा था। उसकी आँखों में आँसू झलक रहे थे। बाहर आस्मान की ओर देखते हुये उसे पूजा का मासूम चेहरा याद आया। उसके कानों में मलहोत्रा के शब्द दोबारा गूंज उठे,
"बेटियां सारी ज़िन्दगी साथ रहने के लिये नहीं होती हैं, एक-न-एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है। उनकी अपनी एक दुनिया होती है, जो उनका इंतज़ार कर रही होती है।"
उसने मुड़ कर अर्चना की तरफ़ देखा। वह उदास थी। शायद उसके व्यवहार के कारण। वह तो उसे अपने दिल में पिता का स्थान दे चुकी थी। विकास को साथ लेकर उससे आशीर्वाद लेने आई थी, फिर वह क्यों इतना कठोर हो गया? क्यों....क्यों...
यही सोचते-सोचते रनबीर, आहिस्ता-आहिस्ता अर्चना के क़रीब आया और उसके सिर पर अपना हाथ रख, उसे अपने सीने से लगा लिया.....

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Sunday, April 5, 2009

अपना-बेगाना

"हैलो मि. सिंह... हाऊ आर यू डूईंग टू डे?"
"आई एम डूईंग गुड, हाऊ एबाऊट यू डायना?"
"आई एम फ़ाईन... ओ. के. मि. सिंह... सी यू लेटर... मैं ज़रा लेट हूँ... इसीलिये जल्दी है... अभी मुझे अपना कार्ड स्वाईप करना है, आपको तो पता ही है, कि आजकल कितनी सख़्ती है। पाँच मिनट लेट हो जाओ तो पन्द्रह मिनट के पैसे कट जाते हैं, ओ. के सी यू..."
एक ही सांस में इतनी सारी बातें कहकर, डायना तेज़ी से सेन्ट्रल-चेक-प्वाईन्ट के अंदर चली गई।
मैं चैक-प्वाईंट के बाहर लिक्विड-ऐंड-जेल की पोज़ीशन पर खड़ा था जहाँ, सफ़र में जाने वाले पैसेंजर से उसके पास मौजूद तरल-पदार्थ का विवरण पूछना पड़ता है और समस्त १०० मि. लि. से कम तरल-वस्तुओं को एक पारदर्शी प्लास्टिक के बैग में डालना पड़ता है ताकि अंदर के ऑफ़िसर्स को बैग-निरिक्षण में आसानी रहे। डायना तो अंदर चली गई पर मैं उसकी कही बात को सोचता रहा।
ठीक ही कह रही थी वह। पियरस-एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी में काम करने वालों के दिनों में अब भारी तब्दीली आ चुकी थी। कुछ समय पहले जहाँ काम करने में सब बहुत आनन्द महसूस करते थे वहाँ अब भारी तनाव के दिन गुज़ार रहे थे। कैट्सा (कैनेडियन एअर ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी अथोरिटी) की हाल में लागू की गई नयी नीतियों ने सबको परेशानियों में डाल रखा था।
वैसे भी, इन्सान जब अधिक आज़ादी से पाबन्दियों में क़ैद होने लगता है तो तड़फड़ाता भी बहुत है। यही हाल सारे सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स का था। जिन्होंने हवाई-अड्डे के ख़ूबसूरत माहौल में आवारागर्दी भोगी हो, अब एक जगह खड़े होकर काम करने को मुसीबत समझ रहे थे।
ख़ैर, अंदर जाकर डायना कार्ड स्वाईप करके प्वाईंट-लीडर के निर्देशानुसार एक मशीन की फ़्रन्ट-पोज़ीशन पर काम करने लगी। प्रत्येक मशीन पर क़रीब पाँच से छे ऑफ़िसर्स हमेशा काम करते हैं। यात्री सर्वप्रथम फ़्रन्ट-पोज़ीशन वाले ऑफ़िसर्स के पास आता है, जो उसके सारे कैरी-ऑन-बैग एक्स-रे मशीन में डलवाता है और उससे सारी धातु-निर्मित वस्तुयें, जैकेट्स, शूज़, सैल-फोन इत्यादि लेकर एक ट्रे में डाल कर, उसे भी