Sunday, November 8, 2009

भूल कर भी

भूल कर भी अब कभी वो
भूलती मुझको नहीं वो

दिल के अंदर है बसी वो
दूर जाती ही नहीं वो

नाम उसका जब सुनूं मैं
चैन ले जाती तभी वो

साथ रहना, साथ चलना
याद है बातें सभी वो

दिल मेरा तो बैठ जाता
मिल है जाती जब कभी वो

होश मुझको तब नहीं थी
जब मुहब्बत में खुली वो

टूट कर तब रह गया था
छोड़ मुझको जब चली वो

जान थी वो ज़िन्दगी थी
पास जब तक है रही वो

या ख़ुदा ये सिलसिला कर
साथ हो फिर हर घड़ी वो

किस बला ने वो बदल दी
थी मुहब्बत से भरी वो

यार निर्मल मान ले अब
है बुरी इतनी नहीं वो

2 comments:

  1. बेहद खूबसूरत रचना लगी। बधाई

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  2. सिद्धु जी, अच्छा है। क़ाफ़िया में ज़रा गड़बड़ है। नहीं के साथ कभी - क़ाफ़िये को ग़लत बना रहा है। देख लें एक बार।

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