एक्स-रे मशीन में धकेलता है ताकि उसे आगे मैटल-डिटेक्टर से गुज़रते हुये कोई परेशानी न हो। मेटल-डिटेक्टर के पार स्कैनर हाथ में लिये एक और ऑफ़िसर होता है जो मेटल-डिटेक्टर पार करके आने वाले पैसेंजर को स्कैन करने के लिये तैयार रहता है। एक ऑफ़िसर एक्स-रे मॉनिटर पर होता है जो समय-समय पर ना-समझ में आने वाली या मनाही वाली वस्तुओं के निरिक्षण के लिये आगे खड़े आफ़िसर को संकेत देता रहता है। प्रत्येक आधे घंटे के बाद स्थानांतरण की सुविधा है जिससे हर ऑफ़िसर की पोज़ीशन बदलती रहती है। इस तरह स्थान बदलते हुये डायना एक्स-रे मॉनिटर तक पहुँच चुकी थी जब वह घटना घटी।
मैं तब तक बाहर लिक्विड-जेल वाली पोज़ीशन पर ही टिका था कि सुना--अंदर पेनीट्रेशन हुआ है और वह भी डायना वाली मशीन पर--ख़ुशी की बात यह थी कि डायना टैस्ट पास कर गई थी।
कैट्सा वाले हम सिक्योरिटी ऑफ़िसर्स की परीक्षा लेने के लिये किसी भी पैसेंजर के बैग में नकली पिस्तौल, ग्रेनेड या कोई बम रख कर एक्स-रे मशीन पर भेज देते हैं। अगर हम उस वस्तु को सही तरीके से पहचान लेते हैं तो हमारी कार्य-दक्षता सिद्ध हो जाती है और हम टैस्ट पास कर जाते हैं, परन्तु यदि हम नहीं पहचान पाते तो हमें सस्पेंड किया जाता है और दोबारा ट्रेनिंग के लिये भेज दिया जाता है। इसे ही पेनीट्रेशन-टेस्ट अथवा इनफ़िल्ट्रेशन-टेस्ट कहा जाता है और इससे हर सिक्योरिटी ऑफ़िसर घबराता है। जब भी कोई ऑफ़िसर इस टेस्ट को पास करता है तो बाक़ी सबों को बेहद ख़ुशी होती है। उस दिन, डायना के पास होने पर तो मुझे विशेष रूप से ख़ुशी हुई थी।
डायना मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी। मुझे सिक्योरिटी में काम करते हुये क़रीब सात साल हो चुके थे पर डायना मेरी सिनीयर थी। मेरे ज्वाईन करने के बाद बहुत जल्द ही हमारी दोस्ती हो गई थी। हम दोनों आपस में अपना हर सुख-दुख सांझा करते थे। मुझे कैसी भी ज़रूरत क्यों न हो, डायना हर समय हाज़िर रहती थी। उसकी मुस्कुराहट से मुझे बड़ी तसल्ली मिलती थी। मैं भी उसके लिये सब-कुछ करने को तत्पर रहता था। मेरे घर भी उसका आना-जाना था। मेरी पत्नी से उसकी अधिक तो नहीं फिर भी थोड़ी बहुत बनती थी। हमारे हर दिन-त्योहार में वह शामिल होती थी।
बाद दोपहर जब डायना अपनी लंच-ब्रेक के लिये चैक-प्वाईंट से बाहर निकली तो मैं ख़ुशी से बोला,
"हे डायना.... कॉंग्रेच्यूलेशन... य़ू पास्ड द टेस्ट...आई एम वेरी हैप्पी..."
"थैंक यू मि. सिंह... इट वाज़ नॉट दैट डिफ़ीकल्ट..."
"हाँ, लेकिन जहाँ बाक़ी सारे पेनीट्रेशन से बहुत घबराते हैं वहाँ तुमको मैंने कभी विचलित होते हुये नहीं देखा। तुम पहले भी कई बार यह टैस्ट पास कर चुकी हो। बाई-द-वे क्या था बैग में?" मैंने पूछा
"केवल एक ग्रेनेड था जो बहुत सिम्पल था।"
"तुम्हारे लिये सिम्पल होगा पर दूसरों के लिये शायद कठिन होता।"
"हाँ मि. सिंह, यह भी ठीक है... सब भाग्य की बात है... ओ. के. मैं चलती हूँ... आप भी अपनी ब्रेक ले लीजिये, मैं लंच-रूम में आपकी वेट करती हूँ... बड़ी भूख लगी है.. ब्रेक का टाईम भी थोड़ा है..."
इतना कहकर वह लंच-रूम की ओर बढ़ गई। अपनी ब्रेक के लिये, मेरी नज़रें प्वांईट-लीडर को तलाश करने लगीं। अपनी ब्रेक लेकर मैं लंच-रूम की ओर गया तो डायना लंच-रूम के सामने फ़ूड-कोर्ट में पीज़ा-पीज़ा की दुकान के सामने पीज़ा लिये बैठी थी। बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने डायना को घेर रखा था और वह अपने साथ हुये टेस्ट का विवरण दे रही थी। मैं उसकी ओर देखता रहा।
टर्मिनल तीन पर शायद ही कोई ऐसा कर्मचारी हो जो सिक्योरिटी में काम करने वाली डायना को न जानता हो। उसका मुस्कुराता व्यक्तित्व हर किसी को प्रिय था। पैंतालीस वर्षीय इस रोमानियन लेडी के साथ ऊपर के सारे ऑफ़िसर्स भी स्नेह रखते थे। मेरे तो ख़ास दोस्तों में उसका अव्वल नम्बर था। वह जब भी काम पर आती, प्रत्येक सहकर्मी का हाल पूछती--एअरपोर्ट पर होने वाली नित नई घटनाओं का ज़िक्र करती और हर ज़रूरतमन्द की मदद के लिये हमेशा तत्पर रहती।
अभी कुछ माह पहले की बात है जब हमारे साथ काम करने वाले अब्दुल को दिल का दौरा पड़ा था, किस तरह डायना ने सब के साथ मिल कर उसकी भरपूर सहायता करने की कोशिश की थी। ज्योंहि अब्दुल के बीमार होने और अस्पताल में भर्ती होने का समाचार टर्मिनल पर पहुँचा कि डायना सजग हो उठी। उसने दो-तीन ऑफ़िसर्स को साथ लिया और सारे टर्मिनल से चन्दा इकट्ठा किया साथ ही गेट-वेल-सून का बड़ा सा कार्ड ख़रीद कर उस पर सारे ऑफ़िसर्स के दस्तख़त लिये। फिर शाम को हम कई लोगों को साथ लेकर फूलों का बड़ा सा ग़ुलदस्ता लिये अस्पताल अब्दुल को देखने जा पहुँची। अब्दुल गदगद हो उठा था। उसकी आँखे भर आईं थी।
"मैं यह अहसान कैसे.....चुका...." उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
"शान्त रहो अब्दुल," मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुये कहा था, "अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, तुम्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है... बातें तो बाद में होती रहेंगी।"
"हाँ अब्दुल... मि. सिंह ठीक कहते हैं...," डायना बोली, "तुम केवल आराम करो, जब तुम अच्छी तरह तंदरुस्त होकर वापस काम पर आओगे तब जी भर के बातें करेंगे।"
फिर डायना ने गेट-वेल-सून वाला कार्ड अब्दुल के सामने लगे बोर्ड पर लगाया और अब्दुल की पत्नी को एकत्रित किये हुये पैसे दिये और हम सब को लिये बाहर आ गई। वह नहीं चाहती थी कि अब्दुल ज़्यादा बातें करे, जिससे उसकी तबियत में कोई परेशानी खड़ी हो।
हम सिक्योरिटी वालों में यह एक बहुत अच्छी बात है। हम आपस में एक-दूसरे से कितनी ही खार खाते हों, कितना ही जलते हों, एक-दूसरे के काम में कितनी ही टांग अड़ाते हों, परन्तु जब कोई अब्दुल जैसी मुसीबत का शिकार होता है तो सब एकजुट होकर उसकी सहायता करने का संयुक्त रूप से प्रयास करते हैं। जिससे जो भी बन पड़ता है, वो करता है। इस तरह के सामूहिक कार्यों में डायना की हमेशा प्रमुख भूमिका हुआ करती थी।
क़रीब सत्रह-अठारह साल पहले डायना रोमानिया से प्रवास करके कनेडा आई थी। अपने पति जोसेफ़ के साथ मिल कर उसने इस देश में जी-तोड़ मेहनत की, जिसके फलस्वरूप एक छोटा सा घर उसने ले लिया था। एक ही बेटा था उसका जो अब शादी करके अलग रहने लगा था। अपने आरम्भिक दिनों में बेटे की वजह से वह फ़ैक्टरी में रात की शिफ़्ट किया करती थी। बाद में जब उसे एअरपोर्ट पर सिक्योरिटी की जॉब मिल गई तो वह बहुत ख़ुश हुई थी क्योंकि एक तो यह जॉब शारीरिक रूप से आसान थी और दूसरी यह सुन्दर-स्वच्छ जगह पर साफ़-सुथरी और ज़िम्मेदारी वाली जॉब थी। पढ़े-लिखे लोगों के बीच काम करते हुये डायना ने शायद ही किसी को दुख पहुँचाया हो। वैसे भी, उसका ममतामयी चेहरा सबको बड़ा सुहाता था। परन्तु, ईश्वर के दरबार में जो चल रहा है-- उसे कोई पहले कैसे जान सकता है।
उन दिनों ऐच.बी.ऐस.(HBS) नामक एक नया डिपार्टमेन्ट बना था, जहाँ चेक-बैग्स को एक्स-रे करने की एक नई लाईन सैट की गई थी। नीचे बेसमेन्ट में १५-२० एक्स-रे की नई मशीने लगाई गई थीं जिन पर इतने ही ऑफ़िसर्स बैठ कर, सारे चैक-बैग्स का जहाज़ पर लादे जाने से पूर्व मॉनिटर पर निरिक्षण करते थे। यह सारी बैठने की पोज़ीशने थीं लेकिन यहाँ पर काम करने के लिये स्पेशल-कोर्स करके सर्टिफ़िकेट लेना पड़ता था जो कि कैट्सा ही मुहैया करवाती थी। मेरे और डायना के साथ और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स ने यह कोर्स पहले ही से किया हुआ था। सो, ऐच. बी. ऐस. के बनते ही हम सब की वहाँ पर डियूटी लगा दी गई। हम सब पाँचो दिन वहाँ बैठ कर काम करने लगे। हमारे दिन बड़े मज़े में कटने लगे, लेकिन कब तक?
चैक-लॉऊन्ज में सबों को खड़े होकर काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे लॉऊन्ज में काम करने वाले हम ऐच. बी. ऐस. में काम करने वालों से जलने लगे, जो उचित भी था। इस ईर्ष्या-अग्नि की आँच जब ऊपर के अफ़सरों तक पहुँची, तो उन्होंने और बहुत सारे लॉऊन्ज में काम करने वालों को ऐच. बी. ऐस. का कोर्स करवाना शुरू कर दिया। फलत: बहुत सारे लोग यह कोर्स करते गये और बैठने वाली पोज़ीशन में हस्त्क्षेप होता गया। हम क्यों नहीं बैठ कर काम कर सकते-- यह रवैया हर ऑफ़िसर्स का था। इस तरह डायना और मेरे साथ-साथ क़ाफ़ी सारे लोगों को ऐच. बी. ऐस. से निकाला गया, और बहुत से नये लोगों को डाला गया। आपस में खींचातानी रहने लगी। सब एक-दूसरे जलते थे, एक-दूसरे का शैड्यूल चैक करते थे और फिर एक-दूसरे से कुढ़ते थे। इस तरह के माहौल से डायना बहुत दुखी रहती थी। वह जब अत्यधिक परेशान होती तो मुझसे कहा करती,
"देखो न मि. सिंह.... कितना अच्छा माहौल हुआ करता था हमारे बीच.... अब सब, आपस में एक-दूसरे से इतना जलते हैं कि एक-दूसरे को देखना तक गंवारा नहीं करते। इससे तो अच्छा होता कि यह एच. बी. ऐस. बनता ही नहीं..."
"तुम ठीक कहती हो डायना.... हमारी आपस की लड़ाई के चलते कोई बड़ी बात नहीं कि यह बैठने वाली पोज़ीशन भी कहीं खड़े होने वाली न बन जाये, ख़ैर, छोड़ो इसको तुम बताओ, तुम डॉक्टर के पास चैक-अप के लिये कब जा रही हो?"
"आप भूल गये क्या? मैं पिछले हफ़्ते ही तो जा के आई हूँ, हाँ... टैस्ट की मेरी रिपोर्ट्स आनी अभी बाक़ी है अगले वीक तक वो भी आ जायेगी।"
"आई होप कि सब-कुछ ठीक होगा।"
"हाँ... वो तो होगा ही.... पर मुझे तो चिन्ता यहाँ की रहती है... आप देखना कुछ-न-कुछ तो होगा और जो होगा वो हमारे हक़ मे अच्छा नहीं होगा।"
"हाँ डायना..." मैं गम्भीरता से बोला, "आपस की इस खींचातानी से नुक़सान तो सबका ही होगा। यह तो तय है कि कुछ तो बदलाव आयेगा, हो सकता है हमारी यूनियन इसमें दख़लंदाज़ी करे।"
"नहीं... नहीं... शैड्यूल में हस्तक्षेप करना यूनियन के बस में नहीं है। और फिर, आपको तो पता ही है कि, यह यूनियन तो स्वयं डवांडोल हो रही है। पिछले कुछ अरसे से जिन लोगों को फ़ायर किया गया था, वो किसी नई यूनियन को लाने की अंदर-ही-अंदर जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं।" डायना नाख़ुश लेहजे में बोली।
यह सत्य भी था कि वर्तमान यूनियन से हम सभी असंतुष्ट थे। हम-सब उसे बदलने के पक्ष में थे और हमने उसे बदल भी डाला था। जिन चन्द लोगों को पिछले दो-तीन वर्षों में निकाला गया था, वो लोग अपनी नई यूनियन बनाकर वापस आना चाहते थे। हमारी हमदर्दी उनके साथ होने की वजह से नई यूनियन के आने का मार्ग साफ़ हो गया और चुनाव में पुरानी यूनियन की क़रारी हार हुई। तत्पश्चात, वही निकाले गये लोग फिर से टर्मिनल पर सक्रिय नज़र आने लगे।
डायना ने नई यूनियन को लाने में बड़ा परिश्रम किया था। डियूटी के अलावा भी उसने अपना अतिरिक्त समय देकर, यूनियन को चुनाव जीत कर स्थापित होने में भरपूर सहयोग दिया था। उसके सौहार्दपूर्ण रवैये ने, ऑफ़िसर्स के नज़रिये को बदलने में पूरी मदद की थी। डायना का मान सबके दिलों में और भी बढ़ गया था। सब उसे दिल-ही-दिल में बहुत दुआयें देते थे। मगर, विधाता के घर, सबकी दुआयें कहाँ क़ुबूल होती हैं।
उस दिन, जब मैं काम पर पहुँचा तो मैं कुछ लेट था। इसलिये क़रीब-क़रीब भागते हुये मैं ट्रांसबोर्डर लॉऊन्ज में पहुँचा, जहाँ कि मेरा काम करने का शैड्यूल था। कुछ देर काम करने के पश्चात मुझे यह अहसास हुआ कि लॉऊन्ज इतना बिज़ी नहीं है, फिर भी तमाम ऑफ़िसर्स पर एक चुप्पी-सी तारी है। मेरे ज़ोर देने पर, जब सब ने मुझे बताया तो मैं सन्न रह गया। बात डायना के बारे में थी। एक पल को मैं विश्वास न कर सका। डायना को कैंसर है-- यह सुन कर मेरा तो दिल ही दहल गया।
डायना मेरी बेस्ट-फ़्रैण्ड थी। उसके लिये मैं कुछ भी कर सकता था। वह भी किसी बात के लिये मुझे इन्कार नहीं करती थी। मुझे भी वह अपना ख़ास दोस्त समझती थी। हे भगवान, यह कैसा अन्याय कर रहा है तू मेरी दोस्त के साथ-- मेरे मन-मस्तिष्क में आँधियां चल रहीं थी।
लंच-ब्रेक होते ही मैं डायना की तलाश में भागा। वह मुझे लंच-रूम के बाहर फ़ूड-कोर्ट में ही मिल गई। मैंने उसे देखा तो हतप्रभ रह गया-- भय का नामो निशान नहीं, वही चेहरा वही मुस्कान।
"डायना..... डायना..... यह मैं क्या सुन रहा हूँ.....? यह सब झूठ है न....?" मैंने डायना से जल्दी-जल्दी पूछा।
"अरे छोड़िये न, मि. सिंह..... सच भी है तो क्या हुआ...?"
"तुम समझ नहीं रही हो डायना, यह बहुत गम्भीर बीमारी है, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं अपना दोस्त किसे बनाऊंगा?"
"इतना मोह न पालें मि. सिंह... हम सब हवा के झोंके की तरह हैं, आते हैं चले जाते हैं.... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... बी ब्रेव टू फ़ेस एनिथिंग मि. सिंह....।"
"नहीं डायना यह तो ईश्वर की सरासर नाइन्साफ़ी है..."
"यही तो ज़िन्दगी है मि. सिंह.... बहुत जल्दी मैं केमोथेरापी के लिये जा रही हूँ शायद कोई चमत्कार हो जाये..."
"होगा ज़रूर होगा..." मैंने पूरे विश्वास के साथ कहा।
" खैर छोड़ें, आईये खाना खायें.... आपकी भी यह पहली ब्रेक है..."
वह मुझे ज़बरदस्ती फ़ूड-कोर्ट में ले गई परन्तु मुझसे कुछ खाया न गया।
मैं सारी रात सो न सका। डायना का मुस्कुराता चेहरा हर पल दिमाग़ में छाया रहा। कभी कोई ख़्याल, तो कभी कोई ख़्याल। कनेडा जैसे देश में जहाँ आपके अपने देश के लोगों का ख़ून सफ़ेद हो जाता है, वहाँ कई बार ग़ैर मुल्क़ के लोग आपके इतने क़रीब आ जाते हैं, कि उनकी दोस्ती पर फ़ख़्र करने को मन करता है।
सिक्योरिटी में काम करते हुये मुझे सात साल हो चुके थे। इस दौरान मेरा, ज़िन्दगी के तरह-तरह के रंगों से पाला पड़ा था। एअर-पोर्ट पर विश्व के भिन्न-भिन्न देशों के नागरिकों को मिला कर सिक्योरिटी की टीम बनाई गई है। यूं तो यह बहुत अच्छी बात है, कि जैसे भिन्न-भिन्न फूलों को लेकर तैयार किया गया गुलदस्ता अति मनमोहक और सुन्दर होता है मगर समय के चलते-चलते हर कम्यूनिटी में ग्रुपिज़्म जन्म ले लेता है-- वही बात यहाँ हुई है। हर किसी का अपना दल बन गया है। मज़ाक़ के तौर पर सबने एक दूजे के नाम भी रख छोड़े हैं, जैसे कि इंडियन-माफ़िया, पाकी गैंग, अरबी-ख़ज़ूरें और चायाना-टाऊन आदि। यहाँ ७० प्रतिशत औरतों ने ही जॉब्स पर क़ब्ज़ा कर रखा है जिनमें कामचोर और काहिलों की कमी नहीं है। प्वाईंट-लीडर भी अकसर, मर्दों को दरकिनार कर जब औरतों की हिमायत करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। कुछ तो ऐसे हैं, जो अपने प्रिय लोगों का ही पक्ष लेते हैं और उन्हीं का साथ देते हैं। ऐसे में डायना एक स्वच्छ और ताज़ा हवा की तरह टर्मिनल पर विचरती थी जिसके साथ हुई कुदरती नाईन्साफ़ी को मन नहीं मान रहा था।
मैं तमाम रात करवटें बदलता रहा। सुबह हृदय पर भारी बोझ लिये उठा। काम पर जाने का मन नहीं कर रहा था परन्तु डायना को देखने की तमन्ना लिये चला ही गया। सेन्ट्र्ल-चेक-प्वाईंट से गुज़रते हुये ज्योंहि डायना से सामना हुआ, उसका निस्तेज चेहरा देख ठिठक गया। मुझसे कुछ भी बोला न गया।
वैसे, बीमारी कोई भी शरीर को लग जाये यह अच्छी बात नहीं होती, परन्तु कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनका नाम इस क़दर ख़ौफ़नाक होता है कि सुनते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल भयभीत हो उठता है और चेहरा उदास हो जाता है। कैंसर भी उनमें से एक है।
"अरे... मि. सिंह.... कहाँ खो गये!" डायना ने मेरे चेहरे के आगे चुटकी बजाई।
"कुछ नहीं.... मैं चलता हूँ..... ब्रेक में मिलते हैं।" कह कर अपने आँसू छुपाता हुआ मैं अंदर चला गया।
कई बार देखने में आता है, कि ईश्वर में पूर्ण आस्था रखने वालों के साथ कभी अच्छा नहीं होता है। नेक और ईमानदार राह पर चलने वालों को ही जीवन में कड़ी परीक्षा से गुज़रना पड़ता है, जबकि ग़ैरज़िम्मेदार और बेईमान लोगों को अक्सर आरामदेह जीवन जीते हुये देखा जाता है। ऐसा क्यों-- इसका उत्तर ज़रा कठिन है।
कुछ समय पश्चात डायना को केमोथेरेपी के लिये अस्प्ताल में भर्ती कर लिया गया। उसका काम पर आना तो पहले ही कम हो चुका था। मैं, अब्दुल , पटेल, और भी बहुत सारे ऑफ़िसर्स लगातार उसे देखने अस्पताल जाते रहे।
अपने किसी अज़ीज़ को तिल-तिल कर मरते देखना कितना कठिन होता है--किस-किस तरह की यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है-- यह मैं प्रत्येक दिन, प्रत्येक पल महसूस कर रहा था मगर जोसेफ़, डायना का पति, न जाने किस मिट्टी से बना था?
वह अब पहले वाला जोसेफ़ न रहा। बदल गया था वह। जब डायना को उसकी सब से अधिक आवश्यकता थी, तभी उसने उसका साथ छोड़ दिया। कुछ दिन तो वह अस्पताल डायना को देखने आता रहा मगर फिर वह नहीं आया। और जब मैंने सुना कि वह तमाम घर-बार बेच कर किसी और स्त्री के साथ रहने लग गया है तो मुझे उससे घिन हो आई। अब डायना के पास अस्पताल से जाने के लिये कोई घर भी नहीं बचा था। उसका बेटा भी अपना परिवार लेकर किसी दूसरे शहर चला गया था। मैंने उसे अपने घर की पेशकश दी तो मेरी पत्नी के ख़्याल से उसने स्वीकार नहीं किया। ऐसे में उसकी दूर की एक बहन काम आई। अस्पताल से डायना उसके घर चली गई।
केमोथेरेपी के पश्चात डायना के बाल झड़ गये। उसके मुखड़े का स्वरूप बदल गया। मैं और अब्दुल उसे बराबर देखने जाते रहे। उसका चेहरा कांतिहीन भले हो गया हो मगर उसकी मुस्कान ज्यों-की-त्यों क़ायम थी। उस मुलायम मुस्कुराहट के पीछे,शायद सब-कुछ स्वीकार कर लेने का भाव था। प्रकृति की हर देन को उसने बड़े सहज भाव से क़ुबूल कर लिया था। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
केमोथेरेपी भी महज़ एक डॉक्टरी कोशिश ही निकली। कहते हैं, कि ज़हर, ज़हर को मारता है, मगर यहाँ, ज़हर से ज़हर ने मिलकर डायना को मार डाला।
आज डायना हमारे बीच नहीं है। वह जा चुकी है। एक सच्चे हमदर्द के खोने का ग़म तो मुझे है, परन्तु उसके और मेरे बीच की अदृश्य डोर का अहसास आज भी क़ायम है। बेगाने देश की बेगानी महिला से मिला अपनापन, मेरे दिल की गहराईयों से शायद ही कभी मिटे। आज टर्मिनल पर, अपनों में अपनापन तलाशती मेरी आँखें, कभी-कभी इस क़दर मायूस हो जाती हैं, कि इनको सिवाय जल के और कुछ नहीं मिलता। डायना सबकी थी, पर उसका कोई न था। इन्सानियत उसमें कूट-कूट कर भरी थी। लॉऊन्ज में काम करते हुये आज भी, उसके होने का भ्रम पैदा होता है। उसकी बातें जब चलती हैं तो मुझे लगता है, कि वह यहीं-कहीं है और अपनी मधुर मुस्कान बिखेरते हुये कह रही है,
"मि. सिंह.... कैसे हैं.... मैंने आपसे कहा था न, कि हम-सब हवा के झोंके की तरह हैं.... आते हैं, चले जाते हैं..... कोई आज तो कोई कल.... सबकी बारी निश्चित है.... इसलिये बी ब्रेव मि. सिंह.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.... बी ब्रेव.......

Saturday, April 4, 2009

हमें मंज़ूर है

जैसा तुम कहो, हमें मंज़ूर है
जो भी तुम चाहो, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

बैठी रहो बस यूं ही मेरे रूबरू
तेरा ही ख़्याल मुझे तेरी जुस्तजू
तेरे लिये सब, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

रूठ जाना तेरा, फिर मान जाना
प्यारा-प्यारा सा अंदाज़ ये सुहाना
तेरी हर अदा, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

आँखें तेरी करें, प्यार का इज़हार
होंठ चाहे करें, जितना भी इन्कार
होंठों की मिठास, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

दूर तेरा जाना, हमें नामंज़ूर है
इतना तो बताओ क्या कुसूर है
साथ हर घड़ी का, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

पास कोई और तेरे, ये क़ुबूल नहीं
कोई और छूये तुझे, ये क़ुबूल नहीं
रहो मेरे दिल में, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

शिकवा नहीं कोई मेरे यार तुमसे
रंजिश भी नहीं है मुझे कोई तुमसे
तेरा हर गिला, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

कर लो क़ुबूल हमें, आज की रात
हम आयेंगे ज़रूर, आज की रात
आज हर शर्त, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

हमको तेरे आँसू, कभी मंज़ूर नहीं
चेहरे की उदासी, कभी मंज़ूर नहीं
तेरी हर ख़ुशी, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो.....

ख़ुदा से मिला जो प्यार का ये तोहफ़ा
ज़िन्दगी बना देगा, ये ख़ूबसूरत तोहफ़ा
उसका ये उपहार, हमें मंज़ूर है

जैसा तुम कहो, हमें मंज़ूर है
जो भी तुम चाहो, हमें मंज़ूर है
जैसा तुम कहो............